नई दिल्ली: लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पारित हो गया है. वहीं इस बार दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव (डूसू) में भी महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दों को खास तरजीह दी है. छात्र संगठन महिलाओं की समस्याओं को जोर-शोर से उठा रहे हैं. लेकिन उनकी चिंता टिकट वितरण में दिखाई नहीं देती. डूसू में हमेशा से जीत दर्ज करने वाले छात्र संगठनों एनएसयूआइ और एबीवीपी ने एक-एक छात्रा उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. डूसू चुनाव वर्ष 1959 से लड़ा जा रहा है. 64 सालों में 10 महिलाएं ही अध्यक्ष रही हैं. चुनावों में महिलाओं की भागीदारी कितनी कम है, इसको समझा जा सकता है. डीयू में आखिरी बार वर्ष 2008 में अध्यक्ष पद पर विद्यार्थी परिषद की प्रत्याशी रही नूपुर शर्मा ने जीत दर्ज की थी.
छात्राओं की दावेदारी अध्यक्ष पद के लिए क्यों नहीं?
बीते 15 सालों से डूसू में अध्यक्ष पद महिला विहीन रहा है. डीयू के इस वर्ष भी 47 प्रतिशत छात्रों के मुकाबले 53 प्रतिशत छात्राओं का प्रवेश हुआ है. ऐसे में जीत और हार का फैसला बहुत हद तक छात्राओं के वोट पर निर्भर करेगा. इसके बावजूद एनएसयूआइ और एबीवीपी ने छात्राओं की दावेदारी अध्यक्ष पद के लिए पेश नहीं की है.
डीयू के शैक्षणिक पदों पर भी महिलाओं का बोलबाला
दिल्ली विश्वविद्यालय में महिला आरक्षण की बात करें तो यहां पर शैक्षणिक पदों पर भी महिलाओं का बोलबाला है. डीयू के शिक्षक संगठन एनडीटीएफ के पदाधिकारी डॉ हंसराज सुमन ने बताया कि "डीयू में करीब 50 प्रतिशत पदों पर महिला शिक्षक हैं. उन्होंने बताया कि डीयू से संबद्धित 18 महिला कॉलेज हैं. इन कॉलेज में पहले से ही बड़ी संख्या में महिला शिक्षक नियुक्त हैं. अभी कुछ साल पहले ही इनमें पुरुष शिक्षकों की नियुक्ति होना शुरू हुई है. नहीं तो सभी शिक्षकों के पदों पर महिलाओं का ही बोल-बाला होता था" उन्होंने कहा कि महिला आरक्षण बिल पास होने से डीयू में महिलाओं को नुकसान हो सकता है, क्योंकि महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद उन्हें 33 प्रतिशत ही आरक्षण मिल पाएगा, जबकि अभी बिना आरक्षण के 50 प्रतिशत से ज्यादा पदों पर उनका कब्जा है.
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