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वाराणसी: संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में हुआ करोड़ों का घोटाला, ईओडब्ल्यू कर रही जांच

वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में ग्रंथों के प्रकाशन को लेकर फर्जीवाड़े का मामला सामने आया है. घोटाले की जांच कर रही आर्थिक अपराध अनुसंधान संस्थान के आंकड़ों के मुताबिक पुस्तकों के प्रकाशन के करोड़ों रुपये का बंदरबांट किया गया है. आंकड़ों के अनुसार 552 ग्रन्थों में मात्र तीन ग्रन्थों का ही प्रकाशन कराया गया है.

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में करोड़ों का घोटाला
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में करोड़ों का घोटाला
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Published : Oct 6, 2020, 5:50 PM IST

वाराणसी: काशी में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय लगातार विवादों के घेरे में गिरता जा रहा है. बीते दिनों अभी रिजल्ट के फर्जीवाड़े का मामला शांत भी नहीं हुआ था कि पुनः विश्विद्यालय में ग्रंथों के प्रकाशन को लेकर फर्जीवाड़े का मामला सामने आया है. घोटाले की जांच कर रही आर्थिक अपराध अनुसंधान संस्थान के आंकड़ों की मानें तो पुस्तकों के प्रकाशन के करोड़ों रुपये का बंदरबांट किया गया है. आंकड़ों के अनुसार 552 ग्रन्थों में मात्र तीन ग्रन्थों का ही प्रकाशन कराया गया है.

इस बाबत 2010 के तत्कालीन विक्रय अधिकारी डॉ. पदमाकर मिश्र ने अपना लिखित बयान ईओडब्ल्यू को दिया है. इसमें उन्होंने बताया कि 2001 से 2010 के बीच में शासन द्वारा 552 ग्रन्थों, दुर्लभ पांडुलिपियों के प्रकाशन के लिए 10 करोड़ 20 लाख 22 हजार की धनराशि अनुमोदित की गई थी.

इसी क्रम में विश्वविद्यालय प्रशासन से बातचीत पर उन्होंने बताया कि तीन ग्रंथों के प्रकाशन के लिए लगभग 3 करोड़ 66 लाख, 96 हजार, 237 रुपये अनुमोदित किए गए हैं. कुलपति की फर्जी मोहर और हस्ताक्षर का प्रयोग करके बिना पुस्तकों के प्रकाशन के ही लगभग 6 करोड़, 53 लाख, 23 हजार, 763 रुपये मुद्रित प्रकाशन वालों को बिना प्रकाशन के दिए गए हैं. इस बारे में विश्वविद्यालय की ओर से 2009 में इसको लेकर प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई थी. हालांकि मुद्रिकाओं के प्रकाशन को लेकर ईओडव्लू जांच-पड़ताल कर रही है. जल्द ही मामले का खुलासा हो जाएगा.

वाराणसी: काशी में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय लगातार विवादों के घेरे में गिरता जा रहा है. बीते दिनों अभी रिजल्ट के फर्जीवाड़े का मामला शांत भी नहीं हुआ था कि पुनः विश्विद्यालय में ग्रंथों के प्रकाशन को लेकर फर्जीवाड़े का मामला सामने आया है. घोटाले की जांच कर रही आर्थिक अपराध अनुसंधान संस्थान के आंकड़ों की मानें तो पुस्तकों के प्रकाशन के करोड़ों रुपये का बंदरबांट किया गया है. आंकड़ों के अनुसार 552 ग्रन्थों में मात्र तीन ग्रन्थों का ही प्रकाशन कराया गया है.

इस बाबत 2010 के तत्कालीन विक्रय अधिकारी डॉ. पदमाकर मिश्र ने अपना लिखित बयान ईओडब्ल्यू को दिया है. इसमें उन्होंने बताया कि 2001 से 2010 के बीच में शासन द्वारा 552 ग्रन्थों, दुर्लभ पांडुलिपियों के प्रकाशन के लिए 10 करोड़ 20 लाख 22 हजार की धनराशि अनुमोदित की गई थी.

इसी क्रम में विश्वविद्यालय प्रशासन से बातचीत पर उन्होंने बताया कि तीन ग्रंथों के प्रकाशन के लिए लगभग 3 करोड़ 66 लाख, 96 हजार, 237 रुपये अनुमोदित किए गए हैं. कुलपति की फर्जी मोहर और हस्ताक्षर का प्रयोग करके बिना पुस्तकों के प्रकाशन के ही लगभग 6 करोड़, 53 लाख, 23 हजार, 763 रुपये मुद्रित प्रकाशन वालों को बिना प्रकाशन के दिए गए हैं. इस बारे में विश्वविद्यालय की ओर से 2009 में इसको लेकर प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई थी. हालांकि मुद्रिकाओं के प्रकाशन को लेकर ईओडव्लू जांच-पड़ताल कर रही है. जल्द ही मामले का खुलासा हो जाएगा.

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