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रांची के आड्रे हाउस में जनजातीय दर्शन, तीन दिवसीय अंतराराष्ट्रीय सेमिनार का आज तीसरा दिन

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Published : Jan 19, 2020, 11:32 AM IST

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रांची के आड्रे हाउस में जनजातीय दर्शन

रांची के आड्रे हाउस में जनजातीय दर्शन पर चल रहे तीन दिवसीय अंतराराष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे दिन देश और विदेश से आए विद्वानों, प्राध्यापकों, शोधकर्ताओं और विभिन्न जनजातीय समुदाय के प्रतिनिधियों ने जनजातीय समुदायों के देवताओं, पूजा स्थलों और धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ रीति-रिवाजों पर पेपर प्रजेंटशन किया. इस दौरान उन्होंने कहा कि जनजातीय समुदायों में प्रकृति पूजा की धारणा है.

रांची: संसार में सभी जातियों की अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं और रीति-रिवाजें होती हैं. जनजातीय समुदाय भी इससे अछूता नहीं है. विभिन्न जनजातीय समुदायों की भी अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं हैं, लेकिन इन सभी की धार्मिक मान्यताओं का संबंध कहीं न कही प्रकृति से ही है और प्रकृति से ही मनुष्य समेत तमाम जीव-जंतुओं की उत्पति हुई है, हालांकि इन विभिन्न जनजातीय समुदायों के रीति-रिवाज, परंपरा, पूजन के विधि-विधानों में थोड़ा-बहुत अंतर जरुर पाया जाता है.

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रांची के आड्रे हाउस में जनजातीय दर्शन पर चल रहे तीन दिवसीय अंतराराष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे दिन देश और विदेश से आए विद्वानों, प्राध्यापकों, शोधकर्ताओं और विभिन्न जनजातीय समुदाय के प्रतिनिधियों ने जनजातीय समुदायों के देवताओं, पूजा स्थलों और धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ रीति-रिवाजों पर पेपर प्रेजेंटशन किया.

इस जनजातीय दर्शन पर चल रहे अंतराराष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे दिन की शुरुआत करते हुए डॉ रामदयाल मुंडाय जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के निदेशक रणेंद्र कुमार ने कहा कि इस सेमिनार को आयोजित करने का मकसद जनजातीय दर्शन को अलग दर्शन के रुप में स्थापित करना है. जनजातीय दर्शन को लिखित स्वरुप देना है. रांची से इसकी शुरुआत हुई है और आगे भी यह सिलसिला जारी रखने की जरूरत है. जनजातीय दर्शन से जुड़े विद्वानों के एक मंच पर आने से निश्चित तौर पर इसे जानने-समझने के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा और जनजातीय दर्शन भी एक अलग विधा के रुप में अन्य दर्शन की तरह स्थापित हो सकेगी.


वहीं, डॉ मेघनाथ ने अंतराष्ट्रीय सेमिनार के पहले दिन के अधूरे रहे चौथे सत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ज्यादातर जनजातीय समुदायों में प्रकृति पूजा की धारणा है. प्रकृति से जोड़कर ही वे मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं की उत्पति को देखते हैं. इनमें मंदिर की धारणा भी नहीं के बराबर है. वे प्राकृतिक संसाधनो को पूजे जाने की यहां परंपरा है. इसके साथ इनका मूर्ति पूजन पर भी विश्वास नहीं है.

इस सत्र में अपना पेपर प्रेजेंटेशन में देवाजी नावाल तोफा ने आदिवासी समुदायों में विद्यमान कोया को परिभाषित करते हुए कहा कि इसमें लोग प्रकृति को पूजते हैं और उसे हानि पहुंचाने वाले तत्वों से बचाव करते हैं, इस दर्शन में वे जल-जंगल और जमीन को अपनी मां मानते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर जनजातीय समुदाय अपनी भाषा को सुरक्षित नहीं रखेगी तो उनकी संस्कृति भी विलुप्त होती जाएगी. इसी सत्र को संबोधित करते हुए डॉ जयश्री गावित ने कहा कि आदिवासियों का पालन-पोषण प्रकृति करती है, इसलिए उनकी धार्मिक मान्यताओं में प्रृकृति से उपर कुछ भी नहीं है. जन्म से लेकर मृत्यु तक तक की सभी गतिविधियों का संचालन प्राकृतिक अवधारणाओं के अनुकूल होता है.

इसी सत्र में डॉ राजेश राथवा ने पिथौरा पेंटिग्स के इतिहास की जानकारी दी, उन्होंने जनजातीय समुदायों में उनके पूर्वजों द्वारा किए जाने वाले कृषि कार्यों से अवगत कराया. उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण के इस दौर में जनजातीय समुदाय और उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मान्याताओं और रीति-रिवाजों को बचाना होगा. डॉ पुष्पा गावित ने अपने पेपर प्रेजेटेंशन में कहा कि जनजातीय समुदाय में प्रचलित लोक कथाएं, लोक संगीत और लोक कला से उनकी परंपरा और मान्यता झलकती है. इसमें भी उनके प्रकृति के साथ गहरे संबंधों की अवधारणा मौजूद है.

