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उत्तराखंड राज्य स्थापना के 23 साल बाद भी नहीं रुकी पलायन की रफ्तार, तमाम योजनाओं के बाद भी खाली हो रहा पहाड़!

By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Nov 9, 2023, 9:24 AM IST

Uttarakhand migration उत्तराखंड में पलायन को रोकने के लिए तमाम सरकारों ने कई प्रयास किए. लेकिन उत्तराखंड राज्य स्थापना के 23 साल बाद भी पलायन की रफ्तार कम होने के बजाए बढ़ी ही है. ऐसे में तमाम सरकारों पर सवाल खडे़ होने लाजमी हैं कि जिस सपने के साथ उत्तराखंड राज्य का गठन किया, वो काम आज 23 साल बाद भी अधूरा है.

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देहरादून: उत्तराखंड आज 9 नवंबर को अपना 23वां स्थापना दिवस मना रहा है. इन 23 सालों में उत्तराखंड ने कई चुनौतियों से पार पाने के साथ ही विकास के कई कीर्तिमान भी स्थापित किए हैं. लेकिन एक समस्या का समाधान इन 23 सालों में कोई सरकार नहीं कर पाई है. हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड के खाली होते गांवों यानी पलायन की है.

उत्तराखंड में सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जो पूरी तरह से खाली हो चुके हैं.

23 सालों में उत्तराखंड में कई ऐसे काम हुए हैं, जिनको लेकर प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं का ढांचागत विकास हुआ है. लेकिन उन कामों के लिए 23 साल का वक्त शायद बहुत ज्यादा है. राज्य गठन के बाद से ही उत्तराखंड में सबसे बड़ा मुद्दा पलायन ही रहा है. ऐसे में सत्ता में रही राजनीतिक पार्टियों को ये सोचना पड़ेगा कि जिन सिद्धांतों और मुद्दों को पूरा करने की कसम पहली बार सरकार ने खाई गई थी, वह कसम 23 साल बाद भी अधूरी है.

उत्तराखंड में पलायन का बड़ा कारण मूलभूत सुविधाओं का अभाव और बेरोजगारी है.

उत्तराखंड के भूतिया गांव: प्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी और उसके कारण हो रहा पलायन आज भी प्रदेश का प्रमुख मुद्दा है. रोजगार न मिलने के कारण पहाड़ का युवा अपना गांव छोड़ने को मजबूर है. देश के अन्य पहाड़ी राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा पलायन उत्तराखंड में ही हुआ है. उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं रीजन में सैकड़ों गांव हैं, जिन्हें भूतिया गांव घोषित किया जा चुका है. यानी उन गांवों में आज कोई नहीं रहता है.
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दावों की हकीकत:बीते 23 सालों में तमाम सरकारों ने उत्तराखंड में पलायन को रोकने के लिए कई योजनाएं बनाई और उन पर करोड़ों रुपए भी खर्च किए, लेकिन हकीकत सबसे सामने है. स्थिति ये है कि मूलभूत सुविधा के अभाव और रोजगार की तलाश में बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को गांव में छोड़कर उत्तराखंड के मैदानी या फिर दूसरे प्रदेशों का रुख कर रहे हैं. कुछ रिपोर्ट पर गौर करें तो उत्तराखंड में हर पांच साल में पलायन बढ़ रहा है.

उत्तराखंड के लोगों ने चुकाई विकास की कीमत: उत्तराखंड के लोगों ने विकास की बड़ी कीमत चुकाई है. टिहरी जैसे बांध के लिए पूरा शहर डुबो दिया गया था. डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों को मैदानी इलाके में बसाया गया. उत्तराखंड में कई गांवों में तो आज तक सड़क भी नहीं पहुंची है. वहीं, जिन गांवों में जब तक सड़क पहुंची, तबतक वो पूरी तरह से खाली हो चुके थे. मजे की बात सरकार इसे अपनी बड़ी उपलब्धि मानती है.

पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ एसएस नेगी

पलायन आयोग का गठन: उत्तराखंड में पलायन की वास्तविक स्थिति जानने और उसे रोकने के लिए पूर्व की त्रिवेंद्र सरकार ने पलायन आयोग का गठन किया था. हालांकि उसके बाद भी हालात कुछ खास नहीं सुधरे. मौजूदा समय में किसी भी सरकार के लिए पलायन को रोकना सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है.
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रिवर्स पलायन: उत्तराखंड के भूतिया गांव कोरोना काल में आबाद हो गए थे. बड़ी संख्या में लोगों ने रिवर्स पलायन किया था. तब सरकार ने लोगों को गांवों में बसाने और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की थी, जिसका कुछ लोगों ने फायदा भी उठाया और अपना व्यवसाय भी किया था. लेकिन वक्त के साथ-साथ ये योजनाएं धूमिल होती चली गईं और रोजगार के अभाव में फिर से लोगों ने पहाड़ से पलायन किया.

