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पर्वतीय अंचलों में कभी घराट थे शान, अब 'विरासत' पर मंडरा रहा खतरा

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Published : Jul 7, 2021, 10:34 AM IST

Updated : Jul 7, 2021, 2:20 PM IST

हल्द्वानी के गौलापार के रहने वाले बसंत कुमार घराटों को संजोने का काम कर रहे हैं. उनके यहां दूर-दूर से लोग गेहूं पिसाने आते हैं.

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घराटों के अस्तित्व पर खतरा.

हल्द्वानी: घराट उत्तराखंड की पारंपरिक पहचान हैं, पर्वतीय अंचलों में ब्रिटिशकाल से घराटों का संचालन होता आया है. लेकिन अब घराट आधुनिकता की चकाचौंध में खोते जा रहे हैं. जिनकी टिक-टिक की आवाज कभी कानों में गूंजती था, वे अब कम ही सुनाई देती है. आधुनिकता की इस दौर में जहां हर जगह बिजली की चक्कियों ने जगह ले ली है और लोग समय की बचत के चलते इन पर निर्भरता बढ़ गई है. ऐसे में पहचान खोते इन पारंपरिक घराटों को अब विरासत के रूप में संजोए रखने की जरूरत है.

1882 में स्थापित की थी पनचक्की

वहीं, हल्द्वानी के गौलापार के रहने वाले बसंत कुमार आज भी पहाड़ के ब्रिटिशकालीन इस धरोहर को संजोने का काम कर रहे हैं. पहाड़ों के लोगों के लिए गेहूं पिसाने के लिए मुख्य साधन घराट (पनचक्की) हुआ करता था. लेकिन बदलते दौर में अब पनचक्की (घराट) का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. लेकिन बसंत कुमार द्वारा संचालित की जा रही पनचक्की 1882 की बताई जा रही है जो इनके पूर्वजों द्वारा स्थापित की गई थी.

पर्वतीय अंचलों में कभी घराट थे शान.

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दूर-दूर से गेहूं पिसाने पहुंचते हैं लोग

आज भी बसंत कुमार अपनी विरासत को बचाने का काम कर रहे हैं. लोगों का मानना है कि घराट में तैयार होने वाला आटा कई नजरिए से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है. लेकिन आधुनिकता की मार घराटों पर साफ देखी जा सकती है. जिसकी तस्दीक घराटों की कम होती संख्या कर रही है. बसंत कुमार की पनचक्की ब्रिटिश कालीन से सिंचाई विभाग के नहर के ऊपर स्थापित है और आज भी स्थानीय लोग गेहूं की पिसाई के लिए दूर-दूर से उनके यहां पहुंचते हैं.

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विरासत पर मंडरा रहा खतरा.

पूर्वजों की विरासत को संजोने हुए हैं बसंत

बसंत कुमार का कहना है कि उनका उद्देश्य पनचक्की से कमाई करना नहीं है, बल्कि अपने धरोहर को बचाने का मुख्य उद्देश्य है. उन्होंने बताया कि आज भी वे पनचक्की पर ₹2 प्रति किलो गेहूं की पिसाई करते हैं. उनका मकसद अपने पूर्वजों की विरासत को बचाने के साथ ही लोगों को घराट की सेवा देना है. आज भी उन्हें सिंचाई विभाग हर साल पनचक्की की अनुमति लेनी पड़ती हैं.

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घराटों को संरक्षित करने की जरूरत.

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पिता भी करते थे घराट का संरक्षण

जिसके एवज में ₹12000 सालाना भुगतान भी करते हैं. बसंत कुमार कहना है कि उनके पिता गोपाल राम पिछले कई दशकों से इस धरोहर को संरक्षित करने का काम करते आ रहे थे और अब उनका निधन हो चुका है. इस धरोहर को जीवित रखने के लिए उनका परिवार अब काम कर रहा है. उन्होंने कहा कि पहाड़ के इस पारंपरिक पहचान को युवा पीड़ी को रूबरू कराना है.

Last Updated :Jul 7, 2021, 2:20 PM IST
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