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Gwalior Tansen Festival बेहद अनूठा है शास्त्रीय संगीत के महान गुरु तानसेन और उनकी याद में संगीत समारोह, गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल

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Published : Dec 19, 2022, 4:08 PM IST

Gwalior Tansen Festival
शास्त्रीय संगीत के महान गुरु तानसेन और उनकी याद में संगीत समारोह

ग्वालियर में सुरों के सरताज कहे जाने वाले तानसेन की याद में तानसेन समारोह (Gwalior Tansen Festival) का आगाज हो गया है. परंपरागत तरीके से शुरू हुए इस समारोह में सबसे पहले समधि स्थल पर हरिकथा और मिलाद का आयोजन किया गया. इसके बाद शाम को मशहूर बांसुरी वादक पं. नित्यानंद हल्दीकर को "तानसेन अलकरण" और मुंबई की सामवेद सोसाइटी को "राजा मानसिंह तोमर राष्ट्रीय सम्मान दिया जाएगा. गंगा-जमुनी तहजीब की परंपराओं से सराबोर ये समारोह बहुत अनूठा है, जो सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश (Gives message of communal harmony) भी देता है.

शास्त्रीय संगीत के महान गुरु तानसेन और उनकी याद में संगीत समारोह

ग्वालियर। ग्वालियर में विश्व संगीत तानसेन की महफिल सज चुकी है. हर कोई बस तानसेन की समधि पर आकर उनके रंग में रंगने की कोशिश में लग गया है. चाहे हिंदू हो या मुस्लिम. सब अपने तरीके से उन्हें श्रद्धांजलि देने की कोशिश में लग गए हैं. सबसे पहले ढोली बुआ महाराज के शिष्यों ने तानसेन की समाधि पर श्रद्धाजंलि दी तो वहीं मुस्लिम समाज की ओर से उनके लिए मिलाद शरीफ का आयोजन किया गया. तानसेन समारोह को लेकर दूर-दराज से लोगों के पहुंचने का सिलसिला भी जारी है. कुछ रसिक प्रेमी तो ऐसे भी हैं जो अपनी पैदाइश के बाद से ही तानसेन समारोह में देखने ओर सुनने आ रहे हैं. इस बार देश के कलाकारों के साथ कुछ तानसेन प्रेमी भी समारोह अपनी प्रस्तुति देंगे. जिसको लेकर रसिक उत्साहित हैं. उनके मुताबिक तानसेन समारोह में गंगा-जमुना तहजीब दिखाई देती है.

तानसेन समारोह का इस साल 98वां आयोजन : ग्वालियर में आयोजित होने वाले तानसेन समारोह का इस साल 98वां आयोजन हो रहा है. समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म समभाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएं हैं. महान संगीतज्ञ तानसेन उर्फ तन्ना मिश्र और उनके गुरु मोहम्मद गौस की समाधि के सामने शास्त्रीय संगीत की यह अनूठी महफ़िल है. जिसमें शिरकत करने का मौका मिलना ही कलाकार अपना अहोभाग्य समझते हैं. भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं. मुस्लिम समुदाय से बावस्ता देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं तो साम्प्रदायिक सद्भाव की सरिता बह उठती है.

97 साल से चली आ रही परंपराओं का पालन : यह गंगा- जमुनी संस्कृति वाला आयोजन सिंधिया रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में उर्स तानसेन के रूप में शुरू हुआ. इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था. तब ग्वालियर रियासत पर सिंधिया राज परिवार का राज था. उन्होंने इसे सालाना जलसे का रूप दिया. तब से अब तक बिना नागा उसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आ रहा है. अब यह समारोह विश्व संगीत समागम का रूप ले चुका है. साथ ही समारोह की पूर्व संध्या पर उपशास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम “गमक” का आयोजन भी होता है. इस साल भी 97 साल से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए तानसेन समारोह का आयोजन 19 से 23 दिसम्बर तक हो रहा है.

समारोह का प्रारंभ सदैव शहनाई वादन से : तानसेन समारोह शुरू होने से पहले शहनाई, हरिकथा और मीलाद से होती है. तानसेन समारोह का प्रारंभ सदैव ही शहनाई वादन से होता है. इसके बाद ढोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन. सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है. प्रसिद्ध संत मठ से जुड़े ढोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो. सभी ईश्वर तक ही पहुंचते हैं. उपनिषद् का भी मंत्र है "एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति''.

हर मूर्धन्य कला साधक ने लगाई हाजिरी : हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है. शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, सरोद वादक अमजद अली खाँ, संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं. वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था '"यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है'. एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके. उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गए. आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है. भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं.

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ग्वालियर में बच्चा रोता भी तो सुर और ताल में : संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में. इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभाएं संसार को दी हैं. संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं. लगभग 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गाँव की माटी में मकरंद पाण्डे के घर जन्मा '"तन्ना मिसर'" अपने गुरु स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में एक हीरे सा परिस्कार पाकर धन्य हो गया. तानसेन की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिये निवेदन करते थे. तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके. बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ है तो उनके गुरु स्वामी हरिदास कैसे होंगे. यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर बृंदावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी.

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