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'ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वालों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलेगा'

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Published : Nov 10, 2022, 1:37 PM IST

Updated : Nov 10, 2022, 7:45 PM IST

अगर दलित समुदाय का कोई व्यक्ति इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता है, तो क्या उसे अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है ? सुप्रीम कोर्ट में ऐसी ही एक याचिका लगाई गई है. इस पर केंद्र सरकार ने जवाब दाखिल किया है. सरकार ने साफ तौर पर इसका विरोध किया है. सरकार का कहना है कि ईसाई और इस्लाम धर्म में जाति व्यवस्था का कॉन्सेप्ट नहीं है, लिहाजा उन्हें अनुसूचित जाति का व्यक्ति नहीं मानना चाहिए.

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नई दिल्ली : केंद्र ने दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जातियों की सूची से बाहर किए जाने का बचाव करते हुए कहा है कि ऐतिहासिक आंकड़ों से पता चलता है कि उन्होंने कभी किसी पिछड़ेपन या उत्पीड़न का सामना नहीं किया. दलित ईसाई और दलित मुसलमानों के अनुसूचित जातियों के लाभों का दावा नहीं कर सकने का तर्क देते हुए सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे में कहा कि 1950 का संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश किसी भी असंवैधानिकता से ग्रस्त नहीं है.

हलफनामा गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) 'सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन' (सीपीआईएल) की एक याचिका के जवाब में दायर किया गया था, जिसमें दलित समुदायों के उन लोगों को आरक्षण और अन्य लाभ देने की मांग की गई थी जिन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म अपना लिया था.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग वाली याचिका की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि वे छुआछूत से पीड़ित नहीं थे. शीर्ष अदालत ने 30 अगस्त को केंद्र से इस मामले में दलित ईसाइयों और अन्य की राष्ट्रीय परिषद द्वारा दायर याचिकाओं पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था.

केंद्र सरकार ने एक लिखित जवाब में कहा, 'संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित था, जिसने स्पष्ट रूप से स्थापित किया कि ईसाई या इस्लामी समाज के सदस्यों को कभी भी इस तरह के पिछड़ेपन या उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ा.'

इसमें कहा गया है कि जिन कारणों से अनुसूचित जाति के लोग इस्लाम या ईसाई धर्म में धर्मातरण कर रहे हैं, उनमें से एक अस्पृश्यता की दमनकारी व्यवस्था से बाहर आना है, एक सामाजिक कलंक, जो इनमें से किसी भी धर्म में प्रचलित नहीं है.

केंद्र सरकार ने कहा कि अनुसूचित जाति की स्थिति की पहचान एक विशिष्ट सामाजिक कलंक और जुड़े पिछड़ेपन के आसपास केंद्रित है जो संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तहत मान्यता प्राप्त समुदायों तक सीमित है.

इसने तर्क दिया कि गंभीर अन्याय होगा और कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति समूहों के अधिकार प्रभावित होंगे, यदि सभी धर्मान्तरित लोगों को सामाजिक विकलांगता के पहलू की जांच किए बिना मनमाने ढंग से आरक्षण का लाभ दिया जाता है.

केंद्र सरकार ने अक्टूबर में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन ने अन्य धर्मो में परिवर्तित होने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के दावों की जांच करने के लिए कहा. सरकार ने बताया कि अनुसूचित जातियों ने कुछ जन्मजात सामाजिक-राजनीतिक अनिवार्यताओं के कारण 1956 में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के आह्वान पर स्वत: बौद्ध धर्म अपना लिया था. "इस तरह के धर्मातरित लोगों की मूल जाति/समुदाय स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जा सकता है. यह ईसाइयों और मुसलमानों के संबंध में नहीं कहा जा सकता है, जो अन्य कारकों के कारण धर्मातरित हो सकते हैं, क्योंकि इस तरह के धर्मातरण की प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है.'

केंद्र ने सभी धर्मो में दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के पक्ष में जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की 2007 की रिपोर्ट को भी त्रुटिपूर्ण करार दिया और बताया कि इसे बिना किसी क्षेत्र अध्ययन के तैयार (PTI/IANS)

Last Updated :Nov 10, 2022, 7:45 PM IST
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