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बेहाल हैं बेजान पत्थरों में जान फूंकने वाले शिल्पकारः सरकारी मदद की दरकार

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Published : Nov 19, 2021, 4:14 PM IST

Updated : Nov 19, 2021, 5:55 PM IST

दुमका जिला के पकदाहा गांव में बेजान पत्थरों को तराशने वाले शिल्पकारों की जिंदगी बदरंग है. इन मूर्तिकारों को सरकारी मदद नहीं मिल रही है, अगर इन्हें प्रोत्साहन मिले तो इनकी कला भी विश्व मानचित्र पर अपनी छाप छोड़ने में जरूर कामयाब होंगे.

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शिल्पकार

दुमकाः झारखंड की उपराजधानी दुमका के जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर शिकारीपाड़ा प्रखंड सड़क से सात किलोमीटर दूर जंगलों में पकदाहा गांव बसा है. पकदहा गांव के लगभग एक सौ परिवार पत्थरों के तरह-तरह के सामान बनाने का काम कई दशक से कर रहे हैं. लेकिन इनकी बदहाल आज भी जस की तस बनी हुई है.

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पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहां आसानी से पत्थर मिल जाते हैं. इन पत्थरों को ये शिल्पकार (The Architect) छेनी-हथौड़ी से तराश कर सिलौटी-लोढ़ा, आटा की चक्की, चारे की नाद, तुलसी चबूतरा और मूर्तियों का निर्माण करते हैं. वर्षों से कड़ी मेहनत और कुशल कारीगरी के बावजूद इनका आर्थिक विकास जो होना चाहिए था वह अब तक नहीं हो पाया है.

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शिल्प उद्योग पर बिचौलिए हावीशिकारीपाड़ा के पकदहा गांव में शिल्पकार काफी मेहनत कर पत्थरों के तरह-तरह के सामान का निर्माण करते हैं. लेकिन इस व्यवसाय में बिचौलिए पूरी तरह से हावी हैं. ये मूर्तिकार (Sculptors) अपने उत्पाद को बाहर से आए बिचौलियों को औने-पौने दाम में बेच देते हैं. इसकी वजह यह है कि इनके पास ना तो अपना बाजार है, ना शहर में या प्रखंड मुख्यालय में अपनी कोई दुकान. इसके अलावा सबसे बड़ी समस्या पर्याप्त पूंजी की है, जो बिचौलिए ही इन्हें उपलब्ध करा देते हैं और जब माल तैयार हो जाता है तो लेकर चले जाते हैं. सीधे शब्दों में कहा जाए तो भले ही ये पत्थर के सामानों का उत्पादन करते हो लेकिन इन्हें मजदूरी ही मिल पाती है.
सिलौटी बनाता कारीगर
क्या कहते हैं शिल्पकार ईटीवी भारत ने पकदाहा गांव के कई शिल्पकारों से बातचीत की. हर किसी का लगभग एक ही कहना था कि बाहर से जो लोग आते हैं उन्हें हम अपना सामान बेच देते हैं. इन्हें किस तरह आर्थिक नुकसान होता है इसका एक उदाहरण देखिए. एक सिलौटी-लोढ़ा ये शिल्पकार साठ से सत्तर रुपये में बेचते हैं जबकि बाजार में ये उपभोक्ता को डेढ़ सौ से दो सौ रुपये में उपलब्ध होता है. मतलब सीधे दो से तीन गुणा मूल्य इन कारीगरों को कम प्राप्त होता है. जाहिर है कड़ी मेहनत करने वाले शिल्पकारों सिर्फ नाममात्र की मजदूरी प्राप्त होती है.बाजार और पूंजी की मांग पकदाहा गांव के पत्थरों के ये कारीगर प्रशासन से बाजार और पूंजी की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि अगर हमें शहर में या प्रखंड मुख्यालय में बाजार में कोई दुकान उपलब्ध हो जाए तो सीधे हम अपना उत्पाद ग्राहक तक पहुंचाएंगे. इससे हमें हमारे उत्पाद का सही मूल्य प्राप्त होगा. वहीं गांव के युवा वर्ग इस कारीगरी से विमुख होते जा रहे हैं. उनका कहना है कि कई दशक से हमारे बाप-दादा इसी काम में लगे हैं पर उनका विकास नहीं हो पाया जो होना चाहिए था. इसलिए हमलोग अब दूसरे काम के लिए आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि वो भी मांग करते हैं कि हमारे गांव में जो पत्थरों के शिल्पकार हैं उनपर सरकार ध्यान दें और ताकि इस गांव का आर्थिक विकास हो सके.
पत्थर में जान फूंकते शिल्पकार

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मूलभूत सुविधा से वंचित पकदाहा गांव
भले ही पकदाहा गांव शिल्पकारों का रहा हो पर प्रशासन ने इसके विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया. गांव की सड़क जर्जर हैं, ग्रामीणों को पीने का पानी सही ढंग से उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. गांव की महिलाओं ने कहा कि मुख्य सड़क से यह गांव सात किलोमीटर अंदर है, गांव के बाहर आने-जाने में काफी परेशानी होती है. गांव में पीने की पानी की बेहतर व्यवस्था नहीं है, जिससे काफी तकलीफ होती है.

आकर्षक सजावट का सामान बनाता मूर्तिकार
क्या कहते हैं दुमका सांसद दुमका जिला के शिकारीपाड़ा प्रखंड के पकदहा गांव के शिल्पकारों की समस्या पर जब स्थानीय सांसद सुनील सोरेन से बात की तो उन्होंने बताया कि उस गांव के जो कारीगर है, उन्हें काफी परेशानी है, उनके समक्ष बाजार और पूंजी की समस्या है. हम इस दिशा में आवश्यक पहल करते हुए इसका हल निकालेंगे.केंद्र और राज्य सरकारों को पहल करने की आवश्यकतादुमका जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच शिल्पकार काफी मेहनत से आकर्षक चीजों का निर्माण कर रहे हैं पर इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. कैसे इनका भविष्य बेहतर हो यह कोई नहीं सोच रहा. ऐसे में केंद्र और राज्य दोनों सरकार का दायित्व है कि इस पर गंभीर पहल करें और इन शिल्पकारों को उनके उत्पाद का सही मूल्य कैसे मिले, कैसे इनका समग्र विकास हो, इस दिशा में त्वरित ठोस कदम उठाए.
Last Updated :Nov 19, 2021, 5:55 PM IST

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