कुल्लू: ढालपुर के मैदान में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की तैयारियां चली हैं. जिला कुल्लू के विभिन्न इलाकों से देवी-देवता भी अब ढालपुर मैदान का कुछ दिनों में रुख करेंगे. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में कुछ ऐसे देवी-देवता भी हैं जिनके बिना दशहरा उत्सव की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
माता हिडिंबा हैं राज परिवार की दादी
ऐसी ही एक देवी जिला कुल्लू के पर्यटन नगरी मनाली में स्थित हैं जिन्हें राज परिवार की दादी भी कहा जाता है. इस देवी के आगमन से ही अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की शुरुआत होती है. यह देवी हैं माता हिडिंबा, जिन्हें महाभारत के योद्धा भीम की पत्नी कहा जाता है.
माता हिडिंबा राजपरिवार की कुलदेवी हैं और राजपरिवार उन्हें आज भी दादी के नाम से संबोधित करता है. अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में माता हिडिंबा की अहम भूमिका रहती है. माता को राजघराने की दादी कहा जाता है.
माता हिडिंबा के आगमन से शुरू होता है कुल्लू दशहरा
कुल्लू दशहरा देवी हिडिंबा के आगमन से शुरू होता है. पहले दिन देवी हिडिंबा का रथ कुल्लू के राजमहल में प्रवेश करता है और यहां माता की पूजा के बाद रघुनाथ भगवान को भी ढालपुर में लाया जाता है. माता अगले सात दिन तक अपने अस्थायी शिविर में ही रहती हैं और लंका दहन के बाद ही अपने देवालय लौटती हैं.
माता हिडिंबा की उपस्थिति दशहरे में अति आवश्यक है. माता के रामशिला के हनुमान मंदिर पहुंचने पर रघुनाथ की छड़ी उनको सम्मान पूर्वक लाने के लिए जाती है. इसके बाद माता का राजमहल में प्रवेश होता है. राजपरिवार के लोग सभी परंपराओं का निर्वहन करने के बाद ही देवी के दर्शन करते हैं. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का आगाज होता है.
माता को दी जाती है अष्टांग बलि
मोहल्ले के दिन भी माता को लाने के लिए रघुनाथ की छड़ी आती है और इसके बाद मोहल्ला किया जाता है. लंका दहन के लिए होने वाली रथयात्रा में माता का रथ सबसे आगे चलता है. आगे चलकर माता हिडिंबा पूरा देव महाकुंभ को बखूबी संपन्न करती हैं. इसके साथ माता को अष्टांग बलि दी जाती है. अष्टांग बलि के समय माता हिडिंबा का गूर, पुजारी घंटी धड़च्छ के साथ जाते हैं जबकि माता का रथ कुछ दूरी पर रहता है लेकिन जैसे ही बलि की प्रथा पूरी हो जाती है. माता का रथ स्वत: ही पीछे मुड़कर देवालय की ओर लौट जाता है.
इसके साथ ही दशहरा उत्सव का समापन हो जाता है. माता हिडिंबा की उपस्थिति के बिना दशहरा उत्सव अधूरा है. देवी दशहरे की शुरुआत से लेकर समापन करती हैं. राजपरिवार सुख-शांति के लिए अष्टांग बलि देता है. बलि की प्रथा संपन्न होते ही माता देवालय की ओर रवाना हो जाती हैं.
राजा जगत सिंह ने माता के दैविक वचनों का अनुसरण करते हुए 16वीं शताब्दी में कुल्लू दशहरा की परंपराओं का आगाज किया था. इसके चलते आज भी माता की पूजा और उनके कुल्लू में पहुंचने से पहले दशहरा की प्रक्रियाओं को शुरू नहीं किया जाता.
माता हिडिंबा का यहां पहुंचने पर जोरदार स्वागत किया जाता है. जिला मुख्यालय के रामशिला में राजा का एक सेवक चांदी की छड़ी लेकर जाता है और पारंपरिक तरीके से माता का अभिवादन कर रघुनाथ के दरबार और फिर राजा के बेहड़े में पहुंचाता है.
दशहरा उत्सव के दौरान सभी मेहमान देवताओं में माता हिडिंबा को भी पहली श्रेणी में रखा जाता है. द्वापर युग में हिडिंबा भीम को चाहती थी और उन्होंने भीम को शादी करने के लिए कहा लेकिन भीम ने विवाह करने से मना कर दिया.
इस पर माता कुंती ने भीम को समझाया कि इसका इस दुनिया में अब और कोई नहीं है इसलिए तुम हिडिंबा से विवाह कर लो. कुंती की आज्ञा से हिडिंबा व भीम का विवाह हुआ. इन्हें घटोत्कच नामक पुत्र हुआ जिसने महाभारत की लड़ाई में अत्यंत वीरता दिखाई थी. उन्हें भगवान श्रीकृष्ण से इंद्रजाल का वरदान प्राप्त था और उनके चक्रव्यूह को सिर्फ और सिर्फ खुद भगवान श्रीकृष्ण ही तोड़ सकते थे.
पाण्डु पुत्र भीम से विवाह करने के बाद हिडिंबा राक्षसी नहीं रही और वह मानवी बन गई. कालांतर में मानवी हिडिंबा ने मां दुर्गा की आराधना की और देवी के आशीर्वाद से वो देवी बन गई. हिडिंबा का मूल स्थान चाहे कोई भी रहा हो पर जिस स्थान पर उनका दैवीकरण हुआ है वह मनाली ही है.
पर्यटन नगरी मनाली में देवी हिडिंबा का मंदिर बहुत भव्य और कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है. मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है जिसके नीचे देवी का स्थान माना जाता है. चट्टान को स्थानीय बोली में 'ढूंग कहते हैं इसलिए देवी को 'ढूंगरी देवी कहा जाता है. देवी को ग्राम देवी के रूप में भी पूजा जाता है.
यह मंदिर मनाली के निकट विशालकाय देवदार वृक्षों के मध्य चार छतों वाला पैगोड़ा शैली का है. मंदिर का निर्माण कुल्लू के शासक बहादुर सिंह (1546-1569 ई.) ने 1553 में करवाया था. दीवारें परंपरागत पहाड़ी शैली में बनी हैं. प्रवेश द्वार पर लकड़ी की नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना है.
प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सूरत ठाकुर का कहना है कि माता हिडिंबा के बिना दशहरा उत्सव की शुरुआत नहीं होती है. इसके अलावा यहां पर और भी देवी-देवता आते हैं जो माता हिडिंबा का स्वागत करते हैं. अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव जहां देवी देवताओं का महाकुंभ कहा जाता है तो कुछ देवी-देवता ऐसे भी हैं जिनके बिना अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव संपन्न नहीं होता. ऐसे में देवी-देवताओं की उपस्थिति भी काफी आवश्यक है जिनमें माता हिडिंबा का भी प्रमुख स्थान है.
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