इस बात से यह अंदाजा तो लग गया अगर पहाड़ों के गांव में आसपास ही उन्हें रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं मिलेंगी तो न केवल उत्तराखंड से पलायन करके गए लोग वापस आएंगे बल्कि प्रवासियों को भी आने का एक अवसर मिल सकेगा.
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पलायन आयोग की रिपोर्ट: साल 2018 की पलायन आयोग की रिपोर्ट पर गौर करें तो उसमें साफ किया गया है कि यदि सरकार पहाड़ों पर रोजगार के अवसर पैदा करे और गांव में मूलभूत सुविधाएं दी जाए तो पलायन कर चुके 50 फीसदी लोग वापस आने को तैयार है, जिस पर सरकार ने काम भी किया और मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, होम स्टे योजना, मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजनास पशुपालन और कृषि के साथ-साथ कौशल विकास से जुड़ी तमाम योजनाएं शुरू की. ताकि पहाड़ के खाली होते गांव फिर से आबाद हो सके.

पलायन आयोग के सुझाव:पलायन आयोग ने सरकार को कई सुझाव दिए हैं. अगर उन पर गंभीरता से काम किया जाए तो पलायन को काफी हद तक रोका जा सकता है.

  • इन सुझावों में यह कहा गया है कि कम से कम 3 साल तक जो गांव पलायन से प्रभावित हैं, उनमें आजीविका विकास पर विशेष ध्यान देना होगा.
  • जिलाधिकारी और बीडीओ इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि सरकारी योजनाओं का कार्य बेहतर तरीके से हो रहा है या नहीं.
  • मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना के तहत जितनी भी योजनाएं चलाई जा रही हैं, उनकी धनराशि समय से गांव तक पहुंच रही है या नहीं.
  • उन विभागों में बजट की उपलब्धता रखनी होगी जो विभाग सीधे तौर पर ग्रामीण परिवेश को छूते हैं.

आंकड़ों से समझें पलायन का दर्द: उत्तराखंड में पलायन का दर्द समझना हो तो एक बार आंकड़ों पर जरूर ध्यान देना होगा. पलायन आयोग के आंकड़ों पर ध्यान दें तो

  • उत्तराखंड में 3946 गांवों में से 117,981 ग्रामीणों ने पूरी तरह पलायन कर लिया था.
  • हैरानी की बात तो ये है कि साल 2018 में ही 6338 गांव के 383,726 ग्रामीणों ने अस्थाई पलायन भी किया है.
  • साल 2022 में 2067 गांव में से 28,531 लोगों ने स्थाई पलायन किया है.
  • वहीं, 6436 गांव ऐसे हैं, जिनमें से 3,073,101 लोगों ने अस्थाई पलायन किया है.

स्थायी पलायन का कारण: पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार स्थायी तौर पर पलायन करने वाले लोग राज्य से बाहर नहीं गए हैं. उन्होंने प्रदेश के मैदानी या फिर शहरी इलाके में अपना घर बनाया है. इसके अलावा कुछ लोगों ने सरकारी नौकरी के कारण स्थायी तौर पर पलायन किया है.

अस्थाई पलायन उन लोगों ने किया है, जो रोजगार के सिलसिले में अपने गांव से बाहर जाते हैं और फिर एक समय के बाद वापस आ जाते हैं. हालांकि कई मामलों में यह देखने के लिए भी मिला है कि अस्थाई पलायन वाला व्यक्ति कारोबार या नौकरी में जब लगातार किसी एक जगह पर रहता है तो वह अपने परिवार या अपने बच्चों के साथ वहीं पर शिफ्ट हो जाता है.

पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ एसएस नेगी का कहना है कि उत्तराखंड से पलायन हो रहा है. सरकार भी इसे बेहद गंभीरता से लेती है. सरकार किसी की भी रहे वह यह कोशिश करती है कि पहाड़ों से लोग अपने घरों को छोड़कर न जाएं, लेकिन पलायन को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने पड़ेंगे. एक रोड मैप के तहत कम से कम 10 से 15 सालों तक काम करने की जरूरत है.

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