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स्पेशल: 'सिर साटे रूंख रहे, तो भी सस्तौ जाण'...363 लोगों की याद में नहीं भरा खेजड़ली मेला

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Published : Aug 28, 2020, 4:45 PM IST

'सिर साटे रूंख रहे, तो भी सस्तौ जाण' अर्थात पेड़ बचाने के लिए यदि शीश भी कट जाता है तो यह सौदा सस्ता है. जोधपुर शहर से 28 किलोमीटर दूर खेजड़ली वो धरती है, जहां 15वीं सदी में विश्नोई समाज प्रवर्तक गुरु जम्भेश्वर के 29 नियमों की सदाचार प्रेरणा से 363 महिला-पुरुषों ने पर्यावरण संरक्षण को अपना धर्म मानते हुए साल 1730 में अपने प्राणों का बलिदान दिया था. उन्हीं की याद में ये मेला लगता है, लेकिन इस बार मेले पर कोरोना का 'ग्रहण' है. पढ़ें पूरी खबर...

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खेजड़ली मेले पर कोरोना का असर

जोधपुर. पेड़ों की कटाई रोकने के लिए खुद को बलिदान करने की अनूठी मिसाल बनी अमृता देवी विश्नोई सहित 363 वृक्ष शहीदों की याद में शुक्रवार को खेजड़ली में मेला नहीं भरा गया. कोरोना के चलते यह मेला औपचारिकता से ही भरा था, क्योंकि विश्नोई समाज में भीड़ जुटने के लिए पहले से ही मना ही कर दी थी. सिर्फ इस मेले के दिन होने वाले अनुष्ठान ही किए गए.

खेजड़ली मेले पर कोरोना का असर

बता दें कि हर साल इस मेले में एक बड़ी धर्मसभा का आयोजन होता है, जिसमें विश्नोई समाज के साथ-साथ क्षेत्र के सभी राजनीतिक लोग भी भाग लेते हैं और अपनी-अपनी बात कहते हैं. ऐसा भी माना जाता है कि चुनावी साल में जब यह मेला होता है तो यहां से राजनीतिक संदेश भी जाता है, लेकिन इस बार कोरोना के चलते समाज के लोगों ने मेला समिति की अपील पर खेजड़ली नहीं आए.

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'सिर साटे रूंख रहे, तो भी सस्तौ जाण'

इस बार नहीं भरेगा खेजड़ली मेला...

पेड़ों की रक्षार्थ प्राणों का परित्याग करने वाले 363 लोगों की याद में शुक्रवार को खेजड़ली में होने वाला पर्यावरण प्रेमियों का मेला कोरोना महामारी के कारण नहीं होगा. मंदिर परिसर में भी मेलार्थियों का प्रवेश पूर्ण रूप से निषेध है. उल्लेखनीय है पेड़ों को बचाने के लिए जोधपुर शहर से 28 किलोमीटर दूर खेजड़ली में 290 साल पहले आज ही के दिन अमृता देवी के नेतृत्व में विक्रम संवत् 1787 को भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष की दशमी को 363 लोगों ने प्राणोत्सर्ग किया था.

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विश्नोई समाज का कुंभ...

खेजड़ली मेला मारवाड़ में विश्नोई समाज का एक तरह से कुंभ है. समाज के लोग यहां जुटते हैं और हर साल अपने-अपने क्षेत्र में पर्यावरण व जीव रक्षा का संकल्प दोहराते हैं. 21 सितंबर, साल 1730 भाद्रपद शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1787 के दिन विश्व इतिहास में अनूठी घटना के लिए याद किए जाने पर विश्नोई समुदाय बलिदान दिवस पर शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करता है. साल 1978 से यहां विधिवत रूप से मेले की शुरुआत हुई. 43 साल में पहली बार यह परिसर सूना रहा.

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क्या थी घटना?

जोधपुर के एक छोटे से गांव खेजड़ली में पेड़ काटने का आदेश दिया गया, लेकिन अमृता देवी विश्नोई ने इसका विरोध किया और कहा कि 'सिर साठे रूख रहे तो भी सस्तौ जाण' यानी कि सिर कटने पर अगर पेड़ बचता है तो इसे सस्ता समझें. इसके साथ ही अमृता देवी गुरु जम्भेश्वर की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गई और उनकी तीन बेटियां भी पेड़ से लिपटकर अपना बलिदान दे दिया. फिलहाल, यह सिलसिला रूका नहीं, आसपास के 84 गांवों के लोग आ गए और उन लोगों ने एकमत से तय कर लिया कि एक पेड़ से एक विश्नोई लिपटकर अपने प्राणों की आहुति देगा.

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इस बार नहीं भरेगा खेजड़ली मेला

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बता दें कि सबसे पहले बुजुर्गों ने अपने प्राणों की आहुति दी. तब तत्कालीन शासन के मंत्री गिरधारी दास भंडारी ने विश्नोई समाज के लोगों पर ताना मारा कि ये बुड्ढे लोगों की बलि दे रहे हैं. उसके बाद तो ऐसा जलजला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे, स्त्री और पुरुष अपने प्राणों की बलि देने की होड़ मच गई. कुल 363 विश्नोई समाज के लोगों में 71 महिलाएं और 292 पुरुषों ने पेड़ों की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दे डाली. खेजड़ली की धरती ने पेड़ों की रक्षा के लिए इस प्रकार से बलिदान दिया. उसके बाद से ही पेडों की कटाई थम गई.

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