भिंड।भिंड के इतिहासकार और वरिष्ठ अधिवक्ता एडवोकेट देवेंद्र चौहान बताते हैं कि भारत की आजादी के लिए समय-समय पर कई आंदोलन हुए हैं और हर समय चंबल के वीरों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. 1857 की क्रांति, लाला हरदयाल के नेतृत्व में गदर पार्टी का गठन, हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, 1942 का क्विट इंडिया मूवमेंट, इन सभी में भिंड के वीरों ने अहम किरदार निभाया है. Azadi Ka Amrit Mahotsav
बौहारा के दौलत सिंह रहे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा:देश की आजादी के लिए सबसे पहली चिंगारी 1857 में उठी थी. भिंड जिले के बौहारा गांव में जन्में दौलत सिंह कुशवाह भी इस आंदोलन का हिस्सा थे. उन्होंने आजादी के विद्रोह के लिए तय तारीख 31 मई को अपने साथी बरजोर सिंह के साथ मिलकर दबोह पर हमला कर दतिया रियासत की सेना को अपने अधीन कर लिया था. उस दौरान सेना में कई अंग्रेजी सैनिक भी थे. कब्जे के बाद दौलत सिंह ने आजादी की घोषणा भी कर दी थी. इसके बाद 2 जुलाई 1857 को दौलतसिंह ने बरजोर सिंह के साथ मिलकर कौंच कर भी आक्रमण किया और उसे अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कर लिया था. बाद में दौलत सिंह और बरजोर सिंह पर 2-2 हजार का इनाम घोषित हुआ और उनके पिता चिमनाजी पर भी 1 हजार का इनाम घोषित किया गया था.
दो भाई जिन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ी अनेकों लड़ाइयां:जब आज़ादी के प्रथम संग्राम की बात चलती है तो चम्बल के दो सपूतों का नाम भी याद आता है जो भले ही निचली जाति से थे लेकिन देश के लिए समर्पित जीवन के उसूल ने उन्हें इतिहास के पन्नों में जगह दिलायी है. ये भाई थे जंगली-मंगली, इतिहासकार देवेंद्र चौहान के मुताबिक ये बहुत कम रिकॉर्ड्स में आया की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सबसे ज़्यादा निचली जातियों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, चम्बल अंचल में भी ये देखने को मिला कहने को जंगली मंगली मेहतर (जमादार) जाति से थे लेकिन ये अभिलेखों में आया है कि चकरनगर को केंद्र करके 100 मील के घेरे में अंग्रेजी फोजों से जो भी युद्ध हुए हैं ये दोनों बिना चूके मोर्चे पर रहे हैं और युद्ध लड़ा है और मिसाल कायम की है. 1 नवम्बर 1857 को शेरगढ़ युद्ध, 3 दिसम्बर 1857 इटावा पर कब्जे का युद्ध, जनवरी से अप्रैल प्रारम्भ तक 1858 भोगनीपुर, कानपुर देहात में ब्रिटिश सेना नायक मेक्सेबल के सैन्यबल से हुए युद्ध, कालपी कानपुर तथा चरखारी की लड़ाईयों में उन्होंने भाग लिया. 28 अगस्त को गोहानी पर अंग्रेजों ने हमला किया तब जंगली और मंगली ने अपनी अचूक निशानेबाजी से अनेक गोरे सैनिकों का वध कर दिया था. 6 सितम्बर 1858 को चकर नगर युद्ध में भी वे वीरता से लड़े थे और 11 सितम्बर 1858 को जब बहुत बड़ी संख्या में अंग्रेजी सेनाओं ने सहसों पर चढ़ाई की, उस युद्ध में वीर निशाने बाज जंगली-मंगली ने 22 अंग्रेज सैनिकों का वध किया था. उसी युद्ध में वे दोनों शहीद हो गए थे. इस बात का जिक्र कई इतिहास लेखकों की किताबों में भी है.
वीर राजा भगवंत सिंह ने झाँसी की रानी के साथ दी थी शहादत:बात जब भिंड के सपूतों की चले तो अमायन के राजा भगवंत सिंह कुशवाह का नाम आना लाज़मी है 1840 के दशक में अमायन क्षेत्र के बिलाव से आए राजा भगवंत सिंह जनता में अत्यंत लोकप्रिय थे. उन्होंने भी अपने जीवनकाल में देश को आजाद कराने और अँग्रेजी हुकूमत के आगे सिर ना झुकाने का फ़ैसला लिया था यही वजह थी की 1857 की क्रांति से पहले भी उन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ कई युद्ध लड़े. 22 मई कालपी के पतन के बाद ग्वालियर को क्रान्ति का नया केन्द्र बनाने के क्रान्तिकारी नेतृत्व के समर अभियान में भी वीर भगवंतसिंह समर्पित भाव से साथ रहे थे. ग्वालियर पर क्रान्तिकारियों का 1 जून 1858 से लेकर 18 जून 1958 तक कब्जा रहा था. 17-18 जून के निर्णायक युद्ध में ग्वालियर में पंचनद और भिण्ड अंचल में योद्धाओं ने आत्मोसर्ग की भावना से भाग लिया, उस युद्ध में इस क्षेत्र के असंख्य योद्धा शहीद हुए थे. वीर भगवंत सिंह कुशवाह ने 18 जून 1858 को राष्ट्रीय क्रान्ति नायिका लक्ष्मीबाई के साथ अपना बलिदान दिया था. वीर योद्धा बुरी तरह से घायल हुए थे. हमारे अंचल के 2000 से अधिक योद्धा अंग्रेजी सेना की घेराबंदी तोड़कर अपने घायल साथियों को सुरक्षित ग्वालियर से निकालकर अपने क्षेत्र में वापस लौटने में सफल रहे थे. वीर भगवंत सिंह के अपूर्व बलिदान का समाचार सुनकर उनकी जीवन संगनी पत्नी रानी अमायन में सती हो गई थीं. रानी की स्मृति में अमायन कस्बे में स्थित सती स्थल तभी से आम जनता और महिलाओं का पूजा स्थल बन गया वीर भगवंतसिंह कुशवाह के वंशज वर्तमान में सिंध नदी के किनारे बसे भिंड ज़िले के ग्राम बिलाव में रहते हैं.