देहरादून: देवभूमि उत्तराखंड को अलग पहचान दिलाने में यहां का भौगोलिक परिवेश, यहां की संस्कृति और यहां की लोक कलाओं की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वहीं, अब उत्तराखंड की लोक संस्कृति और हस्तकला को ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर जगह मिल रही है. हाल ही में उत्तराखंड के 5 प्रोडक्ट को जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेटर टैग मिला है. आइये जानते हैं यह पांच प्रोडक्ट कौन से हैं ? यह जानने से पहले आपको बताते हैं कि जीआई टैग क्या होता है ? इसके क्या फायदे होते हैं ? साथ में यह भी जानते हैं कि यह टैग किसी प्रोडक्ट को कैसे मिलता है.
क्या होता है GI टैग: जीआई का मतलब होता है जियोग्राफिकल इंडिकेशन (Geographical Indication) यानी भौगोलिक संकेतक. इसका इस्तेमाल ऐसे उत्पादों के लिए किया जाता है, जिनका एक विशिष्ट भौगोलिक मूल क्षेत्र होता है. किसी प्रोडक्ट को ये खास भौगोलिक पहचान मिल जाने से उस प्रोडक्ट के उत्पादकों को उसकी अच्छी कीमत मिलती है. इसका फायदा ये भी है कि अन्य उत्पादक उस नाम का इस्तेमाल कर अपने सामान की मार्केटिंग भी नहीं कर सकते हैं. भारत की संसद (Parliament) ने साल 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स (Geographical Indications of Goods) लागू किया था. इस आधार पर भारत के किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाली विशेष वस्तु का कानूनी अधिकार उस राज्य को दिया जाता है. ये जीआई टैग किसी खास भौगोलिक परिस्थिति में मिलने वाले उत्पाद का दूसरे स्थान पर गैरकानूनी इस्तेमाल को कानूनी तौर पर रोकता है.
GI टैग के फायदे: जीआई टैग (GI tag) मिलने के बाद उस प्रोडक्ट को कानूनी संरक्षण मिलता है. उसके सभी पैरामीटर तय हो जाते हैं. इसके साथ ही उत्पाद को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार भी आसानी से मिल पाता है. साथ ही नकली उत्पाद बनाने वाले पर भी नकेल कसी जा सकती है. जीआई टैग के लिए राज्य सरकार अपने चुने गए पदार्थों का आवेदन केंद्र सरकार को भेजती है, जिसके बाद सभी मानक पूरे होने के बाद किसी विशेष पदार्थ को जीआई टैग मिलता है.
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उत्तराखंड में इन 5 प्रोडक्ट को मिला है जीआई टैग
ऐपण: उत्तराखंड में ऐपण (Aipan art got GI tag) को जीआई टैग मिला है. ऐपण उत्तराखंड की एक पारंपरिक और सांस्कृतिक लोक कला है. ज्यादातर कुमाऊं के क्षेत्र में ऐपण लोक कला देखने को मिलती है. दरअसल, पौराणिक समय में जब भी कोई शुभ कार्य किया जाता था, तो चावल के आटे और गेरुवे या फिर लाल मिट्टी के माध्यम से पहले शुद्धिकरण किया जाता था. मंत्रोच्चारण के साथ कुछ आकृति बनाई जाती थी जो कि बेहद शुभ मानी जाती हैं. यह परंपरा आज भी चली आ रही है. अब इसे नया रूप मिला है. जिसके बाद कुमाऊं क्षेत्र के कई लोग इस पारंपरिक लोक कला को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.
जीआई टैग होल्डर ऐपण निर्माता दीपा धामी ने बताया कि जीआई टैग मिलने के बाद ऐपण कला को निश्चित तौर से एक नई पहचान मिलेगी. इससे मार्केट में जो इस पारंपरिक कला का गैर कानूनी तरीके से क्षरण हो रहा है, उस पर भी रोक लगेगी. उन्होंने कहा कि यह एक बेहद यूनिक और धार्मिक महत्व वाली लोक कला है, जिसे जिंदा रखना बेहद जरूरी है. जीआई टैग मिलने के बाद ऐपण बनाने वाले लोग काफी खुश हैं. दीपा धामी ने कहा कि उनको लगता है कि अब ऐपण को ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर ले जाने का खास मौका मिलेगा.
