Kargil Vijay Diwas: जांबाजों की कहानी रिटायर्ड मेजर आशीष चतुर्वेदी की जुबानी

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Published : Jul 26, 2021, 5:06 AM IST

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हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) के रूप में मनाया जाता है. इस भारत (India) ने पाकिस्तान (Pakistan) को कारगिल के युद्ध (Kargil War) में मुंह तोड़ जवाब देते हुए जीत हासिल की थी. इस युद्ध में सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय दिया था. उसी अदम्य साहस की कहानी बता रहे, रिटायर्ड मेजर आशीष चतुर्वेदी (Ex. Major Ashish Chaturvedi).

लखनऊः 21 साल पहले पाकिस्तानी (Pakistan) सेना के साथ भारतीय (India) सेना के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध (Kargil War) में लोहा लिया था. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने दुश्मन सेना को नाको चने चबवा दिए थे. 26 जुलाई को कारगिल की जंग जीत कर देशवासियों को अपनी सेना पर गर्व करने का मौका हमारे वीर जवानों ने दिया. आज इसे देशवासी कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) के रूप मनाते हैं. साथ ही युद्ध में शहीद हुए सैकड़ों बहादुरों को श्रद्धांजलि देते हैं.

भारत माता की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने वाले इन्हीं सैकड़ों वीर जवानों में से उत्तर प्रदेश के भी कई वीर जवान शामिल थे. उनकी बहादुरी की गाथाएं देशभर में चर्चित हैं. कारगिल युद्ध में सैनिकों के अदम्य साहस के बारे में 'ईटीवी भारत' ने गोरखा रेजीमेंट में तैनात रहे सेवानिवृत्त मेजर आशीष चतुर्वेदी (Ex. Major Ashish Chaturvedi) से बातचीत की. पूर्व मेजर आशीष चतुर्वेदी कहते हैं कि कारगिल युद्ध अपने आप में बहुत ऐतिहासिक लड़ाई थी. क्योंकि यह लड़ाई भारत के ऊपर थोपी गई थी. बहुत ज्यादा बर्फीले इलाके में यह लड़ाई लड़ी गई. बहुत कठिन परिस्थितियां न केवल मौसम की वजह से बल्कि इस वजह से भी थी क्योंकि पहाड़ों की जो लड़ाई होती है उसमें ऊपर चोटी पर जो बैठता है. उसे बहुत बड़ा एडवांटेज होता है. कारगिल की पहाड़ियां इतनी ऊंचाई पर हैं. बस खुले नंगे पहाड़ होते हैं. मुश्किल हालात में भी भारतीय सेना ने अपनी युद्ध नीति, अपने साहस का परिचय देते हुए उन पर विजय प्राप्त की. इसमें करीब 527 भारतीय सैनिकों को हमने खोया. ऐसा अनुमान है कि पाकिस्तान के कम से कम चार से पांच हजार सैनिक और आतंकवादी मारे गए.

कारगिल युद्ध की कहानी.

कैप्टन मनोज पांडेय ने दिखाया था अद्भुत साहस

पूर्व मेजर आशीष चतुर्वेदी बताते हैं कि 3 मई 1999 को लड़ाई शुरू हुई थी और 26 जुलाई 1999 को खत्म हुई थी. इस ऑपरेशन का नाम 'विजय' रखा गया था, इसलिए कारगिल विजय दिवस के रूप में 26 जुलाई को मनाया जाता है. जहां तक हम बात करें सीतापुर के रहने वाले कैप्टन मनोज पांडेय (Captain Manoj Pandey) की, तो कैप्टन मनोज पांडेय गोरखा रेजिमेंट के 1/11 जीआर में थे. बटालिक सेक्टर में उनकी यूनिट थी. वहां पर जब्बार पीक पर कब्जा करना था. उसकी जिम्मेदारी 1/11 जीआर को दी गई थी और उस ऑपरेशन को कैप्टन मनोज पांडेय लीड कर रहे थे. चोटी को फतह करने में मनोज पांडे ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया था. जिसके चलते मरणोपरांत उन्हें सेना के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया.

दिन में ही अटैक करने का लिया फैसला

आशीष चतुर्वेदी बताते हैं कि उस टाइम उस यूनिट के सीओ कर्नल ललित राय थे. जिन्होंने यह फैसला किया था कि जब दिन में भी दिख रहा है और रात में भी दिख रहा है तो हम दिन में ही हमला करेंगे. ज्यादातर देखते हैं कि जो भी हमला करते हैं वो रात में ही करते हैं. ताकि आड़ अगर कम भी है तो भी दुश्मन आपको देख न पाए, लेकिन क्योंकि रात में भी दुश्मन देख पा रहा था और दिन में भी तो उन्होंने फैसला लिया कि हम दिन में ही हमला करेंगे. यह पहला ऐसा हमला था जो आजकल के जमाने में दिन में खुले पहाड़ों में किया गया और उसमें हमने फतह हासिल की. दुर्भाग्यवश कैप्टन मनोज पांडेय लड़ते-लड़ते शहीद हुए, लेकिन उन्होंने शहीद होने से पहले जहां पर उनका ऑपरेशन था, उसको अंजाम दिया. जब्बार पीक को हमने जीता और यह अपने आप में इनकी वीरगाथा है.

राइफलमैन सुनील जंग के रूप में हुई थी पहली कैजुअल्टी

राइफलमैन सुनील जंग (Rifleman Sunil Jung) की बहादुरी के बारे में सेवानिवृत्त मेजर आशीष चतुर्वेदी कहते हैं कि लखनऊ के राइफलमैन सुनील जंग भी 1/11 जीआर में ही थे जो यूनिट कैप्टन मनोज पांडेय की थी. उन्होंने बताया भी था कि सुनील बचपन से ही फौज में जाना चाहते थे. सुनील जंग कारगिल युद्ध में सबसे पहले पहले शहीद हुए थे. जब 1/11 जीआर को वहां पर डिप्लॉय किया गया तो वह पहली कैजुअल्टी थी, इंडियन आर्मी की. इसमें राइफलमैन सुनील जंग शहीद हुए थे.

इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में चल रहा है केस

सेवानिवृत्त मेजर आशीष चतुर्वेदी ने बताया कि जब कारगिल युद्ध का पता चला था, उससे पहले जो पेट्रोलिंग पार्टी थी. उस पर हमला हुआ था. उसमें कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथ चार जवान और थे जो शहीद हुए थे, लेकिन तब कारगिल की जंग शुरु नहीं हुई थी. वह पेट्रोलिंग पर गए थे और वहां पर जो आतंकवादी थे. उन्होंने उनको कैप्चर कर लिया था. उनको बुरी तरह से प्रताड़ित कर मारा था. उसका आज भी इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में केस चल रहा है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी तक उस पर कोई निर्णय नहीं आया है. जरूरत है कि सरकार उस केस की अच्छी से पैरवी करे और दोषियों पर कार्रवाई हो सके.

जज्बे से जीती गई जंग

जॉर्ज पैटन ने एक बात कही थी कि 'कोई भी जो जंग है, वह हथियारों से नहीं बल्कि उस आदमी से जीती जाती है. जो उस हथियार के पीछे होता है.' उन्होंने कहा कि आज टेक्नोलॉजी बहुत बढ़ गई है. टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल लगभग हर देश कर रहा है, लेकिन लड़ाई तो जज्बे से ही जीती जाती है. जिसमें लड़ने का, मरने-मारने का जज्बा हो. जो न मारने से डरता हो जो ना मरने से डरता हो, वही जंग जीतता है. हथियार अपने आप नहीं चलता उसे चलाना होता है.

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