पटना: बिहार, वर्षों से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा झेलता आ रहा है. चाहे वो गंगा हो या कोसी सभी ने यहां तबाही मचाई है. कोसी को बिहार का श्राप या शोक कहा जाता है. आखिरी बार कोसी के कारण आई भयावह तबाही की तस्वीरें अब तक लोगों के जहन से ओझल नहीं हुई हैं.
ऐतिहासिक और भौगोलिक परिदृश्य पर नजर
आज हम इसपर नजर डालेंगे कि आखिर क्यों और कब सप्तनदी कहलाने वाली कोसी बिहार का अभिशाप बन गई. दरअसल, कोसी या कोशी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और बिहार में भीम नगर के रास्ते से भारत में दाखिल होती है. इसकी प्रकृति को समझने के लिए नदी के भौगोलिक और ऐतिहासिक परिदृश्य पर नजर डालना जरूरी है.
250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार
कोसी पिछले 250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार कर चुकी है. हिमालय की ऊंची पहाड़ियों से बालू, कंकड़-पत्थर जैसे तरह-तरह के अवसाद अपने साथ लाती हुई ये नदी निरंतर अपने क्षेत्र फैलाती जा रही है. उत्तरी बिहार के मैदानी इलाकों को तरती ये नदी पूरा क्षेत्र उपजाऊ बनाती है. नेपाल और भारत दोनों ही देश इस नदी पर बांध बना चुके हैं.
दिशा बदलने में माहिर कोसी
कोसी नदी दिशा बदलने में माहिर है. कोसी के मार्ग बदलने से कई नए इलाके प्रत्येक वर्ष इसकी चपेट में आ जाते हैं. बिहार के पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, कटिहार जिलों में कोसी की ढेर सारी शाखाएं हैं. कोसी बिहार में महानंदा और गंगा में मिलती है. इन बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है. बिहार और नेपाल में कोसी बेल्ट शब्द काफी लोकिप्रय है. इसका अर्थ उन इलाकों से हैं, जहां कोसी का प्रवेश है.
मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना
यह नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी कहलाती है. चतरा के पास कोसी नदी मैदान में उतरती है और 58 किलोमीटर बाद भीमनगर पास बिहार में प्रवेश करती है. वहां से 260 किलोमीटर की यात्रा कर यह कुरसेला में गंगा में आकर समाहित हो जाती है. इसकी कुल यात्रा 729 किलोमीटर है. पूर्वी मिथिला में यह नदी सबसे 180 किलोमीटर लंबा और 150 किलोमीटर चौड़े कछार का निर्माण करती है जो दुनिया का सबसे बड़ा कछार त्रिशंकु है. कोसी बैराज में 10 क्यूबिक यार्ड प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष रेत का जमाव होता है जो दुनिया में सर्वाधिक है.
घूमती-फिरती कोसी
कोसी को आप घूमती-फिरती नदी भी कह सकते हैं. पिछले 200 सालों में इसने अपने बहाव मार्ग में 120 किलोमीटर का परिवर्तन किया है. नदी के इस तरह पूरब से पश्चिम खिसकने के कारण कोई आठ हजार वर्ग किलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गई है. नगरों और गांवों के उजड़ने-बसने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है.