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जानिए प्रदेश में क्यों हुई सत्ताधारी दल की हार, सपा-भाजपा के लिए क्या हैं इस चुनाव के सबक

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Published : Dec 8, 2022, 6:35 PM IST

उपचुनाव के परिणाम के बाद भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) को निराशा का सामना करना पड़ा है. मैनपुरी संसदीय सीट से डिंपल यादव ने भाजपा प्रत्याशी रघुराज शाक्य को करीब पौने तीन लाख से अधिक वोटों से पराजित किया, वहीं खतौली उपचुनाव में रालोद-सपा गठबंधन के प्रत्याशी मदन भैय्या ने भाजपा उम्मीदवार राजकुमारी को 22 हजार से अधिक वोटों से पराजित किया. केवल रामपुर सीट से भाजपा प्रत्याशी आकाश सक्सेना जीतने में कामयाब रहे. प्रदेश में आखिर क्यों सत्ताधारी दल की हार हुई..पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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लखनऊ : सात माह पहले प्रचंड बहुमत से जीतकर आई भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) को उपचुनाव में निराशा का सामना करना पड़ रहा है. एक संसदीय सीट और दो विधानसभा सीटों पर हुए उप चुनावों में भाजपा को महज विधानसभा की एक सीट मिल पाई है. हारने वाली सीटों में खतौली विधानसभा सीट भी शामिल है, जो भाजपा के पास थी, लेकिन राष्ट्रीय लोकदल ने छीन ली है. गौरतलब है कि सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद मैनपुरी संसदीय सीट रिक्त हुई थी, जहां से समाजवादी पार्टी ने पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को चुनाव मैदान में उतारा था. रामपुर में सपा विधायक मोहम्मद आजम खान और खतौली से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता समाप्त होने के कारण यहां उपचुनाव हुए हैं. रामपुर सीट से भाजपा प्रत्याशी आकाश सक्सेना जीतने में कामयाब तो रहे, लेकिन सरकार पर आरोप भी खूब लगे हैं.



यह उपचुनाव प्रदेश भाजपा के नए अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी और उनके साथी प्रदेश के नए संगठन मंत्री धर्मपाल सिंह के लिए भी एक इम्तिहान था. खासतौर पर दोनों ही नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हैं और दोनों विधानसभा सीटें, जहां चुनाव हो रहा था, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही आती हैं. ऐसे में मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट हारना इन दोनों ही नेताओं के लिए असहज करने वाली है. सबसे बड़ी बात यह है कि 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में यह सीट भाजपा ही जीतकर आई थी. दूसरी जीत के सात माह के भीतर ही सीट हार जाना यह दर्शाता है कि जनता में किसी न किसी बात को लेकर नाराजगी जरूर है. वैसे भी उपचुनाव में सत्ताधारी दल का पलड़ा भारी रहता है, क्योंकि लोग जानते हैं कि सत्ता वाली पार्टी को जिताने से विकास की उम्मीद ज्यादा रहती है. बावजूद इसके यह पराजय मतदाताओं की निराशा की ओर इशारा करती है. कहा जा रहा है कि नोएडा स्थित ग्रैंड ओमैक्स सोसायटी में कथित तौर पर भाजपा नेता श्रीकांत त्यागी द्वारा एक महिला से गाली-गलौज का वीडियो वायरल होने के बाद प्रशासन को त्यागी पर कार्रवाई करते हुए जेल भेजना पड़ा था. श्रीकांत त्यागी की गिरफ्तारी से त्यागी समाज में गहरी नाराजगी बताई जा रही थी. श्रीकांत ने जमानत पर छूटने के बाद अपने समाज के साथ कई मीटिंग कर माहौल भी बनाया था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस समाज का खासा प्रभाव है और इनकी संख्या भी ठीक है. ऐसे में भाजपा की हार में कहीं न कहीं इस प्रकरण का भी हाथ हो सकता है. गौरतलब है कि खतौली उपचुनाव में रालोद-सपा गठबंधन के प्रत्याशी मदन भैय्या ने भाजपा उम्मीदवार राजकुमारी सैनी को 22 हजार से अधिक वोटों से पराजित किया है.

