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करगिल युद्ध में शहीद नरेश के माता-पिता एकांक जीवन जीने को मजबूर, 9 महीने से नहीं मिली वृद्धा पेंशन

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Published : Aug 13, 2023, 5:35 PM IST

माता-पिता एकांक जीवन जीने को मजबूर,
माता-पिता एकांक जीवन जीने को मजबूर,

अलीगढ़ के गांव में करगिल के युद्ध में शहीद हुए जवान के माता-पिता एकांक जीवन जीने को मजबूर हैं. वहीं, गांव में भी कोई विकास नहीं हुआ है. माता-पिता का कहना है कि 9 महीने से उन्हें वृद्धा पेंशन तक नहीं मिली है.

करगिल युद्ध में शहीद नरेश के माता-पिता से बातचीत

अलीगढ़: 1999 के करगिल युद्ध में शहीद हुए वीर नरेश सिनसिनवार के बुजुर्ग माता-पिता एकांक जीवन जीने को मजबूर हैं. वहीं, ग्रामीण 24 साल बीत जाने के बाद भी विकास की राह ढूंढ रहे हैं. वीर शहीद नरेश के बुजुर्ग माता-पिता का कहना है कि बेटे की शहादत के बाद उसकी पत्नी सब कुछ लेकर अपने मायके चली गई. शहीद के नाम पर मिला पेट्रोल पंप का संचालन भी उसके मायके वाले करते हैं. इस कारण शहीद के बुजुर्ग माता-पिता अपनी छोटी सी खेतीवाड़ी के सहारे जीवन यापन करने को मजबूर हैं. वहीं, सरकार की तरफ से मिलने वाली ढाई हजार रुपये प्रति माह की वृद्धा पेंशन भी बीते 9 महीने से नहीं मिली है.

वीर शहीद के माता-पिता राजेंद्र सिंह व रूपवती देवी ने बताया कि उनका छोटा बेटा नरेश सिनसिनवार 28 फरवरी 1992 को आगरा से सेना में भर्ती हुआ था. वहीं, ग्रामीण और नरेश के पारिवारिक मित्र बताते हैं कि मई के महीने में कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व वाली 6 सैनिकों की टुकड़ी में नरेश सिनसिनवार भी शामिल था. जब यह टुकड़ी करगिल की चोटियों पर पहुंची, तो वहां पाक सैनिकों से घिर गई. फिर भी सभी जवान दिलेरी से दुश्मनों से लड़े. दुश्मन ने इन सभी जवानों को पकड़ने के बाद बेहद क्रूरता दिखाई. लेकिन, इन वीरों ने देश का एक भी भेद दुश्मन के सामने जाहिर नहीं किया.

परिजन बताते हैं कि वीर शहीद नरेश का विवाह अतरौली तहसील के गांव महके निवासी कल्पना के साथ 28 अप्रैल 1996 को हुआ था. तिरंगे में लिपटा नरेश का शव जब गांव पहुंचा तो हजारों का जनसैलाब उमड़ पड़ा था. मां, बहन व पत्नी का करुण क्रंदन सुनकर हर आंख छलक पड़ी थी. जिस स्थान पर वह पंचतत्व में विलीन हुआ, उसी स्थान पर स्मृति स्थल बना है. नरेश ने अपनी वीर वंश परंपरा को वीर गोकुला की भांति शहादत देकर निभाया. तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी शहीद को अंतिम विदाई देने गांव आए थे.

माता-पिता ने बताया कि बेटे की शहादत के बाद ही बहू कल्पना देवी अपने मायके चली गई थी. शहीद को मिले पेट्रोल पंप का संचालन कल्पना के मायके वाले ही करते हैं. शहीद के पिता राजेंद्र सिंह व मां रूपवती आज भी तंग गलियों में बने दो कमरे और एक बरामदे वाले घर में गुजर-बसर कर रहे हैं. शहीद के बड़े भाई विनोद कुमार बचपन से ही अपनी ननिहाल में रहते हैं. हामिदपुर में इस समय वह परिवार समेत रह रहे हैं. पिता राजेंद्र सिंह के पास 10 बीघे जमीन है, उसी से परिवार का गुजर बसर हो रहा है. छोटे बेटे के शहीद होने और बहू के मायके चले जाने और बड़े बेटे के दूसरी जगह रहने से बुजुर्ग माता-पिता एकांकी जीवन जी रहे हैं. लेकिन, उन्हें गर्व है कि उनके लाल ने माटी का कर्ज उतार दिया. उन्हें ढाई हजार रुपये की जो पेंशन मिलती थी, वह भी 9 माह से नहीं मिली है.

हालांकि, गांव में बने शहीद स्मारक स्थल पर वीर योद्धा नरेश की वीरगाथा कविता के रूप में शिला पट्टिका पर अंकित है. शहीद नरेश के नाम से वैदिक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर प्रवेश द्वार बना है. इसके साथ ही शहीद के गांव में सुविधाओं की कमी पर क्षोभ भी लोगों को है. बिजली को लेकर नाराजगी है. सड़कों की भी हालत बेहद खराब है.

गौरतलब है कि 1999 के करगिल युद्ध में देश के वीर सपूतों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया और पाकिस्तानी सेना को धूल चटा दी थी. 26 जुलाई को देश में सबसे मुश्किल करगिल युद्ध की जंग जीत ली. जाबांज सैनिकों ने देश का मान सम्मान मस्तक हिमालय की तरह ऊंचा कर दिया. लेकिन, देश को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ी. चरवाहे के जरिए सबसे पहले सौरभ कालिया के नेतृत्व वाली पेट्रोलिंग टीम को करगिल की ऊंची चोटियों पर बने बंकरों में दुश्मनों की मौजूदगी की पहली खबर मिली थी. इस पर दुश्मनों की बड़ी तादाद की जरा भी परवाह न करते हुए सैनिकों की एक टुकड़ी आगे बढ़ गई थी. छह सैनिकों की इस टुकड़ी में अलीगढ़ जिले के गांव छोटी बल्लम निवासी नरेश सिनसिनवार भी शामिल थे. शत्रुओं ने अधिक संख्या होने के कारण घेरकर उन्हें पकड़ लिया. नरेश सिनसिनवार सहित सभी छह सैनिकों के अंग-अंग विच्छेदन करने के बावजूद अंतिम सांस तक शत्रु भारतीय सेना का एक भेद न पा सके.

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