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नाटक दृश्य काव्य है, बिना मंचन इसके भाव की परिकल्पना अधूरी : सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Nov 7, 2023, 1:50 PM IST

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से आयोजित संगोष्ठी के मुख्य अतिथि सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने जिज्ञासुओं और श्रोताओं से नाटक की विधाओं और उनके रहस्यों की चर्चा की. इस दौरान उन्होंने प्राकृत और संस्कृत भाषा के मर्म के साथ उनकी विशेषता भी समझाई.

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लखनऊ : नाटक एक दृश्य काव्य है यह आंखों और कानों के लिए है. इन दोनों इंद्रियों से इसका संबंध लिखा हुआ नाटक साहित्य का हिस्सा है. जब तक इसका मंचन नहीं होता वह अपूर्ण रहता है. लोक भाषा का मतलब लोगों की भाषा, जिस भाषा में लोग अपने आम जनजीवन को अभिव्यक्त करते हैं. प्राकृत लोक भाषा थी, संस्कृत उच्च वर्ग की भाषा थी. निम्न वर्ग और स्त्री को संस्कृत उस समय बोलने की मनाही थी. उनके संवाद प्राकृत भाषा में मिलते हैं.

संगोष्ठी में मौजूद मुख्य अतिथि सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ व अन्य अतिथि.
संगोष्ठी में मौजूद मुख्य अतिथि सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ व अन्य अतिथि.

यह बातें मुख्य अतिथि सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा भारतीय भाषा उत्सव के अंतर्गत आयोजित संगोष्ठी में कहीं. उन्होंने कहा कि आप किसी पुस्तक को धीरे-धीरे पढ़ सकते हैं, पर नाटक में ऐसा नहीं है. उसमें जो संवाद एक बार बोल दिया जाता है, उसे दोबारा नहीं बोला जाता, रामलीला में रामचरित मानस की जगह राधेश्याम रामायण का प्रयोग है. आधुनिक नाटकों में यथार्थ की भाषा मिलती है. पुराने नाटकों से लोकभाषा है. लोक भाषा लगातार अपने को बदलती रहती है. संस्कृति और भाषा एक बहती नदी की तरह है. रंगमंच, दृश्य, वाचिक अभिनय की अलग-अलग भाषा होती है.



नाटक लिखना बहुत कठिन : डॉ. अलका पांडे ने कहा कि नाटक के पात्र जो बात करते हैं, वह एक कलाकार के नहीं बल्कि उसके होते हैं जिसका वह पात्र किरदार निभा रहा है. रंगमंच एक विशिष्ट जगह है, पर्दों पर जब कोई चित्र दिख रहे होते हैं तो वह बहुत बड़े दिखाई देते हैं. जबकि नाटक के किरदार वास्तविक दिखाई देते हैं. इसलिए नाटक रंगमंच से अलग होता है. रंगमंच जीवंत विधा है. नाटक की भाषा कोई व्याकरण की भाषा नहीं है. इसमें पत्र का प्रत्येक अंग बोलता है. नाटक में संगीत और नृत्य बोलता हुआ प्रतीत होता है. मौन की भी अपनी भाषा होती है. पात्र अपने संवाद के द्वारा जीवंत रहता है. पात्र संवादों के आरोह व अवरोह का विशेष ध्यान देते हैं. नाटक लिखना बहुत कठिन माना गया है क्योंकि उसमें जो कुछ घटित करना है उसे संवादों के माध्यम से प्रस्तुत करना होता है. नाटक का पाठ विद्या नहीं है जब तक नाटक रंगमंच पर नहीं होते तब तक वह पूर्ण नहीं होता. कार्यक्रम का संचानलन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रधान संपादक डाॅ. अमृत दुबे ने किया. शोधार्थियों/विद्यार्थियों सुकीर्ति तिवारी, तनु मिश्रा, आसिया बानो द्वारा ‘लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाटक सिंदूर की होली‘ की प्रस्तुति दी.

मुशायरे और गीतों से सजे नाटक ने समझाया रिश्तों का महत्व

एक व्यक्ति के जीवन में मां और महबूब की मोहब्ब्त का कितना महत्व है, इसे सोमवार को ‘अमृता का ख्वाब...साहिर’ नाटक में बखूबी दिखाया गया. मुशायरे और गीतों से सजे इस नाटक ने दर्शकों को विशेष रूप से प्रभावित किया. नाटक की परिकल्पना अतहर नबी साहब की थी. साहिर व अमृता के चरित्रों को सार्थक करने के लिए दिल्ली से आए कलाकारों ने साहिर का चरित्र राजीव शर्मा, अमृता का चरित्र चांद मुखर्जी ने निभाया.

नाटक का एक दृश्य.
नाटक का एक दृश्य.

फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी व इंस्ट्टीयूट ऑफ ह्यूमन रिर्सोसेज, रिसर्च एंड डेवलेपमेंट सोसाइटी के तत्वावधान में संगीत नाटक अकादमी के संत गाड्गे प्रेक्षागृह में आयोजित नाटक का मंचन एसएन लाल लिखित व नवाब मसूद अब्दुल्लाह व एसएन लाल निर्देशित नाटक साहिर-अमृता की पहली मुलाकात से शुरू होता है. नाटक में एक तरफ साहिर अमृता की मोहब्बत में गिरफ्तार हो गए. वहीं अपनी मां से इतनी मोहब्बत करते थे कि मां और अपने बीच किसी तीसरे को लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए.

सूत्रधार का चरित्र नवाब मसूद अब्दुल्लाह, इमरोज़ का चरित्र आदित्य ओहरी, निसार का चरित्र फरीद ख़ान व जयदेव का चरित्र अल्तमश आज़मी, जोश महिलाबादी का राहुल मिश्रा, जां-निसार का शहरुख़, अली सरदार जाफरी का शहबाज़, अर्श मलसियानी का साक़िब हसन, मजाज़ लखनवी का अल्तमश आज़मी व नौकर का चरित्र शहिद ने निभाया. साथ ही मंच पर साहिर के गीतों को आवाज देने वाले गायकों में जावेद गौरी, कुमार मुकेश व कृति रहे. नाटक के सह -निर्देशक मो. रिज़वान रहे और कार्यक्रम का संचालन डा. सरवत तक़ी ने किया. इस मौके पर चेयरमैन फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी अतहर सगीर जैदी, सचिव एस. मनाजिर आदिल हसन, अतहर नबी, सैय्यद रफत, स्वामी सारंग, रौशन तकी आदि मौजूद रहे.

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