जयपुर. राजस्थान में गहलोत सरकार की ओर से लगातार सत्र आहूत होने के बाद सत्रावसान नहीं करने और देरी से सत्रावसान कर सीधे उसी विधानसभा सत्र को आहूत करने को राज्यपाल कलराज मिश्र ने लोकतंत्र के लिए घातक बताया है.
राज्यपाल कलराज मिश्र ने गुरुवार को पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में बोलते हुए गहलोत सरकार पर बिना नाम लिए कटाक्ष करते हुए कहा कि विधानसभा का सत्र राज्य सरकार की अनुशंसा पर आहूत करने की शक्ति राज्यपाल के पास होती है. सामान्यतः विधानसभा का सत्र वर्ष में तीन बार बजट, मानसून और शीतकालीन सत्र के तौर पर बुलाए जाते हैं. किसी विशेष कारण से भी कभी सत्र का आह्वान किया जा सकता है, लेकिन मैंने इधर (राजस्थान) यह महसूस किया है कि सत्र आहूत करने के बाद सत्रावसान नहीं किया जाता है. सत्रावसान नहीं कर सीधे सत्र बुलाने की जो परिपाटी बन रही है, वह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए घातक है.
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मिश्र ने कहा कि इससे विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन होता है और सदन का जब सत्रावसान नहीं किया जाने से एक ही सत्र की कई बैठकें चलती रहती हैं, जिससे विधायकों को निर्धारित संख्या के प्रश्न पूछने के अवसर नहीं मिलते और संवैधानिक प्रक्रिया पूरी नहीं होती. राज्यपाल ने कहा कि विधानसभा का विधिवत सत्रावसान हो और नया सत्र आहूत हो, इस पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है.
इसके साथ ही राज्यपाल ने कहा कि विधानसभा की संख्या लगातार कम होती जा रही है, जो चिंता का विषय है. ऐसे में इसके चलते समाज के वंचित और कमजोर लोगों की बात उठाने का पर्याप्त समय नहीं मिलता और विधानसभा में जनहित से जुड़े मुद्दे उपेक्षित रह जाते हैं. बैठक अधिक होगी तभी इस पवित्र सदन की सार्थकता बनी रहेगी. इसमें राज्य सरकार की भूमिका भी अधिक रहनी चाहिए.
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बिल अटकाने के आरोपों का दिया जवाब: राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधेयक राजभवन में अटकने के आरोपों का भी आज पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में जवाब दिया. मिश्र ने कहा कि जब तक राज्यपाल अपनी स्वीकृति नहीं दे, तब तक संसद या विधानसभा में कोई भी पारित विधेयक अधिनियम नहीं बन सकता है. लेकिन राज्यपाल पर यह आरोप लगते हैं कि राज्यपाल बिल पर अपनी स्वीकृति नहीं दे रहे और जानबूझकर विधेयक अटका रहे हैं या उसे पारित करने में देरी कर रहे हैं.
राज्यपाल ने कहा कि इस संबंध में समझने की जरूरत है कि जो विधेयक राज्यपाल के पास भेजा जाए, उसे पूरी तरह से राज्यपाल को देखना होता है. उसके जनता पर होने वाले असर और वैधानिक प्रक्रियाओं के बारे में भी सुचिता से विचार करना होता है. जब तक कि जनहित में वैधानिक रूप में विधेयक पूरी तरह से संपूर्ण नहीं पाया जाता है, तब तक उसे पारित करने का कोई औचित्य नहीं है.
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इसलिए मेरा मानना है कि सदन में जब विधेयक पारित किया जाए, तो बहुमत प्रमुख आधार नहीं रहे. प्रमुख आधार स्वस्थ बहस और विधेयक का प्रमुख आधार जनहित से जुड़ा होना चाहिए. राज्यपाल व्यक्ति नहीं संवैधानिक संस्था है और जब उसे जब संवैधानिक आधार पर संतुष्टि होती है कि विधेयक पूर्ण रूप से तैयार है, तभी वह उसे स्वीकृति प्रदान करता है. ऐसा नहीं होता है तो वह संशोधन के साथ फिर से भेजने को कह सकता है. यही संवैधानिक व्यवस्था है. इसे समझने की आवश्यकता है.