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बनारस की गलियों में मिलता है हौसला, अपने हुनर से दिव्यांग बच्चे रिश्तों में भर रहे प्रेम

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Published : Aug 1, 2022, 8:08 PM IST

वाराणसी जिले में मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों को राखी बनाना सिखाया जा रहा है. इन बच्चों का राखी बनाते समय मनोरंजन हो रहा है. साथ ही उन्हें उनके काम का मेहनताना भी मिल रहा है. आखिर कैसे ये हो रहा संभव जानने के लिए पढ़ें हमारी यह रिपोर्ट.

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दिव्यांग बच्चे बना रहे राखी

वाराणसीः 'मन के हारे हार है मन के जीते जीत.' जी हां यदि जिंदगी जीने का हौसला सीखना है तो काशी इन गलियों में जरूर आइए. क्योंकि कमच्छा की गलियों में रहने वाले बच्चे न सिर्फ आपको जीवन जीने का हौसला देंगे, बल्कि आपके जीवन जीने के नजरिए को भी पूरी तरीके से बदल देंगे. ये बच्चे कोई साधारण बच्चे नहीं हैं, बल्कि ये वे हैं जिन्हें पीएम मोदी ने दिव्यांग नाम दिया है. खास बात यह है कि यह दिव्यांग बच्चे इन दिनों भाई-बहन के जीवन में प्रेम घोलने की कवायद में जुटे हैं. इनके इस प्रयास से न सिर्फ भाई-बहन के प्रेम में मधुरता आएगी, बल्कि ये आत्मनिर्भर भी बनेंगे.

दिव्यांग बच्चे बना रहे राखी
शहर के कमच्छा इलाके में मौजूद देवा इंटरनेशनल फाउंडेशन से जुड़े बच्चों को दुनिया का ज्ञान नहीं है. लेकिन इनके पास राखियों को खूबसूरत बनाने की कला है. ये राखी को अलग-अलग स्वरूप में तैयार कर रहे हैं. बड़ी बात यह है कि राखी बनाने के साथ बच्चों का मनोरंजन हो रहा है. साथ ही इस कार्य को करने पर उन्हें कुछ मेहनताना भी मिल रहा है. बच्चों ने बताया कि यह सभी राखियां लगभग वेस्ट मटेरियल से बनायी जा रही हैं. इसमें लैस, कागज, गोंद व अन्य घरेलू सामानों का प्रयोग हो रहा है. वे 3 हफ्ते से राखियां बनाना सीख रहे हैं और उनके द्वारा बनाई गई राखियां अब तैयार हो गई हैं. उन्होंने बताया कि यह काम करने में उन्हें अच्छा लगता है उनका मन बहलता है.

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बच्चे व्यवहारिकता सीखने के साथ बन रहे आत्मनिर्भर
बच्चों को राखी बनाने की शिक्षा दे रही अनुपमा ने बताया कि सभी बच्चे मानसिक रूप से दिव्यांग हैं. इनकी मानसिक आयु वर्ग 7 से 10 साल तक के बच्चों की हैं. इसी के अनुसार इन्हें राखी बनाना सिखाया जा रहा है. राखी बनाने से ये बच्चे व्यवहारिक रूप से नई चीजें सीख रहे हैं. साथ ही इसके जरिए उन्हें दो पैसे की आमदनी भी हो रही है. उन्होंने बताया कि यह राखियां बनने के बाद स्कूलों, कॉलेजों और अलग-अलग दुकानों पर भेजी जाती हैं, जहां उन्हें बेचा जाता है. बेचने के बाद जो भी लाभ होता है, वह बच्चों में बांट दिया जाता है. इससे यह बच्चे व्यवहारिक रूप से कुछ सीखने के साथ-साथ आर्थिक रूप से कुछ पैसे भी कमा लेते हैं.

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