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'अल नीनो'-'ला नीना': महासागरों की जुगलबंदी हमारे जलवायु पैटर्न को कैसे प्रभावित करती है!

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Feb 10, 2024, 3:41 PM IST

climate patterns
जलवायु परिवर्तन

'अल नीनो' और 'ला नीना' का हालांकि अलग-अलग पैटर्न और व्यवहार है, लेकिन वे निश्चित रूप से दुनिया के कई हिस्सों में जलवायु पैटर्न को प्रभावित करते हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलुरु के सहायक प्रोफेसर सीपी राजेंद्रन का विश्लेषण...

बेंगलुरु : जलवायु परिवर्तन पर मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 'अल नीनो' की समुद्री घटनाओं को प्रभवित कर रही हैं. सतह के पानी का एक सामयिक वार्मिंग चरण को कि सुदूर उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर से शुरू होता है. ऐसे में दक्षिण अमेरिकी देश पेरू से दूर महासागर में होने वाली किसी घटना को लेकर भारत के लोग क्यों चिंतित होंगे? हालांकि इससे मौसम का प्रभाव अर्थव्यवस्थाओं पर महत्वपूर्ण वैश्विक प्रभाव पड़ सकता है. प्रशांत महासागर में पानी का गर्म होना दक्षिण एशियाई मानसून सहित दुनिया के कई हिस्सों में बारिश के पैटर्न से जटिल रूप से संबंधित है, जो कि भारत में रहने वाले अरबों लोगों के लिए जीवन रेखा है.

'यिन और यांग' की तरह - चीनी अवधारणा के बीच 'अल नीनो' स्पेक्ट्रम का केवल एक छोर है और दूसरे छोर को 'ला नीना' कहा जाता है. यह तब बनता है जब भूमध्यरेखीय पूर्वी प्रशांत महासागर ठंडी जल सतह बनाता है. इसे सबसे पहले पेरू के मछुआरों ने देखा. उन्होंने स्पेनिश में अल नीनो और ला नीनो शब्द गढ़े, जिसका अर्थ है 'छोटा लड़का' और 'छेटी लड़की'. वैज्ञानिक इस घटना को अल नीलो-दक्षिणी दोलन-ईएनएसओ चक्र कहते हैं.

सामान्य समय के दौरान ये 'ट्रेड विंड्स' भूमध्य रेखा के समानांतर पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं, जिससे दक्षिण अमेरिका के प्रशांत महासागर से गर्म पानी एशियाई पक्ष की ओर बहने के लिए मजबूर हो जाता है. वहीं ये हवाएं इस क्षेत्र में ऊपरी गर्म पानी को दूर धकेलने में मदद करती हैं, जिससे ठंडे पोषक तत्वों से भरपूर पानी को नीचे से ऊपर उठने में मदद मिलती है ताकि ऊपर उठने की प्रक्रिया सक्रिय रहे. फलस्वरूप ऐसी प्रक्रिया सूक्ष्म प्लवक से लेकर मछली तक समुद्र के जीवन को पनपने में मदद करती है. लेकिन अल नीनो चरण के दौरान, पूर्वी हवाएं गर्म पानी को अमेरिका के पश्चिमी तट की ओर धकेलते हुए अपनी ताकत खो देती हैं, जबकि ला नीना के दौरान पूर्वी हवाएं ताकत इकट्ठा कर लेती हैं.

हालांकि, गर्म और ठंडे चरणों के बीच प्रशांत महासागर की ओर ले जाने वाली मूलभूत प्रक्रियाएं समुद्र और वायुमंडल के बीच जटिल अंतःक्रिया में निहित हैं. दक्षिणी दोलन की घटना की खोज सबसे पहले गिल्बर्ट थॉमस वॉकर ने की थी, जो 1904 में भारत में मौसम विज्ञान वेधशालाओं के महानिदेशक के रूप में कार्यरत थे. उन्होंने भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों से बड़ी मात्रा में मौसम डेटा के सहसंबंध पैरामीटर विकसित करने के लिए अपने ठोस गणितीय ज्ञान का उपयोग किया.

