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अजित सिंह को सीएम नहीं बनने दिए थे मुलायम और आज अखिलेश के लिए जयंत...

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Published : Dec 20, 2021, 8:28 AM IST

यूपी में भाजपा को रोकने के लिए साथ आए सपा-रालोद के साथ जुड़ा है ये अमिट सियासी सच, 42 साल पहले हुआ था कुछ ऐसा कि टूट गई थी मुलायम सिंह यादव की अजित सिंह से दोस्ती और अजित सिंह नहीं बन पाए थे सीएम.

अजित सिंह को सीएम नहीं बनने दिए थे मुलायम
अजित सिंह को सीएम नहीं बनने दिए थे मुलायम

हैदराबाद:सियासत में न तो कोई परमानेंट दोस्त होता है और न ही दुश्मन. यहां तक कि जो आज साथ खड़ा है, वो चुनाव बाद भी साथ खड़ा होगा कि नहीं, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है. यानी सियासत में सब संभव है. नजीर के तौर पर महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को ले सकते हैं, जो चुनाव तो साथ मिलकर लड़े, लेकिन परिणाम के बाद दोनों मिलकर सरकार न बना सके. बात अगर उत्तर प्रदेश की सियासत की करें तो जिस मुलायम सिंह यादव ने कभी अजित सिंह को सूबे का मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, आज उन्हीं के बेटे जयंत चौधरी मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं. आलम यह है कि जयंत अखिलेश के लिए बैटिंग कर रहे हैं, ताकि अखिलेश फिर से मुख्यमंत्री बन सकें.

खैर, ये दोनों ही नेता अपने-अपने पिता की सियासी विरासत को संभाल रहे हैं. इनकी दोस्ती का मकसद 2022 का चुनाव है. लेकिन आज से करीब 42 साल पहले इन दोनों के पिता की दोस्ती भी चुनाव की वजह से टूट गई थी. उस जंग में अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने जयंत के पिता अजित सिंह को पटखनी दे बनते सियासी समीकरण को बिगाड़ने का काम किया था.

सपा-रालोद गठबंधन

दरअसल, 11 अक्टूबर, 1988 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन था और उसी दिन भारतीय सियासत में एक नई पार्टी का जन्म हुआ, जिसे जनता दल नाम दिया गया. इसमें जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल अजित और लोकदल बहुगुणा के साथ ही कांग्रेस (एस) का विलय किया गया था. वहीं, 1989 में सूबे में विधानसभा चुनाव होने थे और उस दौरान प्रदेश में विधानसभा की कुल 425 सीटें हुआ करती थीं.

इधर, कांग्रेस विरोधी लहर में जनता दल ने 356 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 208 सीटों पर जीत मिली तो वहीं, कांग्रेस 410 सीटों पर चुनाव लड़कर भी 94 सीटें ही हासिल कर पाई थी. ऐसे में बहुमत किसी के पास नहीं था, लेकिन जनता दल बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसे सरकार बनाने के लिए कम से कम पांच और विधायकों का समर्थन चाहिए था.

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जनता दल भले ही इस चुनाव में बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. लेकिन जनता दल में नेतृत्व का निर्णय इसलिए मुश्किल था, क्योंकि जनता दल कोई एक पार्टी न होकर अलग-अलग पार्टियों का समूह थी. यही कारण है कि इसके हर नेता की अपनी सियासी महत्वाकांक्षा थी और यही महत्वाकांक्षा केंद्र में सरकार बनाने के समय भी सामने आई थी.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव संग पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव

हालांकि, तब यह तय हुआ था कि प्रधानमंत्री तो चौधरी देवीलाल बनेंगे. खुद वीपी सिंह कई साक्षात्कारों में यह कह चुके थे कि नेता का चुनाव संयुक्त मोर्चा ही करेगा. लेकिन जब नेता चुनने की बारी आई और चौधरी देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा गया तो चौधरी देवीलाल ने कहा कि वो सिर्फ ताऊ ही बने रहना चाहते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम का प्रस्ताव रख दिया. वीपी सिंह का नाम आते ही चौधरी अजित सिंह ने उस नाम का अनुमोदन कर दिया. इससे नाराज चंद्रशेखर चिल्ला उठे और सदन से बाहर निकल गए.

