महिला मतदाताओं की बढ़ती भूमिका, पांच राज्यों में कितने निर्णायक ?

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Published : Mar 28, 2021, 7:49 PM IST

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कॉन्सेप्ट फोटो ()

पिछले कुछ सालों से महिला मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ती रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला और पुरुष मतदाता करीब-करीब बराबर रहे हैं. बिहार और तमिलनाडु जैसे राज्यों में महिलाओं ने अपनी भागीदारी से जिसे चाहा, उसे सरकार में बिठा दिया. इस पृष्ठभूमि में यह देखना दिलचस्प होगा कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां का परिणाम क्या होगा.

हैदराबाद : पिछले कई सालों में महिला मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ी है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 67.2 फीसदी पुरुष ने 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट डाला था, जबकि महिलाओं की भागीदारी 67 फीसदी थी. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव और तमिलनाडु के 2016 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने निर्णायक भूमिका निभाई थी. बिहार में नीतीश कुमार और तमिलनाडु में जयललिता के पक्ष में स्थिति बदल गई. लोकसभा चुनाव में दो-तिहाई राज्यों में पुरुष मतदाताओं से अधिक महिला मतदाताओं ने भागीदारी की थी.

2004 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं के मुकाबले पुरुष मतदाता 8.2 फीसदी अधिक थे. 2014 आते-आते यह अंतर मात्र 1.8 फीसदी का रह गया. 2019 में यह करीब-करीब बराबर हो गया. शिक्षा का बढ़ता प्रसार और वित्तीय स्वतंत्रता की वजह से महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता काफी बढ़ी. चुनाव के दौरान महिला स्वंय सहायता समूह की भूमिका और पोलिंग बूथ पर महिलाओं के लिए बेहतर व्यवस्थाओं की बदौलत उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को नए पंख मिलने लगे.

इस पृष्ठभूमि में पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों पर नजर दौड़ाइए. पांच में से सिर्फ एक राज्य में महिला मुख्यमंत्री हैं. पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी. 2019 को लोकसभा चुनाव में केरल और प. बंगाल में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले अधिक थी. अब सवाल ये है कि क्या उसी पैटर्न पर मतदान हुआ, तो परिणाम वही रहेंगे, या नतीजे बदल सकते हैं. बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ में चाहे जैसा भी माहौल हो, महिला मतदाताओं ने उनके पक्ष में मत किया. खासकर वैसी महिलाएं जो सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाती रहीं हैं. नीतीश को इसका फायदा भी मिला. नीतीश ने 2015 में शराबबंदी को लागू किया था. बिहार की तरह तमिलनाडु और प. बंगाल में भी कई सामाजिक योजनाएं लागू की गईं हैं. जाहिर है, इसका क्या असर होगा, इसके लिए इंतजार करना होगा.

मतदाताओं की भागीदारी के लिहाज से देखें तो अब महिला और पुरुष बराबरी पर आ गए हैं. लेकिन राजनीति में उनकी भागीदारी बहुत कम है. ग्राम पंचायत में या लोकसभा में. महिलाओं की भागीदारी बहुत अधिक नहीं है. राजनीतिक क्रियाविधियों में भी महिलाओं को बहुत अधिक जिम्मेदारी नहीं दी जा रही है. प्रचार के दौरान भी उन्हें सीमित जवाबदेही मिलती हुई देखा जा सकता है. कुछ उपलब्धियों को छोड़ दें, तो राजनीति महिलाओं के लिए अब भी कठिन क्षेत्र है. पितृसत्तात्मक सोच सबसे बड़ी बाधा है. परिवार और घर की जिम्मेदारी निभाना भी बहुत बड़ा फैक्टर है. कई बार तो देखा गया है कि पंचायत और स्थानीय स्तर पर जीतने वाली महिलाओं की जिम्मेदारियां उनके घर के पुरुष सदस्य निभाते हैं. हकीकत ये है कि गांव का नेतृत्व महिलाएं भी उनती ही दक्षता से कर सकती हैं. भारत में शीर्ष नेतृत्व पर महिला (पीएम पद पर) काफी पहले ही बैठ चुकी हैं. श्रीलंका और बांग्लादेश का भी उदाहरण हमारे सामने है.

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ये सही है कि चुनाव परिणाम पर महिला मतदाताओं का असर साफ-साफ झलकता है, लेकिन लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व मात्र 14 फीसदी है. उनमें से आधी महिलाएं महज चार राज्यों से आती हैं. विधानसभाओं में उनकी भागीदारी नौ फीसदी है.

विश्व आर्थिक फोरम के एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के आधार पर भारत की रैंकिंग 153 देशों में 122वें स्थान पर है. विधानसभा और संसद के मुकाबले स्थानीय स्तर पर महिलाओं की प्रतिनिधित्व कुछ बेहतर जरूर है. इसका श्रेय संविधान के 73वें संशोधन को जाता है. जिसने स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित कर दिए. इसके ठीक उलट संसद और विधानसभा में महिलाएं मुख्य रूप से प्रभावशाली परिवारों से आती हैं. संसद में 42 फीसदी महिलाएं उच्च परिवार से हैं. अभी संसदीय स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. लेकिन प्रभावशाली परिवारों को फायदा मिलता है. पुरुष सदस्य किसी कारण से चुनाव नहीं लड़ते हैं, तो वे अपने परिवार से किसी महिला सदस्य को चुनाव लड़वा देते हैं. अगर आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई, तो पुरुषों को अपना संसदीय क्षेत्र बदलना होगा, इसलिए वे लगातार इस मुद्दे को भटका रहे हैं. इसमें रोड़े अटका रहे हैं.

न्यूजीलैंड, ताइवान और जर्मनी के राष्ट्र प्रमुख महिला हैं. कोविड संकट के दौरान इन महिलाओं ने अप्रत्याशित रूप से साहस दिखाकर पूरी दुनिया को राह दिखाई. अमेरिका में भी जिन राज्यों का नेतृत्व महिला गवर्नर के पास है, वहां पर कोरोना के खिलाफ बेहतर काम हुए. शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध को नियंत्रित करने में वे पुरुषों के मुकाबले अच्छा परिणाम देती रहीं हैं.

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संविधान में संशोधन करके आरक्षण तो दिया जा सकता है, लेकिन जब तक धार्मिक और सांस्कृति स्तर पर पैदा होने वाली बाधाएं दूर नहीं होती हैं, तब तक वास्तविक परिवर्तन मुश्किल है. महिला आरक्षण बिल 2008 से ही लंबित है. प्रस्ताव तो आधे राज्यों में महिलाओं को मुख्यमंत्री पद देने की भी है. असम, प.बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में अभी चुनाव हो रहे हैं. यह उपयुक्त समय है कि इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए.

जेंडर इक्वालिटी फोरम 29 मार्च से मैक्सिको सिटी में महिलाओं की बराबरी की भूमिका देने को लेकर कार्यक्रम का आयोजन कर रही है. कार्यक्रम 21 जून को पेरिस में खत्म होगा. बैठक में महिला नेतृत्व, महिलाओं के अधिकारों की सक्रियता और नारीवादी एकजुटता पर चर्चा होगी. इस संदर्भ में, भारतीय विधानसभा चुनावों के परिणामों में कोई संदेह नहीं है कि यह दुनिया का ध्यान आकर्षित करेगा.

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