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इस लाइब्रेरी में हैं हस्तलिखित श्रीमद्भागवत गीता और सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां

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Published : Jun 28, 2023, 8:11 PM IST

वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के सरस्वती भवन पुस्तकालय में सैकड़ों साल पुरानी हस्तलिखित श्रीमद्भागवत गीता और पांडुलिपियां मौजूद है. यहां पर देश की सभी भाषाओं की प्राचीन किताबें मौजूद हैं.

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का सरस्वती भवन पुस्तकालय
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का सरस्वती भवन पुस्तकालय

हस्तलिखित श्रीमद्भागवत गीता संग सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां.

वाराणसी: धर्म नगरी काशी की कई विरासत विश्व की धरोहर मानी जाती है. इन्हीं विरासतों में से एक है सरस्वती भवन पुस्तकालय. यह विश्व का इकलौता ऐसा पुस्तकालय माना जाता है, जहां डेढ़ हजार से ज्यादा साल पुरानी लगभग एक लाख दुर्लभ पांडुलिपियों के साथ हजारों साल पुरानी हस्तलिखित श्रीमद्भागवत गीता मौजूद है. यहां पर लगभग डेढ़ लाख ऐसी पुस्तकें हैं, जो अन्य कहीं उपलब्ध नहीं है. सरस्वती भवन पुस्तकालय वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में स्थित है. इसका 100 से ज्यादा साल पुराना इतिहास है. इस भवन को प्रिंस ऑफ वेल्स सरस्वती भवन भी कहा जाता है. भारत की संस्कृति और धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी से संबंधित सबसे अधिक पुस्तकों वाली लाइब्रेरी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की है. इसकी स्थापना साल 1907 में की गई थी. तब से आज तक कई पुस्तकों को यहां रखा जा चुका है.

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का सरस्वती भवन पुस्तकालय
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का सरस्वती भवन पुस्तकालय



एक हजार साल पुरानी श्रीमद्भागवत की पांडुलिपि: पुस्तकालय अध्यक्ष प्रो. राजनाथ ने बताया कि 'हमारे यहां कुल एक लाख ग्यारह हजार के आस-पास पांडुलिपियां हैं. इनमें तंत्र शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण की पांडुलिपियां है. यहां यंत्र शास्त्र भी है, जिसमें पुराने समय के यांत्रिक शास्त्र का वर्णन है. इसकी पांडुलिपि ऐसी है कि अभी इसे पढ़ा नहीं जा सका है. श्रीमद्भागवत की पांडुलिपि भी रखी है, जो लगभग एक हजार वर्ष पुरानी है. इसके साथ ही राजपंचाध्यायी है, दुर्गासप्तशती है, जिसे बहुत ही सूक्ष्म अक्षरों में लिखा गया है. इसके साथ ही स्वर्ण और रजत पत्र में लिखी हुई पांडुलिपियां भी हैं'.

सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां
सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां



स्वर्ण और रजत में लिखी गई हैं पांडुलिपियां: प्रो. राजनाथ ने बताया कि 'स्वर्ण और रजत की चमक आज भी बिल्कुल वैसी ही बनी हुई है. अगर आज उसे बनाया जाता तो ऐसी चमक न बनी रहती. आज से 400-500 वर्ष पहले जो कार्य किए गए हैं, उनमें वैसी ही चमक आज भी है. सरस्वती भवन पुस्तकालय में रखी हुई श्रीमद्भागवत की हस्तलिखित पांडुलिपि लगभग 1000 वर्ष पहले की है. इसे सामान्य तरीके से लिखा गया है. इस लाइब्रेरी की स्थापना 1907 में की गई थी. उस समय सभी पांडुलिपियों को यहां पर संरक्षित किया गया था'.

पुस्कालय में मौजूद  सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां
पुस्कालय में मौजूद सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां



ढाई लाख से अधिक प्रिंट हुई पुस्तकें: प्रो. राजनाथ ने बताया कि 'पुस्तकालय में प्रिंट हुई किताबें भी रखी जाने लगीं है. अभी जिनकी संख्या लगभग ढाई लाख है. यहां पर प्राचीन ग्रंथ भी हैं. जिनमें 400 वर्ष पुरानी किताबें भी हैं. राजतरंगिणी, अभिज्ञानशाकुंतलम् इत्यादि लाइब्रेरी में रखी हुई हैं. हमें ये लगता है कि इसकी वास्तविक प्रतियां हमारे पास है. शायद ही किसी अन्य विश्वविद्यालय के पास इसकी प्रतियां हों. शेक्सपियर की हमारे पास पूरी रचनाएं हैं. इनको कोई भी देख सकता है. जानकारों के मुताबिक साल 1980 तक यहां पर देश के सभी भागों से किताबें लाई जाती रहीं'.

पुस्कालय में मौजूद  सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां
पुस्कालय में मौजूद सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां



कई भाषाओं में लिखी पांडुलिपियां मौजूद: इस पुस्तकालय में वेद, वेदांग, पुराण, ज्योतिष एवं व्याकरण आदि विषयों की 1,11,132 पांडुलिपियां थीं. जानकारी के मुताबिक वर्तमान में इनकी संख्या लगभग 95 हजार है. देवनागरी, खरोष्ठी, मैथिली, बंग, ओड़िया, नेवाड़ी, शारदा, गुरुमुखी, तेलुगु एवं कन्नड़ की विभिन्न लिपियों में लिखी हुई पांडुलिपियां यहां पर मौजूद हैं. इसके साथ ही संस्कृत में लिखी गईं पांडुलिपियां स्वर्ण पत्र, रजत पत्र, कागज, ताड़पत्र, भोजपत्र एवं काष्ठपत्र पर हैं. त्रिपिटक, श्रीमद्भागवत गीता समेत कई पांडुलिपियां करीब 900 साल पुरानी हैं.

स्वर्ण और रजत में लिखी गई हैं पांडुलिपियां
स्वर्ण और रजत में लिखी गई हैं पांडुलिपियां



प्रिन्स ऑफ वेल्स सरस्वती भवन: इस पुस्तकालय की स्थापना 1894 में हुई थी, तब यह राजकीय संस्कृत महाविद्यालय था. लेकिन इसके भवन का शिलान्यास 16 नवंबर 1907 को वेल्स के राजकुमार एवं राजकुमारी के आगमन के समय हुआ था. भवन 1914 में बनकर तैयार हुआ था, जिसके बाद यहां पर पांडुलिपियों का संरक्षण किया जाने लगा. यहां पर देशभर से पांडुलिपियों और पुस्तकों को लाया जाता रहा. इसका नाम 'प्रिन्स ऑफ वेल्स सरस्वती भवन' रखा गया.

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