वहीं, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के भी नतीजे आ गए थे. प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने तय किया कि यूपी के नए मुख्यमंत्री अजित सिंह होंगे. मुलायम सिंह यादव का नाम प्रदेश के उपमुख्यमंत्री के लिए तय किया गया था. लेकिन मुलायम ने इसका विरोध कर दिया और इस विरोध की वजह थी अजित सिंह से 1987 में हुई उनकी पुरानी अदावत.

अजित सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह लोकदल का कार्यकारी अध्यक्ष हेमवती नंदन बहुगुणा को बनाए थे. लेकिन चरण सिंह के बेटे तो अजित सिंह थे, लिहाजा लोकदल के नेता भी अजित सिंह की ही सुनते थे. उनके कहने पर ही लोकदल के विधायकों ने बैठक बुलाई और यूपी में अपने नेता प्रतिपक्ष मुलायम सिंह यादव को विपक्ष के नेता के पद से हटा दिया था. साथ ही उन्हें लोकदल से भी बाहर कर दिया गया.

लेकिन मुलायम अपने उस अपमान को भूले नहीं थे. वहीं, चंद्रशेखर को भी याद था कि कैसे अजित सिंह ने प्रधानमंत्री पद के लिए वीपी सिंह के नाम का अनुमोदन किया था. मुलायम के पास मौका था अजित सिंह को सबक सिखाने का. इधर, चंद्रशेखर भी वीपी सिंह और अजित सिंह दोनों को सबक सिखाने के लिए बेकार थे.

पिता अजित सिंह, रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी

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ऐसे में चंद्रशेखर ने मुलायम सिंह यादव का समर्थन किया. चंद्रशेखर के समर्थन के बाद मुलायम भी अड़ गए कि मुख्यमंत्री वही बनेंगे. हालांकि, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अजित सिंह के नाम को सामने रखने से पहले किसी विधायक से उसकी राय तक नहीं जानी थी. उन्होंने कहा कि अब मुख्यमंत्री पद के लिए गुप्त मतदान होगा और जो जीतेगा, वही सूबे का मुख्यमंत्री बनेगा.

इसके लिए मधु दंडवते, चिमन भाई पटेल और मुफ्ती मोहम्मद सईद को पर्यवेक्षक बनाकर लखनऊ भेजा गया. वहीं मुलायम सिंह यादव ने दांव चला और बाहुबली डीपी सिंह और अपने साथी बेनी प्रसाद वर्मा की मदद से अजित सिंह खेमे के 11 विधायकों को तोड़ लिए. तय समय पर विधानसभा के तिलक हॉल में वोटिंग हुई. बाहर मुलायम और अजित के समर्थक अपने-अपने नेता के लिए जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे.

नतीजा आया तो मुलायम सिंह यादव पांच वोटों से अजित सिंह से चुनाव जीत गए थे और फिर 5 दिसंबर, 1989 को मुलायम सिंह यादव पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने. ऐसे में अजित सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट गया और फिर इसके बाद वो कभी सूबे के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए.

हालांकि जिस दिन मुलायम सिंह यूपी के मुख्यमंत्री बने उसी दिन उनकी निष्ठा का इनाम देते हुए वीपी सिंह ने अजित सिंह को केंद्र में मंत्री बना दिया. इधर, मुलायम भी लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं रह सके. जब चंद्रशेखर ने जनता दल से अलग होकर समाजवादी जनता पार्टी बनाई तो मुलायम उनके साथ चले गए.

बाद में मुलायम चंद्रशेखर से भी अलग हो गए और अपनी समाजवादी पार्टी बनाई. वहीं, अजित सिंह भी कांग्रेस के साथ गए, लेकिन 1996 में अलग होकर अपनी पार्टी बनाई राष्ट्रीय लोकदल, जिसके मुखिया अब उनके बेटे जयंत चौधरी हैं. वहीं, सभी पुराने मतभेदों को भूल अब 2022 के विधानसभा चुनाव में रालोद और सपा संयुक्त रूप से मैदान में ताल ठोके हुए हैं. ऐसे में सूबे के सियासी जानकारों की मानें तो इन दोनों नेताओं के साथ आने से सत्तारूढ़ भाजपा के लिए पश्चिम यूपी में राह मुश्किल नजर आ रही है.

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