थुलमा कंबल: उच्च हिमालयी क्षेत्र में भोटिया जनजाति द्वारा भेड़ की ऊन से विशेष प्रकार के कंबल बनाए जाते हैं जिन्हें थुलमा कहते हैं. इसे भी भारत सरकार ने जीआई टैग किया है. खासतौर से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के सीमावर्ती उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया जनजाति के लोग पारंपरिक तौर पर इस प्रकार के कंबल तैयार करते हैं. थुलमा बनाने और बेचने का काम करने वाले मुनस्यारी के रहने वाले संदीप बताते हैं कि यह एक विशेष तरह का कंबल है, जोकि जीरो डिग्री तापमान और माइनस डिग्री में भी आपको गर्म रखता है.
संदीप बताते हैं कि आजकल बर्फीले इलाकों में लोग महंगे स्लीपिंग बैग खरीदते हैं, जो कि सिंथेटिक होते हैं. उनमें से हवा भी पास नहीं होती है. लेकिन थुलमा कंबल में हवा भी पास होगी और आपको गर्म भी रखेगा. उन्होंने बताया है कि इसमें नेचुरल फाइबर है, जिसकी वजह से आपको कोई भी साइड इफेक्ट नहीं होगा. उन्होंने बताया कि थुलमा कंबल भेड़ की ऊन से बनाया जाता है. इसमें भेड़ की ऊन की चार लेयर मिलाकर एक बड़ा कंबल तैयार किया जाता है.
रिंगाल के सामान: उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में रिंगाल से ग्रामीणों का पुराना रिश्ता है. आज भले ही बाजार में प्लास्टिक की टोकरियां और अन्य तरह के बड़े बर्तन आसानी से मिल जाते हैं लेकिन गांव में आज भी रिंगाल से टोकरी और अन्य तरह के प्रोडक्ट बनाए जाते हैं. पहाड़ के गांवों में आज सामान रखने के लिए रिंगाल से बने बर्तनों का प्रयोग किया जाता है. रिंगाल को भी उत्तराखंड में जियोग्राफिकल इंडिकेशन के रूप में पहचान मिल चुकी है और रिंगाल की बनी सुंदर-सुंदर टोकरियां आज लोगों को खूब भा रही हैं.
तांब्र शिल्प: खासतौर से अल्मोड़ा में बनाए जाने वाले ताम्र शिल्प को भी ग्लोबल इंडिकेशन के रूप में पहचान मिल चुकी है. उत्तराखंड में तांबे के बर्तनों का उपयोग सदियों से होता आ रहा है. लेकिन अल्मोड़ा के टम्टा समाज के लोग पारंपरिक तरीके से ताम्र शिल्प में काम करते हैं. उत्तराखंड का मशहूर वाद्य यंत्र रणसिंघा तांबे से ही बनाया जाता है. लेकिन आधुनिकता के दौर में ताम्र शिल्प अपनी पहचान खोता जा रहा था. अब इस प्रोडक्ट को जीआई टैग मिलने से इसकी पकड़ भी मजबूत हो रही है. अल्मोड़ा के तांबे के बर्तन अब हैंड क्राफ्ट और हस्तशिल्प मार्केट के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मार्केट में भी शामिल हो पाएंगे.
भोटिया दन (कालीन): भोटिया दन भी थुलमा कंबल की तहत एक गर्म और भेड़ की ऊन से तैयार किया जाने वाला दन है. बस फर्क इतना है कि कंबल ओढ़ने के काम आता है जबकि दन बिछाने में इस्तेमाल किया जाता है. आसान शब्दों में कहें तो यह एक कार्पेट है. उत्तरकाशी के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में तैयार किए जाने वाले भोटिया दन को जीआई टैग दिया गया है. भोटिया दन एक विशेष प्रकार का कालीन (carpet) है, जो कि बेहद गर्म होता है. भोटिया दन काफी टिकाऊ प्रोडक्ट है. बाजार में मिलने वाले ऑर्डिनरी कॉरपेट से यह काफी अच्छी गुणवत्ता का और लंबे समय तक चलने वाला होता है.