लखनऊ: 23 साल पहले वर्ष 1999 (kargil war 1999 in hindi) में दुश्मन देश पाकिस्तान की सेना को भारतीय सेना के रणबांकुरों ने रणक्षेत्र में ऐसी पटखनी दी कि पाकिस्तान अब भारत से टक्कर लेने के बारे में सपने में सोच भी नहीं सकता है. कारगिल के युद्ध में हमारे शूरवीरों ने अदम्य साहस और बहादुरी का परिचय देते हुए दुश्मन सेना को नाकों चने चबा दिए.
यह युद्ध अन्य सभी युद्धों से इस मायने में काफी अलग है कि यहां पर दुश्मन देश की सेना पहाड़ों के ऊपरी हिस्से से हमला कर रही थी और भारत के बहादुर जांबाज नीचे से ही उनका सामना कर जवाब दे रहे थे. कारगिल (kargil war heroes) की इस लड़ाई में अद्भुत वीरता का परिचय देने वाले कैप्टन मनोज पांडेय और राइफलमैन सुनील जंग ने दुश्मन सेना को धूल चटाकर यह जंग जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. देश कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) मना रहा है.
भारतीय सेना से रिटायर मेजर आशीष चतुर्वेदी कारगिल के शौर्यवीरों की शौर्यगाथा सुनाते हुए कहते हैं कि हिंदुस्तान की जो फौज का इतिहास है, उसमें कारगिल की लड़ाई काफी महत्वपूर्ण पड़ाव है. क्योंकि, इतनी ऊंचाई पर लड़ी गई यह पहली ऐसी लड़ाई थी. बहुत कम युद्ध हैं, जो इतनी ऊंचाई पर लड़े गए हैं. भारतीय सेना ने यह काम मात्र दो महीने के अंदर किया. जो कारगिल और द्रास की पहाड़ियां थीं, उस पर लोगों को लगता है कि बहुत आसान रहा होगा. यहां जानकारी होना जरूरी है कि जो कारगिल और द्रास की पहाड़ियां है, उन पर कोई पेड़ नहीं हैं. अगर कोई ऊपर बैठा व्यक्ति नीचे देखता है तो वह 10-10 किलोमीटर तक अपनी आंख से सीधे देख सकता है.
'सुरक्षित पॉइंट पर होती थी दुश्मन सेना'
आशीष चतुर्वेदी ने कहा कि ऊपर जो लोग बैठे रहते हैं, वह संगर में बैठे होते हैं. यह कंक्रीट से बना होता है और जमीन के नीचे होता है. केवल उसमें फायर करने के लिए जगह होती है, बाकी सब कवर होता है. इतने अच्छे सुरक्षित पॉइंट पर दुश्मन सेना के जवान थे. अब समझिए कि 10 किलोमीटर दूर से आप चढ़ना शुरू करते हैं और वह आपको देख सकते हैं. आप पर गोलियां बरसा सकते हैं.
रिटायर मेजर ने बताया कि नीचे माइनफील्ड लगी होती है और पीछे से पाकिस्तान की सेना को सपोर्ट करने के लिए आर्टिलरी फायर करती हैं. ऊपर से वहां 30 से 35 डिग्री तापमान रहता है. इतनी सारी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी भारतीय सेना के जवानों ने मात्र दो महीने के अंदर पाकिस्तान को वहां से हटा दिया. यह अपने आप में बहुत बड़ी काबिलियत थी.
उत्तर प्रदेश की शान रहे कैप्टन मनोज पांडेय
सेवानिवृत्त मेजर आशीष चतुर्वेदी बताते हैं कि इस युद्ध में उत्तर प्रदेश से जो सबसे प्रमुख नाम आता है वह है कैप्टन मनोज पांडेय का. उन्होंने कहा कि यह उनका सौभाग्य है कि वे और कैप्टन मनोज पांडेय एक ही रेजिमेंट से थे. इस जंग में जो सबसे पहले शहीद हुए थे, वो थे 11 गोरखा राइफल्स के राइफलमैन सुनील जंग. वह भी 11 जीआर से ही थे. गोरखा रेजीमेंट का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. जहां की लड़ाई में रेजिमेंट के जवानों को जिम्मेदारियां दी गईं, उन्हें बखूबी अंजाम दिया गया.
11 जीआर के बारे में बताना चाहूंगा जो उस समय के सीओ थे कर्नल ललित राय. उन्होंने पहली बार ऐसा फैसला किया था कि हम रात में हमला नहीं करेंगे. हम दिन में ही हमला करेंगे. अब आप समझ लीजिए कि दिन में आप हमला करेंगे और सामने से कोई आपको देख रहा है. इसे कैप्टन मनोज पांडेय ने बहुत बहादुरी से लीड किया. उन्होंने कहा कि वे समझते हैं कि ऐसी बहुत सी कहानियां होंगी, जिनके बारे में हम जानते तक नहीं हैं. लेकिन, जिन लोगों ने अपनी कुर्बानी दी, उन्होंने इस सोच से नहीं दी कि उनके बारे में कुछ कहा जाए. मातृभूमि का एक जज्बा होता है. वह भारतीय सेना में हमेशा कायम रहता है. ऐसे ही भारतीय सेना उसको आगे भी कायम रखेगी.
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