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मुगल सम्राट अकबर धर्म को लेकर जिज्ञासु, खुले विचारों वाले और व्यावहारिक थे: इतिहासकार इरफान हबीब

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Published : Mar 14, 2022, 8:03 PM IST

इतिहासकार इरफान हबीब.
इतिहासकार इरफान हबीब.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित संगोष्ठी में इतिहासकार प्रोफेसर इरफ़ान हबीब ने ‘अकबर से दारा शिकोह तक अंतर-धार्मिक संचार का महान चरण: प्रमुख ग्रंथों का एक सर्वेक्षण’ विषय पर मुगल काल के दौरान धार्मिक संबंधों का एक विस्तृत परिदृश्य प्रस्तुत किया.

अलीगढ़: प्रसिद्ध इतिहासकार और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इरफान हबीब ने ‘अकबर से दारा शिकोह तक अंतर-धार्मिक संचार का महान चरण: प्रमुख ग्रंथों का एक सर्वेक्षण’ विषय पर मुगल काल के दौरान धार्मिक संबंधों का एक विस्तृत परिदृश्य प्रस्तुत किया. वह सोमवार को इतिहास विभाग, एएमयू के उन्नत अध्ययन केंद्र द्वारा आयोजित ‘मुगल काल में इंटर-फेथ अध्ययनः अकबर से दारा शिकोह तक’ विषय पर तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह को संबोधित कर रहे थे. इरफान हबीब ने कहा कि मुगल सम्राट अकबर का युग बड़े स्तर पर समन्वयवाद का युग था. जिसमें से कुछ समानताएं बाद के युगों में पायी जाती हैं और उन्होंने नियमित राज्य-प्रायोजित अंतर-धार्मिक सार्वजनिक संवाद को पूरा समर्थन दिया, जो हिंदू, मुस्लिम, यहूदी, पारसी, जैन और यहां तक कि नास्तिकों समेत विभिन्न धार्मिक स्पेक्ट्रम के विद्वानों को एक मंच पर लाने में सक्षम साबित हुआ.

उन्होंने कहा कि एक मान्यता के अनुसार अकबर ने घोषणा की थी कि उनका एकमात्र उद्देश्य किसी भी धर्म के तथ्यों को उजागर करना था, ‘चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम’ और यह हिंदू ब्राह्मणों के साथ इन संवादों और व्यक्तिगत बातचीत का बड़ा कारण था. अकबर ने हिंदू विचार के विभिन्न स्कूल का गहरा ज्ञान प्राप्त किया. प्रोफेसर हबीब ने कहा कि अकबर के काल में अंतर-धार्मिक इंटरऐक्शन उनके मकतबखाना (लेखन ब्यूरो) में उनके शासन के दौरान हुई साहित्यिक और अनुवाद गतिविधि की आश्चर्यजनक मात्रा से स्पष्ट है. मुगल सम्राट की संस्कृत साहित्यकारों के साथ पहली बातचीत उसके शासनकाल के प्रारंभ में हुई थी.

उन्होंने कहा कि मुगल दरबार में हिंदू ब्राह्मण और जैन नियमित रूप से उपस्थित रहे. सबसे पुराने हिंदू धर्मग्रंथों में से एक, अथर्ववेद, जिसका फारसी में अनुवाद किया गया था, को प्राप्त करने का उनका प्रयास विशेष रूप से प्रासंगिक है जिसने अनुवाद के प्रयास को गति दी, जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही दो हिंदू महाकाव्यों महाभारत और रामायण के फारसी संस्करण सामने आये. प्रोफेसर हबीब ने बताया कि यूरोप को उपनिषदों के बारे में फारसी अनुवादों से विद्वान और मुगल राजकुमार, दारा शिकोह द्वारा पता चला था.

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प्रो. हबीब ने कहा कि दारा शिकोह ने उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया, ताकि उन्हें भारत और अन्य जगहों के धार्मिक विद्वानों द्वारा पढ़ा जा सके. उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में मजमा-उल-बहरीन शामिल है जो सूफी और वेदांतिक विचारों के बीच समानता के रहस्योद्घाटन को समर्पित थी. मुगल काल के दौरान महाभारत और रामायण के फारसी अनुवाद अरबों के माध्यम से अंग्रेजों को दिए गए, जिन्होंने उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद करना आसान पाया. यहां तक कि सम्राट जहांगीर ने भी वेद को सूफीवाद का विज्ञान माना.

संगोष्ठी में एएमयू के कुलपति, प्रोफेसर तारिक मंसूर ने कहा कि “मुगल सम्राट अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता और अंतरधार्मिक अध्ययन की नीति को प्रतिपादित किया, जो अपने समय की दुनिया में अद्वितीय थी. उनके प्रपौत्र, प्रिंस दारा शिकोह ने पचास से अधिक उपनिषदों को फारसी में प्रस्तुत करके इन अद्भुत दार्शनिक ग्रंथों को गैर-भारतीय ज्ञान जगत में पेश किया. यहां तक कि ये ग्रन्थ उनके फारसी संस्करण के लैटिन अनुवाद के माध्यम से यूरोप तक पहुंचे.

AMU शिक्षक ईरान सरकार के प्रतिष्ठित सादी पुरस्कार से सम्मानित
वहीं, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के फ़ारसी विभाग के पूर्व अध्यक्ष तथा फारसी अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक, प्रोफेसर एसएम असद अली खुर्शीद को ईरान सरकार के 8 वीं सादी समारोह में प्रतिष्ठित सादी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. इस पुरस्कार समारोह का आयोजन ईरान कल्चरल हाउस, नई दिल्ली में आयोजित किया गया. भारत में ईरान के राजदूत अली चेगानी ने प्रोफेसर असद को प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया. प्रोफेसर असद को फारसी भाषा और साहित्य में उनके महत्वपूर्ण अकादमिक योगदान के लिए पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. प्रोफेसर एसएम असद अली खुर्शीद 21 पुस्तकों के अलावा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक पत्रिकाओं में 50 से अधिक शोध पत्रों का योगदान दिया है. उन्हें 2009 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा यंग स्कॉलर्स प्रेसिडेंशियल अवार्ड, महर्षि बादरायण व्यास सम्मान से भी सम्मानित किया गया था.

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