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ये है हरियाणा के 'मिनी क्यूबा' का गांव, हर घर में मिलेगा बॉक्सर

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Published : Dec 15, 2019, 6:30 PM IST

Updated : Dec 15, 2019, 10:16 PM IST

भिवानी शहर को मिनी क्यूबा यू ही नहीं कहा जाता, इसके पीछे जिले के गांव कालुवास की बड़ी भूमिका है. भिवानी शहर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बसा कालुवास गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है.

boxer in every house of village kaluvas
मिनी क्यूबा

भिवानी: दुनिया में मुक्केबाजी के लिए क्यूबा अपनी अलग पहचना रखता है. भिवानी शहर को मिनी क्यूबा यू ही नहीं कहा जाता, इसके पीछे जिले के गांव कालुवास की बड़ी भूमिका है. भिवानी शहर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बसा कालुवास गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है. इस गांव के लगभग हर घर में आपको मुक्केबाज मिल जाएंगे. साल 2008 में जब बीजिंग ओलंपिक में इसी गांव के मुक्केबाज बिजेंद्र सिंह ने ओलंपिक मेडल जीता तो एकाएक गांव के युवाओं का रूझान मुक्केबाजी की तरफ बढ़ा. अब गांव के 8 साल से लेकर बड़ी उम्र के युवा मुक्केबाजी में अपना कैरियर बनाने में जुटे हैं.

इस गांव के हर घर में मिलते हैं मुक्केबाज

गांव कालूवास के लोगों में बॉक्सिंग का पैशन
गांव कालूवास के बोर्ड पर देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार विजेता ओलंपियन बिजेंद्र का नाम देखकर इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह गांव कालुवास मुक्केबाजी में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है. इस बोर्ड को देखकर गांव के युवा मुक्केबाजी को अपना पैशन बनाकर बिजेंद्र की तर्ज पर देश के लिए मेडल लाने के लिए मेहनत कर रहे हैं.

हर घर में मिल जाएंगे बॉक्सर
बिजेंद्र के ओलंपिक मेडल के बाद वो अब भी लगाातार प्रोफेशनल बॉक्सिंग में नाम कमा रहे है. जिसके चलते उन्हे खेल रत्न पुरस्कार, अर्जुन अवॉर्ड, पदमश्री पुरस्कार मिल चुके है. इसी से प्रेरित होकर कालुवास गांव में हर घर में मुक्केबाजी की प्रैक्टिस करने वाले युवा मिल जाएंगे.

बिजेंद्र सिंह की सफलता से प्रेरित हैं युवा
इसी गांव के अंतर्राष्ट्रीय बॉक्सर सचिन, अमन व साहिल ने बताया कि उनके गांव के लगभग हर घर में मुक्केबाज है. किसी घर में एक मुक्केबाज तो किसी घर में दो से तीन मुक्केबाज इस खेल को अपनाए हुए है. जिसके कारण उनका गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है. इसकी शुरूआत बिजेंद्र की सफलता के बाद हुई, जब गांव के युवाओं ने देखा कि एक आम घर से निकला मुक्केबाज आज अपने खेल के दम पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाए हुए है.

ये भी पढ़ें: 'मिनी क्यूबा' के मुक्केबाजों को मदद की दरकार, बोले-सरकार साथ दे तो लगा देंगे मेडल की झड़ी

बॉक्सिंग की दुनिया में गांव को मिली अलग पहचान
गांव के बुजुर्ग रणधीर सिंह बताते है कि 2008 में जब गांव के ओलंपियन मुक्केबाज को पहचान मिली तो इससे प्रेरित होकर गांव में बहुत से खिलाड़ियों ने मुक्केबाजी को अपना कैरियर बनाना शुरू कर दिया. इसी के दम पर आज गांव के बहुत से युवा खेल कोटे में आर्मी, पुलिस और विभिन्न विभागों में नौकरियां कर रहे हैं. कालुवास गांव के युवाओं का रूझान अब खेलों की तरफ बढ़ने से गांव को अलग पहचान मिली है.