वह भारत और प्रशांत महासागर के बीच वायुमंडलीय दबाव के वैकल्पिक बदलाव के पैटर्न और भारत सहित उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में परिवर्तनशील तापमान और वर्षा पैटर्न के साथ इसके संबंध की रिपोर्ट करने वाले पहले व्यक्ति थे. हालांकि वॉकर अपने समय से बहुत आगे थे लेकिन उन दिनों किसी ने उनके निष्कर्षों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. गिल्बर्ट वॉकर के नाम पर तथाकथित 'वॉकर सर्कुलेशन' की पुनः खोज 1960 के दशक में उपग्रह अवलोकनों की मदद से संभव हुई, जिसने इस तथ्य को स्थापित किया कि महासागर और वायुमंडल वास्तव में युग्मित है. इसका वैश्विक जलवायु पर प्रभाव पड़ता है. इतना ही नहीं इन दिनों उन्नत उपग्रह प्रौद्योगिकियां जैसे उन्नत अति उच्च-रिज़ॉल्यूशन रेडियोमीटर द्वारा एकत्र किए गए डेटा हमें महासागरों की सतह के तापमान की विसंगतियों की निगरानी करने में मदद करते हैं. इससे अब हम कई उपग्रहों से वैश्विक वर्षा डेटा को मिश्रित करने में सक्षम हैं.

यह स्पष्ट नहीं है कि ईएनएसओ फीडबैक लूप का प्रारंभिक बिंदु क्या है. यह संभव है कि जब 'ट्रेड विंड्स' धीमी हो जाती हैं तो हवाओं की मजबूती के जवाब में समुद्र की सतह का तापमान गर्म या ठंडा होने लगता है. जैसा भी हो, तापमान में उतार-चढ़ाव की चक्रीय घटनाएं, 'ट्रेड विंड्स' के घटने-बढ़ने की प्रतिक्रिया में बनने के बाद आम तौर पर एक साल तक चलती हैं. लेकिन कभी-कभी वर्षों तक फैल जाती हैं और हर दो से सात साल में घटित होती हैं और दुनिया भर में लंबी पट्टी में दूर तक फैलती हैं. पिछले वर्ष वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व उच्च तापमान दर्ज किया गया था और इसके लिए अल नीनो को एक प्रमुख कारक माना जाता है.

हालांकि, विज्ञान पत्रिका जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चलता है कि यद्यपि सौर ताप में परिवर्तन जैसी प्राकृतिक परिवर्तनशीलता की अल नीनो को ट्रिगर करने में प्रमुख भूमिका है. हालांकि अब यह मानव-प्रेरित ग्लोबल वार्मिंग से भी प्रभावित पाया गया है जिसके लिए मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों के इनपुट के साथ ही जलवायु परिवर्तन के निर्णायक बिंदु को 1970 के दशक में पार कर लिया गया होगा. राष्ट्रीय समुद्री और वायुमंडलीय प्रशासन (NOAA) के जलवायु केंद्र द्वारा यह बताया गया है कि सुपर स्ट्रॉन्ग अल नीनो ने प्रशांत जल में अभूतपूर्व गर्मी पैदा कर दी है. यह सामान्य से 2 डिग्री अधिक दर्ज की गई है और बहुत जल्द ही चरण से अपना अंतिम पड़ाव लेने वाली है, क्योंकि मजबूत अल नीनो प्रभाव की वजह से पिछला वर्ष रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष साबित हुआ था. भारत सबसे भीषण गर्म अवधि और 120 वर्षों में सबसे शुष्क अगस्त से गुज़रा था. जिसमें बारिश का असमान वितरण और कुल बारिश में 6 प्रतिशत की कमी हुई थी.

बताया गया है कि दिसंबर तक देश का कम से कम 25 प्रतिशत हिस्सा सूखे की स्थिति में होगा. अप्रैल 2024 तक अल-नीनो-दक्षिणी दोलन (ENSO) के तटस्थ होने की उम्मीद के साथ, जुगलबंदी के दूसरे प्लेयर ला नीना को केंद्र मंच पर आने में कितना समय लगेगा? अल नीनो के विपरीत ला नीना जब शक्तिशाली हो जाएगा तो संभवतः भारत में अधिक मात्रा में वर्षा और ठंडा तापमान लाएगा. सवाल यह है कि इस बार ला नीना मौसम के मिजाज में महत्वपूर्ण बदलाव लाने में कितना शक्तिशाली होगा, ताकि अल नीनो के दौरान सबसे ज्यादा नुकसान झेलने वाले शुष्क क्षेत्र राहत की सांस ले सकें. लेकिन यह कहानी का केवल एक हिस्सा है, और अगर ला नीना बहुत अधिक शक्ति धारण कर लेता है तो यह 'राक्षस' या संकट के बीज बोने वाला विध्वंसक बन सकता है. जब तक नुकसान को रोकने के लिए समय पर सावधानी नहीं बरती जाती और संभावित खतरों को कम करने के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की जाती, तब तक एक मजबूत ला नीना के कारण असामयिक बारिश हो सकती है, जिससे बड़े पैमाने पर बाढ़ आ सकती है. इस वजह से फसलें नष्ट हो सकती हैं और संपत्ति को नुकसान हो सकता है.

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(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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