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मसूरी गोलीकांड के 28 साल पूरे, दो सितंबर 1994 के जख्म याद कर भावुक हुए राज्य आंदोलनकारी

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Published : Sep 2, 2022, 11:20 AM IST

आज मसूरी गोलीकांड को 28 साल पूरे हो चुके हैं. मसूरी की वादियों में शहीदों के परिजनों की उम्मीदें आज भी सिसकियां ले रही हैं. राज्य बनने के 22 साल बाद भी राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया है. राज्य आंदोलनकारी, युवा, महिलाएं आज भी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं.

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मसूरी गोलीकांड

मसूरी: दो सितंबर 1994 की वह सुबह पलभर में ही कितनी दर्दनाक बन गई थी, उस जख्म को कोई नहीं भूल पाएगा. आज मसूरी गोलीकांड की 28वीं बरसी है लेकिन राज्य आंदोलनकारी पहाड़ का पानी, जवानी और पलायन रोकने की मांग लगातार कर रहे हैं. 1 सितंबर 1994 को खटीमा में पुलिस ने राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाईं थीं. 2 सितंबर को मसूरी में उससे भी वीभत्स गोलीकांड हुआ.

कैबिनेट मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने मसूरी गोलीकांड की बरसी पर राज्य आंदोलन के शहीदों को श्रद्धांजलि दी. अग्रवाल ने कहा कि उत्तराखंड राज्य का निर्माण शहीदों के संघर्ष व बलिदान से हुआ है. राज्य बनाने के लिए अनेक आंदोलनकारियों ने कुर्बानी दी. राज्य विकास के पथ पर अग्रसर है, लेकिन उन शहीदों के योगदान को कभी नहीं भूलना चाहिए, जिनके संघर्ष के बल पर राज्य का निर्माण हुआ है. प्रदेश के विकास के लिए हर व्यक्ति को निष्ठा व कार्य के प्रति समर्पित होकर योगदान देना होगा.

मसूरी गोलीकांड के 28 साल पूरे

राज्य आंदोलनकारी जयप्रकाश उत्तराखंडी कहते हैं कि गोलीकांड के बाद पुलिस 46 आंदोलनकारियों को बरेली सेंट्रल जेल ले गई और आंदोलनकारियों के साथ बुरा बर्ताव किया गया. उन्होंने कहा कि मसूरी में पुलिस ने जुल्म की सारी हदें पार कर दी थीं. राज्य आंदोलनकारियों का कहना है कि मसूरी गोलीकांड के जख्म आज भी ताजा हैं. भले ही हमें अलग राज्य मिल गया हो लेकिन शहीदों के सपने आज भी अधूरे हैं. पहाड़ से पलायन रोकने में सरकारें असफल रही हैं. भू-कानून को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है.

शहीद हंसा धनाई के पति भगवान सिंह धनाई कहते हैं कि राज्य की लड़ाई में उन्होंने पत्नी को खोया, लेकिन इतने सालों में कोई बदलाव नहीं देखने को मिला. किसी भी पार्टी ने राज्य के विकास के लिए खास काम नहीं किया. वह सपनों का उत्तराखंड नही बन पाया. पहाड़ी राज्य के विकास के लिये प्रदेश का निर्माण किया, आज सरकार की गलत नीतियों के कारण पहाड़ ही खाली हो चुके हैं.
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आंदोलनकारी और सीबीआई का मुकदमा झेलने वाले डॉ हरि मोहन गोयल ने बताया कि अलग राज्य के निर्माण को लेकर उनके जैसे कई आंदोलनकारियों ने आवाज उठाई थी लेकिन उनके सपनों के उत्तराखंड का निर्माण नहीं हो सका. न ही आज तक कई आंदोलनकारियों को उनका हक मिल सका है. उन्होंने बताया कि जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से पलायन के मुद्दे को लेकर राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी, लेकिन आज सभी मुद्दे नेताओं की महत्वाकांक्षा के सामने गुम हो गए हैं.

रिटायर शिक्षक भगवती प्रसाद कुकरेती और वरिष्ठ नागरिक रामप्रसाद कवि ने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया. न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है. वहीं उत्तराखंड बनने के बाद राजनेताओं का फायदा हुआ. आम जनता आज भी अपने आपको ठगा सा महसूस कर रही है.

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पुलिस 46 आंदोलनकारियों को बरेली सेंट्रल जेल ले गई.

आंदोलनकारी अनिता सक्सेना 2 सितंबर 1994 मसूरी गोलीकांड को याद कर भावुक हो गईं. उन्होंने पुलिस की बर्बरता को बयान करते हुए कहा कि उनकी रूह कांप रही है. उन्होंने कहा कि उनके आंखों के सामने ही पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाई. शहीद बलवीर नेगी के पेट में बंदूक की नोक से वार किया व दो महिलाओं के सर पर बंदूक तान कर उनको गोली मारी गई. अन्य को भागते समय पुलिस ने गोली मारी.

युवा अनिल सिंह अन्नू ने कहा कि आज युवा बेरोजगार धूम रहे हैं. पहाड़ से पलायन जारी है. ऐसे में सरकार द्वारा रोजगार के साधन भी उपलब्ध कराये. परन्तु पहाड़ में रोजगार नहीं पहुंच पाया.

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मसूरी गोलीकांड 28 साल पूरे

पूरा वाकया: एक सितंबर 1994 की रात ही संयुक्त संघर्ष समिति ने झूलाघर स्थित कार्यालय पर कब्जा कर लिया था. आंदोलनकारी वहां क्रमिक धरने पर बैठ गए थे. जिनमें से पांच आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया था. इसके विरोध में 2 सितंबर को नगर के अन्य आंदोलनकारियों ने झूलाघर पहुंचकर शांतिपूर्ण धरना शुरू कर दिया. आंदोलनकारी मसूरी में जुलूस निकाल रहे थे. इसी बीच उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गोलियां चला दी थीं.

दो सितंबर का दिन मसूरी के इतिहास का काला दिन माना जाता है. दो सितंबर 1994 को राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गोलियां चला दीं थी, जिसमें छह लोगों सहित एक पुलिस अधिकारी सीओ उमाकांत त्रिपाठी भी शहीद हो गए थे. उनके बारे में कहा जाता है कि वे आंदोलनकारियों पर गोली चलाये जाने के पक्षधर नहीं थे.

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दो सितंबर 1994 का जख्म आज तक कोई नहीं भूला.

दो सितंबर 1994 को उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के लोग कार्यालय झूलाघर जा रहे थे. इस दौरान गनहिल की पहाड़ी से किसी ने पथराव कर दिया. पथराव से बचने के लिए आंदोलनकारी कार्यालय में जाने लगे. इसी बीच पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं. इसमें छह आंदोलनकारियों की मौके पर ही मौत हो गई. साथ ही सेंट मैरी अस्पताल के बाहर पुलिस के सीओ उमाकांत त्रिपाठी की भी मौत हो गई थी. इस गोलीकांड में राज्य आंदोलनकारी मदन मोहन ममगाई, हंसा धनाई, बेलमती चौहान, बलवीर नेगी, धनपत सिंह, राय सिंह बंगारी शहीद हो गए थे.

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