सागर। बुंदेलखंड की कला संस्कृति और परंपरा अपने आप में अनूठी है. ऐसी ही एक परंपरा के अनुसार जिले के रेहली विकासखंड के काछी पिपरिया में हर साल भाद्रपद की पूर्णिमा पर पुतरियों (कठपुतलियों) का मेला लगता है. गांव का पांडे परिवार कठपुतलियों के माध्यम से धार्मिक जागरण, सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के साथ नशामुक्ति और समाजिक कल्याण का संदेश देते हैं. कठपुतलियों के मेले को देखने के लिए दूर-दूर से लोग काछी पिपरिया पहुंचते हैं. ये मेला पिछले 200 साल से पांडे परिवार द्वारा लगातार आयोजित किया जाता आ रहा है.
कब हुई कठपुतलियों के मेले की शुरुआत: कठपुतलियों का मेला लगाने की शुरुआत 18 वीं सदी के शुरुआत में काछी पिपरिया गांव के पांडे परिवार के पूर्वज स्व. दुर्गा प्रसाद पांडे द्वारा की गई थी. उनके द्वारा कुछ पुतरियां (कठपुतली) बनाई गई थीं. जिन्हें स्थानीय और आसपास के गांव के लोगों ने खूब पसंद किया. ग्रामीण और अन्य लोगों की मांग पर मेले की शुरुआत की गई और बुंदेली में इसे पुतरियों का मेला कहा गया.
आज भी जारी है परंपरा: पं. दुर्गा प्रसाद पांडे के बाद उनके पुत्र बैजनाथ प्रसाद पांडे और रामनाथ पांडे ने इस परंपरा को जारी रखने का फैसला किया और आज भी कठपुतलियों के मेले की परम्परा जारी है. वर्तमान में स्वं दुर्गा प्रसाद पांडे की चौथी पीढ़ी अपने पूर्वजों की शुरू की गई परंपरा निभा रही है. स्व. पांडे के पौत्र जगदीश प्रसाद पांडे कठपुतलियों के मेले की झांकियां सजाने का काम करते हैं. जगदीश प्रसाद पांडे के पुत्र पवन, रामकृष्ण, रमाकांत और श्यामसुंदर पांडे परंपरा को जीवित रखने के लिए सहयोग करते हैं.
कठपुतलियों की झांकियों के जरिए अहम संदेश: कठपुतलियों के मेले की परंपरा निभा रहे जगदीश प्रसाद पांडे बताते हैं कि ये मेला करीब 205 वर्ष से लग रहा है. इन झांकियों के माध्यम से लोगों को धार्मिक सीख के अलावा नशामुक्ति व सामाजिक बुराईयां मिटाने का संदेश दिया जाता है. जगदीश प्रसाद पांडे के पुत्र पवन पांडे बताते है कि कठपुतलियों के अलावा हमारे पूर्वजों ने दीवारों पर चित्र बनाए और मूर्तियां भी बनाई. ये भी मेले में शामिल रहते हैं जो करीब 200 साल पुराने हैं. मेला देखने पहुंचे अशोक दुबे कहते हैं कि इस मेले के बारे में मैंने अपने बुजुर्गों से सुना था. मन में मेले को देखने की बड़ी इच्छा थी, आज मौका मिला तो देखने आ गया.
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