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आधुनिक चकाचौंध में खो रही मिट्टी के दीये बनाने की कला, परंपरा जिंदा रखने के लिए गांवों में अब भी काम कर रहे कुम्हार

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Published : Nov 3, 2021, 10:55 AM IST

दिवाली की शुरुआत में मिट्टी की के साथ की जाती है. इसे दीपों का त्योहार भी कहा जाता है. कुछ वर्षों से दीपों के इस त्योहार पर लोगों कों दीपों के बदले चाइनिज लाइटों का उपयोग करना शुरु कर दी है, लेकिन कुम्हार आज भी इस परंपरा को बचाने में लगे हैं. पढें खास खबर...

मिट्टी के दीये , कुम्हार मिट्टी के दीये
मिट्टी के दीये

जयपुर. भगवान राम के वनवास से लौटने के बाद अयोध्या में लोगों ने खुशियां मनाई थी और मिट्टी के दीपक जला कर अयोध्या को जगमग कर दिया था. तब से लेकर आज तक दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा रही है. कुम्हार सालों से मिट्टी के दीपक बनाते आ रहे हैं और यही उनकी रोजी-रोटी का भी जरिया है, लेकिन आज आधुनिक चकाचौंध में कुम्हार की यह परंपरा मिट्टी में मिलती जा रही है. लोग आधुनिक चकाचौंध में पड़कर मिट्टी के दीपक को भूलते जा रहे हैं और इसके स्थान पर चाइनीज लाइट का ज्यादा उपयोग कर रहे हैं.

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जयपुर जिले में मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों की आज माली हालत खराब होती जा रही है. दीये तले अंधेरे की कहावत उन पर सटीक बैठती है. जो कुम्हार दिए जलाकर अपनी रोजी-रोटी चलाता है और दूसरों के घर को रोशन करता है. वहीं कुम्हार आज आर्थिक संकट से जूझ रहा है. हालांकि पिछले सालों के मुकाबले लोगों ने चायनीज लाइटों का उपयोग कम किया है, लेकिन यह प्रयास नाकाफी है. आज भी लोग कुम्हार से मिट्टी के दीपक खरीदने की बजाय लाइटों का उपयोग कर रहे है, जबकि हमारी सनातन परंपरा में मिट्टी के दीपक जला कर ही दीपावली का त्योहार मनाने की परंपरा रही है.

मिट्टी के दीये

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मिट्टी का मिलना भी मुश्किल

मिट्टी के दीपक बनाने के लिए भी कुम्हार को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. पहले हर जगह चिकनी मिट्टी उपलब्ध होता हो जाती थी लेकिन आज जैसे जैसे आबादी क्षेत्र बढ़ते जा रहे है. वैसे-वैसे मिट्टी का मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है. कई बार कुम्हार को मिट्टी के भी मोल चुकाने पड़ते हैं और अपनी रोजी-रोटी चलानी पड़ती है. जितनी उसकी लागत होती है उसे उतना भी नसीब नहीं हो पा रहा. इसके कारण उनकी भावी पीढ़ी यह विरासत छोड़कर अन्य काम धंधों लग गए हैं और धीरे-धीरे कुम्हारों की यह कला अपना अस्तित्व खोती जा रही है.

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कुम्हारों की हालत और भी ज्यादा खराब

ग्रामीण क्षेत्रों में तो दीये बनाने वाले कुम्हारों की हालत और भी ज्यादा खराब है. गांवों में कुम्हारों के जजमान तय होते थे और कुम्हार मिट्टी के दीपक लेकर जजमान के घर जाते थे और बदले में उन्हें अनाज और अन्य सामान मिल जाता था जिससे उनकी दीपावली अच्छी तरह मनती थी. आज अनाज भी महंगा होता जा रहा है और जजमान पहले जितना अनाज भी कुम्हार को नहीं देते है. इससे उन्हें आर्थिक संकट से गुजरना पड़ रहा है. जितनी लागत मिट्टी के दीपक बनाने में पड़ती है उतना इन अनाज से नहीं मिल पा रही है. गांवों में कुम्हार केवल परंपरागत कला को जिंदा रखने के लिए ही यह काम कर रहे हैं.

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दीपक के बदले अनाज लेने की परंपरा

कुम्हार गोपाल ने बताया कि मिट्टी के दीपक के बदले अनाज लेने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है. आजकल लोग कम अनाज के बदले ज्यादा दीपक मांगने लगते हैं जिससे उन्हें नुकसान होता है. गोपाल ने कोई दूसरा काम नहीं सीखा, इसलिए वह दूसरा काम भी नहीं कर पा रहा है. यही काम कर वह अपने परिवार की रोजी-रोटी चलाता है. उसने बताया कि लोग मेरे यहां से दीपक लेकर जाते हैं और खुश होते हैं लेकिन बदले में कम दाम मिलने पर मुझे हताशा होती है.

जयपुर जिले में कुम्हारों को प्रोत्साहित करने के लिए जिला प्रशासन ने भी एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था। जिला कलेक्टर अंतर सिंह नेहरा ने कुछ दिनों पहले आदेश जारी किया जिसमें कुम्हारों को प्रोत्साहित करने का काम किया गया। कलेक्टर ने आदेश निकाला कि बाजारों में मिट्टी के दीपक बेचने के लिए आने वाले लोगों को किसी भी तरह की कोई परेशानी ना हो इसका विशेष तौर पर ध्यान रखा जाए.

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