बीकानेर. छोटी काशी के नाम से देश और दुनिया में विख्यात बीकानेर अपने भुजिया और रसगुल्ले की वजह से तो जाना जाता ही है, साथ ही हजार हवेलियों के शहर के रूप में भी इस शहर को पहचाना जाता है. बीकानेर शहर (Bikaner Foundation Day) अपनी परंपराओं के निर्वहन के लिए खास तौर से पहचान रखता है. शहर की परंपरा को यहां के लोग शिद्दत से सैकड़ों सालों से निभाते आ रहे हैं और ऐसी ही एक परंपरा बीकानेर की स्थापना से भी जुड़ी हुई है.
उड़ाया जाता है चंदा: अक्षय द्वितीया को बीकानेर शहर की स्थापना (Establishment of Bikaner city on Akshaya Dwitiya) हुई थी और उस वक्त शहर की सीमाओं के सीमांकन के साथ ही अन्य राज्यों में संदेश देने के लिए राव बीका ने चंदा उड़ाया था. अक्षय द्वितीया और अक्षय तृतीया के दिन बीकानेर में जमकर पतंगबाजी होती है और यह पतंगबाजी भी इसी चंदा उड़ाने की परम्परा से जुड़ी हुई है.
बता दें, संवत 1545 में जब जोधपुर का राजपाट छोड़कर राव बीका राजपुताना के उस हिस्से पर पहुंच गए थे, जहां जीवन बहुत विकट था. चारों ओर रेत का समन्दर था, न पीने का पानी था और न जीने के अन्य साधन. लेकिन राव बीका ने नया शहर बसाने के लिए देशनोक से होते हुए आखिर वहां पहुंच गए, जहां उन्होंने बीकानेर की स्थापना कर दी. आज 535 साल बाद राव बीका का शहर राजस्थान के प्रमुख शहरों में शामिल है, जिसकी ख्याति यहां के बाशिन्दों ने देश दुनिया तक पहुंचा दी. अक्षय द्वितीया पर बीकानेर हर साल की तरह आज भी पतंगबाजी कर रहा है और इस बार शहर खुले में अपना जन्मदिन मना रहा है.
क्या है चंदा और क्यों उड़ाया जाता है: दरअसल कागज की पन्नी बांस से बंधा 3 फुट चौड़ा और 3 फुट लम्बा पतंगनुमा आकृति के उड़ने वाली वस्तु को चंदा कहा जाता है. जिस समय राव बीका बीकानेर शहर की स्थापना की थी और बीकाजी टेकरी से इस चंदे को उड़ाया था उस वक्त से हर साल यह परंपरा बन गई. अब बदलते समय में बीकानेर में इस दिन पतंगबाजी होती है, लेकिन आज भी लोग परंपरा के निर्वहन के नाम पर बाकायदा उसी तर्ज पर चंदा बनाते हैं और उड़ाते भी हैं.
प्रशासन भी रहता है इस परंपरा में शामिल: हर साल बीकानेर में चंदा उड़ाने की परंपरा में जिला प्रशासन के अधिकारी भी शामिल होते हैं. बीकानेर में पिछले 25 सालों से चंदा बना रहे किशन पुरोहित कहते हैं कि यह हमारी परंपरा से जुड़ा हुआ है. अब बदलते समय में इस चंदे से हम सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष और जागरूकता के संदेश देने का काम करते हैं. बता दें, अक्षय द्वितीया पर देशभर में सिर्फ बीकानेर में ही पतंगबाजी होती है. तापमान के तीखे तेवर के बाद भी हर कोई छत पर चढ़ा होता है. शहर में सुबह से जूनागढ़ के पास सादगी से भरा आयोजन होता है तो गढ़ के अंदर चंदा उड़ाने की रस्म अदायगी होती है. चंदे पर बीकानेर रियासत के चिन्ह होते हैं और मांजे के बजाय रस्सी से इन चंदों को उड़ाया जाता है. माना जाता है कि चंदा जितना ऊंचा जाता है, शहर का गौरव भी उतना ही बढ़ता है.
535 साल का प्रेम और सद्भावनाः बीकानरे की स्थापना के 535 साल बाद भी मेरे शहर के लोग बड़े प्रेम प्यार से रहते हैं और सभी धर्मों का आपस में गहरा रिश्ता है. यही कारण है कि कभी भी यहां के किसी भी धर्म के व्यक्ति की दूसरे धर्म के किसी भी व्यक्ति से कोई विवाद नहीं हुआ. बीकानेर के 535 साल की इस यात्रा में यह भी एक बड़ी बात है. तभी तो बीकानेर इतिहास की गाथा लिखने वाले लोग कहते हैं कि
"कण-कण में खुद खुदा बिराजे...
हर हिवडे में राम रे...
धोरा री इण धरती रो...
शहर बीकाणो नाम रे"..
युवा बोले आने वाली पीढ़ी भी जाने इस परंपरा को: अंतर्राष्ट्रीय उत्सव में मिस्टर बीकाणा का खिताब हासिल कर चुके युवा अशोक बोहरा कहते हैं कि निश्चित रूप से बीकानेर शहर अपनी पारंपरिक रिवाजों को शिद्दत से बनाने वाला शहर है. लेकिन बदलते समय में युवा मोबाइल से बाहर नहीं निकल पा रहा है और इन परंपराओं को नहीं जान पा रहा है. ऐसे में वह अपने इतिहास से परिचित नहीं हो पा रहा है और इस तरह की गतिविधियों से वह अपने इतिहास से रूबरू होगा और परंपराओं को समझेगा. हमारी स्थापना दिवस और चंदा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इस बात को हमें ध्यान में रखना है. आने वाली पीढ़ी भी इस चीज को समझे ताकि परंपरा आगे भी निर्बाध चलती रहे.
दो दिन तक होती जमकर पतंगबाजी: वैसे तो बीकानेर का स्थापना दिवस अक्षय द्वितीया को है लेकिन बीकानेर में अक्षय द्वितीया के मुकाबले अक्षय तृतीया को ज्यादा पतंगबाजी होती है. कुल मिलाकर 2 दिन बीकानेर शहर पूरी तरह से छतों पर नजर आता है और आसमान रंग-बिरंगी पतंगों से अटा हुआ होता है.