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विश्व आदिवासी दिवस: झारखंड की सत्ता में रहकर भी धरती पुत्र के सपने हैं अधूरे, कहां रूके, कहां फंसे, कहां बढ़ना जरूरी

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Published : Aug 9, 2022, 5:04 AM IST

विश्व आदिवासी दिवस (World Tribal Day) के दिन आदिवासियों के उत्थान और उनके जीवन स्तर को बढ़ाने पर खूब चर्चा होती है. झारखंड में आदिवासी समुदाय (Tribal Community in Jharkhand) की स्थिति क्या है, उनका कितना विकास हुआ, कहां विकास रूका हुआ और किस क्षेत्र में अभी और काम करने की जरूरत है. जानते हैं इस रिपोर्ट में...

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रांची: 9 अगस्त यानी विश्व आदिवासी दिवस(World Tribal Day). इसे अंग्रेजी में International Day of the World Indigenous Peoples कहा जाता है. झारखंड के लिहाज से यह दिन बेहद खास है. जल, जंगल और जमीन के लिए लंबे संघर्ष के बाद 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर एक आदिवासी बहुल राज्य बना था. इसका फायदा यह हुआ कि रघुवर दास को छोड़कर पिछले 22 वर्षों में इस राज्य की कमान पांच आदिवासी नेताओं के हाथ में रही. बाबूलाल मरांडी एक बार, अर्जुन मुंडा तीन बार, शिबू सोरेन तीन बार और मधु कोड़ा एक बार छोटी-छोटी अवधि के लिए मुख्यमंत्री बने. इस समाज से हेमंत सोरेन पांचवें मुख्यमंत्री हैं. 2019 के चुनाव के बाद दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं. मंत्री बनने वालों की फेहरिस्त तो और भी लंबी है. लेकिन आश्चर्य है कि 28 एसटी विधानसभा सीटों के बावजूद आज भी इस राज्य के आदिवासी तंगहाली में दी जी रहे हैं. इस राज्य में 32 जनजातियां हैं. लेकिन संथाल और मुंडा की पैठ सबसे ज्यादा मजबूत है. करमा, सरहुल और सोहराय जैसे पर्व के दौरान इनकी कला और संस्कृति मनमोहक छंटा बिखेरती हैं. प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहना इनकी पहचान है. लेकिन विकास की दौड़ में आदिवासी समाज आज भी बहुत पीछे है.

जनसंख्या, शिक्षा और लिंगानुपात का हाल: सबसे ज्यादा चिंता वाली बात तो यह है कि झारखंड में आदिवासी समुदाय (Tribal Community in Jharkhand) की संख्या घट रही है. 1951 में अविभाजित बिहार में आदिवासियों की जनसंख्या (Population of Tribals) 36.02 फीसदी थी. लेकिन राज्य बनने के बाद 2011 में जनसंख्या 26.02 फीसदी हो गई. सबसे अच्छी बात यह है कि यह समाज शिक्षा की तरफ बढ़ रहा है. 1961 में साक्षरता दर 8.53 फीसदी थी जो अब बढ़कर करीब 58 फीसदी हो गई है. लेकिन बेटियों की शिक्षा दर अभी भी 50 फीसदी से कम है. विपरित हालात के बावजूद इस समाज ने कई स्कॉलर दिए. जयपाल सिंह मुंडा, रामदयाल मुंडा और कार्तिक उरांव जैसे राजनीतिक्ष और शिक्षाविद से पूरा देश वाकिफ है. अभावों के बावजूद इस समाज में लिंगभेद नहीं है. यहां महिलाओं की संख्या पुरूषों से ज्यादा है. लेकिन अंधविश्वास की मजबूत बेड़ी मासूमों की जान ले रही है.