Intro:रिपोर्ट इन्द्रवेश भिवानी
दिनांक 15 दिसंबर।
इस गांव के हर घर में मिलते है मुक्केबाज
बिजेंद्र बॉक्सर का गांव कहलाने लगा मुक्केबाजों का गांव
मुक्केबाजी के दम पर खेल कोटे में सेना, पुलिस व विभिन्न विभागों में युवा पा रहे है रोजगार
दुनिया में मुक्केबाजी के लिए क्यूबा अपनी अलग पहचना रखता है। देश के भिवानी शहर को मिनी क्यूबा यू ही नहीं कहा जाता, इसके पीछे जिले के गांव कालुवास की बड़ी भूमिका है। भिवानी शहर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बसा कालुवास गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है। इस गांव के लगभग हर घर में आपको मुक्केबाज मिल जाएंगे। वर्ष 2008 में जब बीजिंग ओलंपिक में इसी गांव के मुक्केबाज बिजेंद्र सिंह ने ओलंपिक मैडल जीता तो एकाएक गांव के युवाओं का रूझान मुक्केबाजी की तरफ बढ़ा। अब गांव के 8 वर्ष से लेकर बड़ी उम्र के युवा मुक्केबाजी में अपना कैरियर बनाने में जुटे है।
गांव कालुवास के बोर्ड पर देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार विजेता ओलंपियन बिजेंद्र का नाम देखकर इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह गांव कालुवास मुक्केबाजी में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। इस बोर्ड को देखकर गांव के युवा मुक्केबाजी को अपना पैशन बनाकर बिजेंद्र की तर्ज पर देश के लिए मैडल लाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। बिजेंद्र के ओलंपिक मैडल के बाद वे अब भ्ीा लगाातार प्रोफेशनल बॉक्सिंग में नाम कमा रहे है। जिसके चलते उन्हे खेल रत्न पुरस्कार, अर्जुन अवॉर्ड, पदमश्री पुरस्कार मिल चुके है। इसी से प्रेरित होकर कालुवास गांव में हर घर में मुक्केबाजी की प्रैक्ट्सि करने वाले युवा मिल जाएंगे।
Body: इसी गांव के अंतर्राष्ट्रीय बॉक्सर सचिन, अमन व साहिल ने बताया कि उनके गांव के लगभग हर घर में मुक्केबाज है। किसी घर में एक मुक्केबाज तो किसी घर में दो से तीन मुक्केबाज इस खेल को अपनाए हुए है। जिसके कारण उनका गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है। इसकी शुरूआत बिजेंद्र की सफलता के बाद हुई, जब गांव के युवाओं ने देखा कि एक आम घर से निकला मुक्केबाज आज अपने खेल के दम पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाए हुए है तथा इससे उन्हे तथा अन्य युवाओं को प्रेरण मिली तो वे मुक्केबाजी में अपना कैरियर बनाने में जुट गए। गांव के बुजुर्ग रणधीर सिंह बताते है कि 2008 में जब गांव के ओलंपियन मुक्केबाज को पहचान मिली तो इससे प्रेरित होकर गांव में बहुत से खिलाडिय़ों ने मुक्केबाजी को अपना कैरियर बनाना शुरू कर दिया। इसी के दम पर आज गांव के बहुत से युवा खेल कोटे में आर्मी, पुलिस व विभिन्न विभागों में नौकरियों पर है। कालुवास गांव के युवाओं का रूझान अब खेलों की तरफ बढऩे से गांव को अलग पहचान मिली है। युवाओं को मिली नई राह से गांव के युवाओं में कही भी आपको नशोखोरी देखने को नहीं मिलेगी, बल्कि गांव अब मुक्केबाजों का गांव कहलाता है।
बाईट : सचिन, अमन, सहिल मुक्केबाज एवं रणधीर ग्रामीण।
Conclusion: इसी गांव के अंतर्राष्ट्रीय बॉक्सर सचिन, अमन व साहिल ने बताया कि उनके गांव के लगभग हर घर में मुक्केबाज है। किसी घर में एक मुक्केबाज तो किसी घर में दो से तीन मुक्केबाज इस खेल को अपनाए हुए है। जिसके कारण उनका गांव मुक्केबाजों का गांव कहलाता है। इसकी शुरूआत बिजेंद्र की सफलता के बाद हुई, जब गांव के युवाओं ने देखा कि एक आम घर से निकला मुक्केबाज आज अपने खेल के दम पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाए हुए है तथा इससे उन्हे तथा अन्य युवाओं को प्रेरण मिली तो वे मुक्केबाजी में अपना कैरियर बनाने में जुट गए। गांव के बुजुर्ग रणधीर सिंह बताते है कि 2008 में जब गांव के ओलंपियन मुक्केबाज को पहचान मिली तो इससे प्रेरित होकर गांव में बहुत से खिलाडिय़ों ने मुक्केबाजी को अपना कैरियर बनाना शुरू कर दिया। इसी के दम पर आज गांव के बहुत से युवा खेल कोटे में आर्मी, पुलिस व विभिन्न विभागों में नौकरियों पर है। कालुवास गांव के युवाओं का रूझान अब खेलों की तरफ बढऩे से गांव को अलग पहचान मिली है। युवाओं को मिली नई राह से गांव के युवाओं में कही भी आपको नशोखोरी देखने को नहीं मिलेगी, बल्कि गांव अब मुक्केबाजों का गांव कहलाता है।
बाईट : सचिन, अमन, सहिल मुक्केबाज एवं रणधीर ग्रामीण।
Last Updated :Dec 15, 2019, 10:16 PM IST

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