मदन भैय्या
मदन भैय्या

अब बात मैनपुरी संसदीय सीट पर उपचुनाव की. इस सीट पर जीत जैसे समाजवादी पार्टी के लिए खुशियों का खजाना लेकर आई है. सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के जीते जी जो न हो सका, इस चुनाव में वह भी हो गया. उपचुनाव की घोषणा होते ही सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव ने मुलायम सिंह की विरासत वाली इस संसदीय सीट पर मिलकर प्रचार करने का निर्णय किया. चुनाव प्रचार जैसे-जैसे आगे बढ़ा तस्वीर साफ होने लगी कि चाचा-भतीजे में विगत चार वर्ष से चल रहे मतभेद कम हो रहे हैं और दोनों भविष्य में एक हो सकते हैं. मैनपुरी में शिवपाल यादव का खासा प्रभाव भी माना जाता है. चुनाव प्रचार में उन्होंने जीतोड़ मेहनत कर सपा को वह दिला दिया, जिसकी उसे अर्से से जरूरत थी. शिवपाल चुनाव प्रचार में न भी उतरते तब भी डिंपल चुनाव जीत ही लेतीं, लेकिन शिवपाल के आने से जीत की लकीर इतनी बड़ी हो गई, जिसकी खुद सपाइयों को उम्मीद नहीं थी. सपा प्रत्याशी डिंपल यादव ने भाजपा प्रत्याशी रघुराज शाक्य को करीब पौने तीन लाख से अधिक वोटों से पराजित कर नया कीर्तिमान गढ़ दिया. मतगणना के आरंभ से ही सपा ने इस सीट पर भारी बढ़त बना ली थी, जो अंत तक बरकरार रही. रुझानों से उत्साहित अखिलेश यादव ने सपा और शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के विलय की घोषणा कर दी. बाद में अखिलेश यादव ने कहा कि दोनों पार्टियों के विलय से हमारी ताकत दोगुनी हो गई है. स्वाभाविक है कि यह जीत सपा कार्यकर्ताओं में नया जोश लेकर आई है. निश्चित रूप से इन परिणामों का असर हालिया निकाय चुनावों और 2024 में होने वाले संसदीय चुनावों पर भी पड़ेगा. वहीं यदि भाजपा की ओर से देखें, तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने इस सीट पर जीत के लिए ज्यादा प्रयास भी नहीं किया. पार्टी के दिग्गज नेताओं का फोकस गुजरात चुनावों पर ज्यादा रहा. यही कारण है कि भाजपा प्रत्याशी रघुराज शाक्य अपना बूथ भी नहीं जीत पाए. यदि भाजपा पूरी मजबूती से चुनाव लड़ती तो निश्चित रूप से हार का अंतर कम किया जा सकता था.

डिंपल यादव
डिंपल यादव

रामपुर विधानसभा सीट भाजपा ने जीती जरूर है, लेकिन इसमें भाजपा के प्रयास कम और लंबे अर्से से यहां के विधायक रहे मोहम्मद आजम खान से नाराजगी ज्यादा बड़ा कारण रही. आसिम राजा के रूप में इस सीट पर सपा ने जो प्रत्याशी उतारा था, वह पार्टी के बजाय आजम खान के अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं. यही कारण है कि सपा के अन्य ऐसे नेता, जो खुद को टिकट का दावेदार मानते थे, नाराज हो गए और उन्होंने भितरघात का काम किया. यही नहीं चुनावी तकरीरों में अपनी ईमानदारी की कसमें खाने वाले मोहम्मद आजम खान की कलई अब खुल चुकी है. जौहर विश्वविद्यालय में उजागर हुए उनके भ्रष्टाचार के किस्से हर आम-ओ-खास की जुबान पर हैं. विगत काफी समय तक आजम खान जेल में थे. इस दौरान वह अपनी उलझनों से निपटने में लगे रहे और उनकी विधायक निधि के करोड़ों रुपये खर्च नहीं हो सके. लोगों में इस बात की भी खासी नाराजगी थी. कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने भी भाजपा को अपना समर्थन दे दिया था. ऐसे में भाजपा पहले से ही काफी मजबूत हो चुकी थी. वैसे भी भाजपा प्रत्याशी आकाश सक्सेना, आजम के खिलाफ काफी समय से संघर्ष कर रहे थे. उन्होंने आजम के कई कारनामे उजागर किए और उन्हें जेल भिजवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यही कारण है कि आकाश सक्सेना ने 2017 और 2022 की हार को पीछे छोड़ते हुए उपचुनाव में 30 हजार से ज्यादा वोटों से अपनी जीत की इबारत लिखी.


आकाश सक्सेना
आकाश सक्सेना



तीनों सीटों पर चुनावों के निष्कर्षों को देखें तो इसमें संदेह नहीं कि यह स्थिति भाजपा के लिए चिंता में डालने वाली है. उसे अपनी खामियों को दुरुस्त करना होगा और यह समझना होगा कि आखिर जनता चाहती क्या है. भ्रष्टाचार पर अंकुश, व्यापारी हितों का संरक्षण और रोजगार जैसे मुद्दों पर और अधिक काम करने की जरूरत है. इस सरकार में लोगों की समस्या निस्तारण का तंत्र भी अव्यावहारिक है. अधिकारी निरंकुश हैं. कई जगह विधायकों और सांसदों तक की सुनवाई नहीं होती. लोकतंत्र में यदि जनप्रतिनिधियों की ही सुनवाई नहीं होगी, तो जनता कहां जाएगी? अधिकारियों पर नियंत्रण तो जनप्रतिनिधियों के माध्यम से ही रखा जाता है. इन सभी विषयों पर चिंतन कर भाजपा को रास्ता निकालना होगा. अन्यथा यह मान लेना चाहिए कि आगे की राह कठिन होने वाली है. वहीं समाजवादी पार्टी के लिए जरूरी है कि इस जीत से उपजा उत्साह बनाए रखे और पार्टी और परिवार में एका बना रहे. पार्टी के निर्णयों में सामूहिकता हो और सभी को अपनी बात रखने का अधिकार मिले. यदि अखिलेश यादव यह सब कर सके, तो निस्संदेह 2024 में वह भाजपा के सामने चुनौती खड़ी करने में कामयाब होंगे.

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