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दड़ा महोत्सव पर कोरोना संकट: 80 Kg की 'फुटबाॅल' से खेलते हैं ग्रामीण, जीत पर होती है ये भविष्यवाणी

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Published : Jan 14, 2021, 2:55 PM IST

जिले के आंवा कस्बे में मकर संक्रांति पर दड़े महोत्सव का अनोखा खेल खेला जाता है. इस बार कोरोना के चलते ऐसा पहली बार होगा, जब दड़ा महोत्सव का आयोजन नहीं किया जाएगा. इस खेल के माध्यम से क्षेत्र में अकाल होगा या सुकाल, इसका भी फैसला होता है.

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आंवा गांव का अनूठा खेल...

टोंक. जिले के आंवा कस्बे में मकर संक्रांति पर दड़े महोत्सव का अनोखा खेल खेला जाता है, लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते वर्षों पुरानी ये परंपरा टूटने जा रही है. इस बार कोरोना के चलते ऐसा पहली बार होगा, जब दड़ा महोत्सव का आयोजन नहीं किया जाएगा. इस खेल के माध्यम से क्षेत्र में अकाल होगा या सुकाल, इसका भी फैसला होता है.

इस बार कोरोना महामारी के चलते वर्षों पुरानी परंपरा दड़ा महोत्सव नहीं होगा...

फुटबॉल की तरह गेम...

इस खेल को आधुनिक फुटबॉल का जनक भी कहा जा सकता है. क्योंकि, इसे फुटबॉल की तरह खेला जाता है. जिले में आंवा कस्बे में वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है. हर वर्ष 14 जनवरी को दड़ा महोत्सव मनाया जाता है. इस खेल मे एक 75-80 किलो की गेंद बनायी जाती है. यह एक फुटबॉल नुमा बोरीयो के टाट से बना दड़ा होता है, जिसे पानी में भिगो कर वजनी किया जाता है, जिसे दड़ा कहा जाता है. इस खेल को हजारों की संख्या में कोई भी खेल सकता है. लेकिन, इस खेल को खेलने के लिए हिम्मत होनी चाहिए.

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80 KG का तैयार दड़ा

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अकाल या सुकाल का चलता है पता...

इस खेल को करीब 4000 से 5000 व्यक्ति एक साथ खेलते हैं. इस खेल में 2 टीमें होती हैं, जिसमें 12 गांव अलग-अलग 2 टीम में बंटते हैं. फिर खेल की शुरुआत होती है. आंवा की बनावट ऐसी है, जिसमें 2 दरवाजे है. एक अखनेश्वर तो दूसरा दूनी दरवाजा. एक टीम दूनी दरवाजे की ओर, तो दूसरी टीम अखनेश्वर दरवाजे की ओर होती है. इस खेल को देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ एकत्रित होती है.

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दड़ा महोत्सव खेलते ग्रामीण...

खेल को लोग इतने दमखम के साथ खेलते हैं कि अंत में उनके कपडे़-जूतों का ठिकाना नहीं होता. खेल के अंत में दड़ा जिस दरवाजे की ओर जाता है, उसका ये संकेत होता है की इस वर्ष में अकाल होगा या सुकाल. दड़ा खेलने के लिए न कोई रेफरी होता है, ना कोई नियम होते हैं. बस बाॅल यानी दड़े को अपने-अपने दरवाजे की ओर खिसकाना होता है. एक टीम दूनी दरवाजे की ओर दडे़ को जैसे-तैसे खींचती है, तो दूसरी टीम अखनेश्वर दरवाजे की ओर खींचती है. इसी जोर आजमाइश में यह खेल खेला जाता है.

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राज्य स्तर पर पहचान दिलाने का प्रयास...

आंवा निवासी अनिल स्वर्णकार ने बताया कि ये खेल रियासत काल में राजा साहब सरदार सिंह के समय से शुरू हुआ था. इस खेल के माध्यम से ही पहले सेना में जवानों की भर्ती की जाती थी. जो व्यक्ति जितना समय खेल खेलता, उसके माध्यम से उसकी सेना में नियुक्ति की जाती थी. ये खेल बड़ा रोमांचक और आनंददायी होता है. आंवा समेत कई गांवों के ग्रामीणों इस खेल को राज्य स्तर पर एक पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत है. ग्रामीण इस खेल को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड में शामिल करने की हर बार सरकार से मांग करते हैं.

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