समाज के बुद्धिजीवियों ने साझा किए विचार: विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर आदिवासी समाज की चर्चा हुई तो कुछ स्कॉलर ने अपनी बात ईटीवी भारत से साझा की. प्रोफेसर करमा उरांव ने कहा कि आदिवासी सिर्फ छले जा रहे हैं. यहां कांट्रेक्ट जॉब में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. 11 नवंबर 2020 को आदिवासी सरना धर्म कोड का प्रस्ताव विधानसभा के विशेष सत्र में पारित कराया गया लेकिन राज्यपाल से स्वीकृति लिए बगैर केंद्र को भेज दिया गया. यह मामला अब ठंडे बस्ते में पड़ा है. विश्वविद्यालयों में पर्यावरण साइंस के प्रोफेसर नहीं हैं. पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात चिंताजनक हाल में हैं. आदिवासी समाज का तेजी से धर्मांतरण हुआ है. इसका सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता है. कुपोषण एक बड़ी समस्या है. मामूली बीमारी में दवा पहुंचने से लोग अंधविश्वास दस्तक दे देता है.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र विभाग के प्रोफेसर डॉ अभय सागर मिंज ने कहा कि इस पिछड़ेपन के लिए सिर्फ राज्य सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. केंद्र सरकार को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. संवैधानिक अधिकार सिर्फ कागजों तक सिमटे हुए हैं. पेसा का अधिकार नहीं मिला है. पांचवी अनुसूची में राज्यपाल को अधिकार जरूर मिले हैं लेकिन उसकी इंप्लिमेंटेशन नहीं होता. सरकार में इनकी भागीदारी नहीं के बराबर है. जब रोजगार की बात होती है तो इस समाज के मजदूर के रूप में देखा जाता है. नतीजतन, पलायन और यौन शोषण हो रहा है. श्रम विभाग ने प्रवासी मजदूरों के लिए एक सेल बनाया है लेकिन वह मामूली मदद कर पा रहा है अनुदान सीमित होता जा रहा है. स्कॉलरशिप का दायरा सिमट रहा है. सबसे बड़ी बात यह है कि समाज को भी सजग होना पड़ेगा. ऐसी व्यवस्था हो कि सरकारी मिशनरी माह में एक दिन ही सही उनतक पहुंचे. अच्छी बात है कि ट्राइबल टीचर्स की नियुक्ति हुई है लेकिन प्राथमिक स्तर पर जनजातीय भाषा को पढ़ाने की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी. डॉ अभय सागर मिंज ने कहा कि शिक्षा ही सबसे बड़ा परिवर्तन का कारण बन सकता है. अगर यह समाज शिक्षित होगा तो अपने अधिकार के प्रति जागरूक होगा.

अधिकार की लड़ाई में हमेशा आगे रहा यह समाज: आदिवासी बेहद भोले होते हैं. सादगी उनकी पहचान है लेकिन अधिकार के लिए संघर्ष करना जानते हैं. जब पूरा देश अंग्रेजों की गिरफ्त में समा रहा था तो महाजनी प्रथा और मालगुजारी के खिलाफ यहां के सूरवीरों ने कई लड़ाईयां लड़ी. राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में पहली क्रांति हुई थी लेकिन यहां 1855 में संथाल विद्रोह हुआ जिसे हूल क्रांति के रूप में याद किया जाता है. जमीन के लिए संघर्ष का ही नतीजा था कि अंग्रेजों को संथाल परगना टिनेंसी एक्ट यानी एसपीटी और छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट यानी सीएनटी बनाना पड़ा. जनजातीय परामर्शदात्री समिति से राज्यपाल को हटा दिया गया. जबकि 5वीं अनुसूची का कस्टोडियन राज्यपाल ही होते हैं.

हालाकि इन तमाम सवालों के बीच वर्तमान सरकार ने आदिवासियों के लिए कुछ अलग पहल की है. मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा पारदेशीय छात्रवृत्ति योजना के जरिए दस होनहार छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा रहा है. जनजातीय संस्कृति को संरक्षित करने के लिए जाहेर स्थान, सरना, मसना और हड़गड़ी को विकसित किया जा रहा है. अब यह समाज राजनीति के केंद्र में आ गया है. पिछले दिनों रांची में भाजपा ने जनजातीय महारैला का आयोजन किया था. भाजपा का दावा है कि उसे आदिवासियों की फिक्र है. इसी वजह से द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने में अहम भूमिका निभाई. अब हेमंत सरकार ने जनजातीय महोत्सव का आयोजन कर एक नई बहस छेड़ दी है.

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