पटना: बिहार में चुनाव हो और लालू के नाम के बिना हो, अब यह आम लोगों को भले चाहे जैसा लगे लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के लिए नागवार गुजरता है. यह बिल्कुल सत्य है क्योंकि बिहार में नीतीश कुमार की राजनीति ही लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) की मुखालफत से स्थापित हुई है. नीतीश कुमार ने जब उस राजनीति से खुद को अलग किया है तो बिहार की जनता ने उन्हें बहुत ज्यादा समर्थन देने से मना कर दिया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव है. इसमें लालू यादव बिहार से बाहर थे तो नीतीश के हाथ बहुत कुछ नहीं लगा.
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अगर 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो उसकी बानगी इसलिए भी खड़ी नहीं होती है क्योंकि वह चुनाव किसी और के चेहरे पर लड़ा गया था. ऐसे में 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को जिस सीट संख्या पर समझौता करना पड़ा, उसकी वजह बिहार में लालू का नहीं होना था. 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव को लेकर के भी जदयू (JDU) इसी बात से चिंतित है कि अगर लालू यादव बिहार में होते तो राजनीति का रंग कुछ अलग होता. इस रंग में अगर कोई सबसे ज्यादा सराबोर दिखता तो इसमें संदेह नहीं कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. अब लालू यादव बिहार में हैं नहीं तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के लिए लालू बिना सब सूना-सूना दिख रहा है.
लालू विरोध से मिली कामयाबी
बिहार में 2005 में फरवरी में जब चुनाव हुए तो स्पष्ट बहुमत नहीं आया था. मुद्दों की राजनीति के बाद भी बहुमत का आंकड़ा पाने में सभी दल नाकाम रहे. सरकार चली नहीं. फरवरी 2005 से नीतीश कुमार ने बिहार में बदलाव के लिए लालू यादव के नाम से शुरुआत की वह 2005 के अक्टूबर में दूसरी बार हुए विधानसभा चुनाव में इतनी तेजी से फैला कि बदलाव की कहानी लिख दी. नीतीश कुमार ने सुशासन का नारा दिया. बिहार से अपहरण उद्योग को खत्म करने की बात कह दी. भ्रष्टाचारियों को बिहार से भगाने की बात कही. लालू यादव के शासनकाल और जंगलराज के नाम से मशहूर बिहार में परिवर्तन की बयार का ऐसा रंग आया कि बिहार की जनता ने नीतीश के हाथ में बिहार की गद्दी सौंप दी. यह अलग बात है कि एनडीए से समझौते के साथ नीतीश कुमार जुड़े रहे और सरकार 2005 नवंबर में बनी. फिर 2010 तक पूरी मजबूती से चल निकली.
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार का लालू विरोध का रंग कुछ कम नहीं हुआ बल्कि और चटक हो गया. बिहार की जनता ने जो भरोसा नीतीश कुमार पर जताया, उस विश्वास के बूते नीतीश कुमार 2010 में मुखर होकर लालू विरोध की राजनीति करने लगे. पटना विश्वविद्यालय के एक हॉस्टल में नीतीश कुमार गए थे. जदयू के नेताओं को यह बात बखूबी याद भी होगी वहां नीतीश कुमार ने कहा था कि मियां-बीवी को 15 साल दिए हैं, हमको 10 सालों नहीं दीजिएगा. नीतीश कुमार की इस बात के बाद युवाओं में काफी जोश दिखा था. यह लगा था कि नीतीश कुमार बिहार में बदलाव की बहुत बड़ी कहानी लिख देंगे. 2010 के विधानसभा चुनाव में बदलाव की बयार जरूर चली और 2015 आते-आते नीतीश कुमार भाजपा से अलग हो गए और वजह थे नरेंद्र मोदी.
अब तेजस्वी मांग रहे नीतीश से जवाब
नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ समझौता कर लिया. सियासत में साथ होने का जो खालीपन 2005 में लालू यादव ने शुरू की थी, वह जमीन पर नहीं चली लेकिन नीतीश कुमार चल गए. नीतीश कुमार ने 2005 से जिस सियासत को शुरू किया था, उसे 2015 में लालू यादव के साथ आकर नए तरीके से बचा लिया. लेकिन सवाल यहां फिर भी खड़ा रह गया क्योंकि नीतीश कुमार को यह लगने लगा था कि जिस लालू मुखालफत की राजनीति करके यहां तक पहुंचे हैं, उसमें अगर लालू के साथ नीतीश और समय तक रहेंगे तो उनका राजनीतिक जीवन कई तरह के सवालों में आ जाएगा. 2017 में नीतीश लालू यादव वाले गठबंधन से अलग हो गए और फिर विकास के लिए लालू यादव के 15 साल बनाम नीतीश कुमार के 15 साल की तुलना करना भी शुरू कर दिया.
हालांकि लालू यादव की तरफ से नीतीश कुमार को पलटू राम का नारा दिया गया और जिस बिहार को बदलने की बात कह कर नीतीश कुमार आए थे, लालू यादव का तंज भी यही था कि नीतीश पलट गए. अब बदल रही राजनीति में नीतीश कुमार बगैर लालू के उन मुद्दों से खुद को जोड़ ही नहीं पा रहे हैं जो 2015 से लेकर 2020 तक की सियासत में रहा है. 2021 की राजनीति नीतीश कुमार को इसलिए भारी पड़ रही है कि 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में लालू यादव के किसी काम का हवाला दिया नहीं जा सकता. अब काम का हवाला तेजस्वी यादव दे रहे हैं और जवाब नीतीश कुमार को देना है.
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