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नवरात्र स्पेशल: विंध्याचल पर्वत पर विराजमान हैं मां रतनगढ़, मुगलों को हराने छत्रपति शिवाजी ने ली थी शरण

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Published : Oct 9, 2021, 1:37 PM IST

Maa Ratangarh
मां रतनगढ़ ()

दतिया के विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं.यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिले से 63 किलोमीटर दूर मर्सैनी गांव के पास स्थित है. बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है. इसके पास से ही सिंध नदी बहती है. इस शारदेय नवरात्रि में जानिए रतनगढ़ वाली माता की मान्यता और इतिहास .

दतिया। नवरात्रि आते ही देवी मंदिरों में भक्तों का तांता लग जाता है. मां का प्यार और आस्था दूर-दूर से भक्तों को अपने पास दर्शन को बुला लेती हैं. ऐसा ही प्रसिद्ध मंदिर है मध्यप्रदेश के दतिया जिले में, जहां स्थित विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी (Ratangarh Wali Mataji) हैं. इस शारदेय नवरात्रि में जानिए रतनगढ़ वाली माता की मान्यता और इतिहास कि आखिर क्यों भक्त मां के दर्शनों के लिए खिचे चले आते हैं.

नवरात्रि के दिनों में मंदिर में लगती है भारी भीड़.

मंदिर का इतिहास है बहुत पुराना
प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर (History of Ratangarh Temple) का इतिहास काफी पुराना है. यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिले से 63 किलोमीटर दूर मर्सैनी गांव के पास स्थित है. बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है. इसके पास से ही सिंध नदी (Sindh River) बहती है. यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले श्रद्धालु दो मंदिर के दर्शन करते हैं. इनमें एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा कुंवर बाबा का मंदिर है. भाई दूज के साथ-साथ नवरात्र में भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं.

बाढ़ में बह गया पुल, फिर भी दर्शन को पहुंच रहे भक्त
इस साल सितम्बर माह में आयी सिंध नदी में बाढ़ के चलते सिंध नदी पर बना हुआ पुल बह जाने से श्रद्धालुओं के पहुंचने की व्यवस्था प्रभावित हुई. यह रास्ता दतिया, झांसी और बुंदेलखंड के अन्य जिलों के भक्तों के मंदिर पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग था, लेकिन माँ रतनगढ़ वाली माता के भक्तों के लिए यह अवरोध भी आड़े नहीं आया. इस साल श्रद्धालु ग्वालियर से होते हुए भी दर्शन को पहुंच रहे हैं.

मां के दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं भक्त.

कैसे अस्तित्व में आयीं माता
बताया जाता है कि रतनगढ़ के राजा रतन सिंह (Raja Ratan Singh) के सात राजकुमार और एक पुत्री थी. वह पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी. उसकी सुन्दरता के चर्चों से आकर्षित होकर अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ पर धावा बोल दिया. दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये. सातवें पुत्र को बहन ने तिलक कर तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए विदा किया. युद्ध के दौरान राजकुमार के दोनों हाथ कट गए. जिसकी वजह से वे शाम होने पर ध्वज नही फहरा सके. जब रणभूमि से राजकुमार का झंडा नही लहराया गया, तो राजकुमारी ने सोचा कि उनका भाई भी युद्ध में नहीं रहा. यह सोचकर उन्होंने माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की. जिस प्रकार सीता जी के लिए पृथ्वी माता ने शरण दी थी. उसी प्रकार राजकुमारी के लिए भी पहाड़ के पत्थरों में एक दरार दिखाई दी. इन दरारों में ही राजकुमारी समा गईं. उसी राजकुमारी को मां रतनगढ़ वाली माता के रूप में पूजा जाता है. साथ ही उनका जो राजकुमार भाई भी आखिर में युद्ध में शहीद हुआ. उनकी पूजा भी कुंवर बाबा के रूप में होती है.

विष पर बंधन लगा देते हैं कुंवर बाबा
मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा (Kunwar Baba) रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे. कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे, तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे. इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं. इसके बाद इंसान भाई दूज या दिवाली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है.

रतनगढ़ वाली माता मंदिर पर लगा है 1935 किलो का घंटा.

मंदिर का इतिहास, छत्रपति शिवाजी ने कराया था निर्माण
यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय की निशानी है. यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था. तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी. कहा जाता है कि रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज (Shivaji Maharaj) के गुरु रामदास जी को देव गढ़ के किले मे दर्शन दिए थे. शिवाजी महाराज को मुगलों से फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया था. फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना वीर मराठा शिवाजी की सेना से टकराई, तो मुगलों को पूरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा. मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर को निर्माण कराया था.

भक्तों की मन्नतें पूरी करती हैं माता
यहां मन्नतों के पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं. यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से श्रद्धा प्रकट करते हैं. कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट-लेटकर यहां आता है. कोई जौं बो कर माता रानी की नौ दिन तक सेवा करते हैं. इसके बाद नौ वें दिन जौ चढ़ाने पैदल चलकर मंदिर पहुंचते हैं. मान्यता हैं कि यहां से हर भक्त अपनी मुरादें पूर्ण कर अपने घर खुशियां लेकर वापस लौटता है. मईया अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती हैं. मईया भक्तों की हर समस्या को दूर कर उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी करती हैं.

विंध्याचल पर्वत पर स्थित है माता का मंदिर.

मंदिर में घंटा चढ़ाने की है मान्यता
मन्नत पूरी होने पर श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों घंटे मां के दरबार में चढ़ाए जाते हैं. मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की पूर्व में नीलामी की जाती थी. वर्ष 2015 में जिला प्रशासन की मंशा पर यहां पर एकत्रित घंटों को गलवाकर विशाल घंटा बनवाकर चढ़ाया गया है. रतनगढ़ माता मंदिर पर नवरात्र 16 अक्टूबर 2015 में देश का सबसे वजनी बजने वाला पीतल के घंटे का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था. इसे नौ धातुओं से मिलाकर बनाया गया है. इस घंटे की खासियत यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है. चाहे चार साल का बालक हो या अस्सी साल का कोई बुजुर्ग.

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इसका लगभग वजन दो टन है. इसके अलावा मंदिर पर श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए जाने वाले घंटों की मंदिर प्रबंधन कमेटी नीलामी कराती थी. तत्कालीन कलेक्टर द्वारा घंटों की नीलामी न कराकर छोटे घंटों को मिलाकर बड़ा घंटा बनवाने का निर्णय लिया गया. पहले घंटा 1100 किलो का बनवाया जा रहा था. पर अब इसका वजन 1935 किलो है.

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