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ब्रिटिश कालीन रेल इंजन बना विभाग की शान, UFTA की बढ़ा रहा शोभा

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Published : Sep 29, 2019, 11:34 AM IST

लालकुआं-चोरगलिया के बीच कभी छुक- छुक की आवाज के साथ दौड़ने वाला ब्रिटिश कालीन ट्रेन इंजन आज वानिकी प्रशिक्षण संस्थान हल्द्वानी में धरोहर के रूप में रखा गया है.

ब्रिटिश कालीन ट्रेन इंजन

हल्द्वानीः ब्रिटिश कालीन सन 1926 में हल्द्वानी पहुंची ट्रेन का इंजन आज भी हल्द्वानी के उत्तराखंड फोरेस्टरी ट्रेनिंग एकेडमी (UFTA) प्रांगण की शोभा बढ़ा रहा है. कभी यह ट्रेन का इंजन 2 फीट की पटरियों पर बेधड़क छुक-छुक कर दौड़ता था और जंगल से बेशकीमती लकड़ियों की ढुलाई करता था और वन विभाग की शान हुआ करता था जिसे आज वन विभाग धरोहर के रूप में संजोये हुए रखा है.

वानिकी प्रशिक्षण संस्थान की शान बना ब्रिटिश कालीन ट्रेन इंजन.

14 हजार 12 रुपये 50 पैसे में खरीदे गए इस ट्रेन इंजन की छुक- छुक की आवाज कभी दूर तक सुनाई देती थी. बताया जाता है कि जब ब्रिटिश कालीन शासन में अंग्रेज भारत पहुंचे तो यहां की वन संपदा पर उनकी नजर बनी हुई थी. कुमाऊं मंडल के चोरगलिया स्थित जौलाशाल के जंगल शाल की बेशकीमती लकड़ियों के लिए माना जाता था. अंग्रेज अपने हथियारों के बट सहित अन्य सामग्री बनाने के लिए जौलाशाल के शाल की लकड़ी का ही प्रयोग करते थे. बताया जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हथियारों में प्रयोग की गईं बट की लकड़ियां कुमाऊं मंडल की जौलाशाल की जंगलों की थी.

उस समय लकड़ियों को ढोने के लिए कोई संसाधन नहीं था, जिसके मद्देनजर 1926 में वन विभाग ने लीड्स ( इंग्लैंड) की मेंबर्स जान फाउलर एंड कंपनी से 14 हजार 12 रुपये 50 पैसे में एक इंजन मंगाया था जो 2 फीट की पटरी पर छुक-छुक दौड़कर वन विभाग के कामों में सहयोग किया करता था.

बताया जाता है कि 1926 से 1937 तक इस इंजन ने वन विभाग का बखूबी साथ निभाया और वन विभाग को भी प्रॉफिट में पहुंचाया. ट्रामवे इंजन को 40 हॉर्स पावर की शक्ति से बनाया गया था और एक बार में 7 टन लकड़िया ढोया करता था, जबकि इंजन की रफ्तार प्रति घंटा 7 मील हुआ करती थी.जानकार बताते हैं कि ट्रामवे ट्रेन को नंधौर घाटी से जोड़ने के लिए लालकुआं -चोरगलिया होते हुए इसका प्रयोग किया जाता था और लालकुआं से चोरगलिया के लिए लाइन भी बिछाई गई थी.

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करीब 10 सालों तक चलने के बाद इस इंजन को लाल कुआं में खड़ा कर दिया गया था, जो कई दशक तक लाल कुआं में लावारिस खड़ा रहा. जिसके बाद वन विभाग ने इस को संरक्षित करने का बीड़ा उठाते हुए 10 अगस्त 1989 को वानिकी प्रशिक्षण संस्थान हल्द्वानी में लाकर धरोहर के रूप में सजा रखा है.

इस संबंध में वन संरक्षक पश्चिम वृत्त डॉ. मधुकर धकाते ने बताया कि ब्रिटिश कालीन इस रेल इंजन का वन विभाग में बड़ा योगदान रहा है, जिसको वन विभाग अब धरोहर के रूप में संरक्षित कर रहा है.

Intro:sammry- 1926 में 14 हजार 12 रुपये 50 पैसे में खरीदी गई ट्रेन की इंजन की छुक- छुक की आवाज कभी दूर तक देती थी सुनाई। एंकर- ब्रिटिश कालीन सन 1926 में हल्द्वानी पहुंची ट्रेन का इंजन आज भी हल्द्वानी के एफटीआई प्रांगण का शोभा बढ़ा रहा है। कभी यह ट्रेन का इंजन 2 फीट की पटरियों पर बेधड़क छुक छुक कर दौड़ता था और जंगल से बेशकीमती लकड़ियों का ढुलान करता था और वन विभाग का शान हुआ करता था। जिसे आज वन विभाग धरोहर के रूप में सजोये हुए रखा है।


Body:बताया जाता है कि जब ब्रिटिश कालीन शासन में अंग्रेज भारत पहुंचे तो यहां के वन संपदा पर उनकी नजर बनी हुई थी। कुमाऊं मंडल के चोरगलिया स्थित जौलाशाल की जंगल शाल की बेशकीमती लकड़ियों के लिए माना जाता था। अंग्रेज अपने हथियारों के बट सहित अन्य सामग्री बनाने के लिए जौलाशाल के शाल की लकड़ी का ही प्रयोग करते थे। बताया जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हथियारों में प्रयोग किए गए बट की लकड़ियां कुमाऊं मंडल की जौलाशाल की जंगलों से ही गई थी। उस समय लकड़ियों को ढोने के लिए कोई संसाधन नहीं था जिसके मद्देनजर 1926 में वन विभाग ने लीड्स( इंग्लैंड)की मेंबर्स जान फाउलर एंड कंपनी से 14 हजार 12 रुपये 50 पैसे मैं एक इंजन मंगाया था जो 2 फीट की पटरी पर छुक छुक दौड़ वन विभाग के कामों में सहयोग किया करता था। बताया जाता है कि 1926 से 1937 तक इस इंजन में वन विभाग के सभी कामों को बखूबी निभाया और वन विभाग को भी प्रॉफिट में पहुचाया। ट्रामवे इंजन को 40 हॉर्स पावर की शक्ति से बनाया गया था और एक बार में 7 टन लकड़िया ढोया करता था जबकि इंजन की रफ्तार प्रति घंटा 7 मील हुआ करता था। जानकार बताते हैं कि ट्रामवे ट्रेन को नंधौर घाटी से जोड़ने के लिए लालकुआं -चोरगलिया होते हुए इसका प्रयोग किया जाता था और लालकुआं से चोरगलिया के लिए लाइन भी बिछाई गई थी। करीब 10 सालों तक चलने के बाद इस इंजन को लाल कुआं में खड़ा कर दिया गया था जो कई दशक तक लाल कुआं में लावारिस खड़ा रहा। जिसके बाद वन विभाग ने इस को संरक्षित करने की बीड़ा उठाते हुए 10 अगस्त 1989 को वानिकी प्रशिक्षण संस्थान हल्द्वानी में लाकर धरोहर के रूप में सजा रखा है।


Conclusion:वन संरक्षक पश्चिम वृत्त डॉक्टर पराग मधुकर घकाते ने बताया कि ब्रिटिश कालीन इस रेल इंजन का वन विभाग में बड़ा योगदान रहा है जिसको वन विभाग अब धरोहर के रूप में संरक्षित कर रहा है। बाइट- पराग मधुकर धकाते वन संरक्षक पश्चिमी वृत्त
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