प्रो. धर्मेंद पारे ने बताया कि आदि दर्शन ही सबसे प्राचीन है. यह अन्य सभी दर्शनों की जननी है. इसी दर्शन से ही कहीं न कहीं अन्य दर्शनों का वजूद सामने आया है. उन्होंने बताया कि आदिवासियों के प्राकृतिक अनुष्ठानों के बारे में भी बताया. उन्होंने यह भी बताया कि जनजातीय समुदायों में पूर्वडों की उत्पति मिट्टी से होने की मान्यता कहीं न कही जुड़ी है. डॉ विनायक साम्बा ने आदिवासियों के लिए एक नया धर्म संविधान तैयार करने पर जोर दिया.

ये भी देखें- हजारीबाग सेंट्रल जेल से रिहा होंगे 27 बंदी, सजा पुनरीक्षण परिषद ने दी मंजूरी

दूसरे दिन के पहले सत्र की शुरुआत करते हुए ग्याती राणा ने भगवान और इंसान के बीच रिश्ते पर अपने पेपर प्रेजेंटेशन में फोकस किया. उन्होंने बताया कि जब इस दुनिया में कुछ नहीं था तो उई का वजूद था. उई की मात्रा बढ़ने से ही इस ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है. डॉ नेहा अरोड़ा ने आदि दर्शन को प्रकृति के साथ जोड़ते हुए इसके संरक्षण में जनजातीय समुदायों के योगदान की विस्तार से जानकारी दी. डॉ निकोलस लकड़ा ने सेमिनार को संबोधित करते हुए कहा कि धर्म नाम की कोई चीज नहीं होती है. मनुष्य ने धर्म को अपने हिसाब से स्वीकारा और मान्यता दी है. डॉ शांति खलखो ने कहा कि आज दुनिया में जनजातीय समुदाय की परंपराओं व संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है. अतः सभी को संगठित होकर इसका बचाव करना होगा. डॉ आयशा गौतम ने कहा कि दर्शन में अनुभव को प्राथमिकता दी जाती है और भविष्य की सोच की अवधारणा भी व्याप्त होती है. उन्होंने कहा कि उरांव मं धुमकुड़िया की अवधारणा उनकी सांस्कृतिक विरासत को परिलक्षित करती है.


दूसरे दिन के दूसरे सत्र को संबोधित करते हुए डॉ राधिका बोरडे ने आदि दर्शन में भगवान की उत्पति के प्रचलित मान्यताओं के बारे बताया. उन्होंने कहा कि भगवान की उत्पति नदी-नाला और जंगलों से जुड़ा है. उन्होंने एक ब्रह्मांड के सिद्दांत और इंडिविजुअल और समूहों के बीच किसी तरह का कोई अंतर नहीं होने की बातें कही. उन्होंने कहा कि सरना स्थलों में प्रकृति की ही पूजा होती है. उन्होंने कहा कि आदि दर्शन का महत्व आदि काल से ही है और भी आज भी इसकी प्रासंगिकता बरकरार है. उन्होंने कहा कि अगर प्रकृति नहीं रहेगी तो सिंगबोगा का भी वजूद नहीं रहेगा.

अंतराराष्ट्रीय सेमिनार में अपने विचार रखते हुए प्रवीण उरांव ने कहा कि जनजातीय दर्शन किसी दूसरे दर्शन ने प्रभावित नहीं है. यह दर्शन प्रकृति के साथ जुड़ा है. इसी प्रकृति से सृष्टि की उत्पति हुई है. उन्होंने उरांवों में पड़हा व्यवस्था के बारे बताया और कहा कि सरना धर्म में प्रकृति की पूजा होती है और सरना स्थल सबसे शक्तिशाली स्थल माना जाता है. सीएनटी एक्ट में भी सरना स्थलों का जिक्र है. उरांवों में सरहुल और करम पर्व मनाया जाता है और पूजा पाहन कराते हैं. उन्होंने भगवान की उत्पति के बारे बताया कि भूमि, गगन, वायु और नीर में यह इंगित है. उन्होंने कहा कि आदिवासी काफी खोजी और ज्ञानी होते हैं. इस सत्र में डी लामार और ईएमएच पासाह ने मेघालय में रहने वाली जयंतिया जनजाति के धार्मिक दर्शन, मान्यतों और रीति-रिवाजों के बारे में बताया.

डॉ स्वाति परासर इन दिनों स्वीडन के यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं. इसके पहले वे आस्ट्रेलिय के यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थी. रांची से बिलांग करने वाली डॉ स्वाति ने कहा कि आस्ट्रेलिया में भी जनजातीय समुदाय जल-जंगल-जमीन की लड़ाई रह रहे हैं. यहां की कुल आबादी में 2.5 प्रतिशत इंडिजेनस समुदाय की है. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि वहां के जनजातीय समुदाय में पहाड़ों का अहम महत्व है. उन्होंने यह भी बताया कि स्वीडन में आदिवासियों को सामी के नाम से जाना जाता है. वहीं, बंगलादेश से आए तरुण कुमार मुंडा ने कहा कि वहां के दाईलामा इलाके में मुंडारी जाति निवास करती है. हालांकि, वे भारत से ही यहां आए हैं. उन्होंने कहा कि यहां के जनजातीय समुदाय में हिंसा नहीं के बराबर होती है. उन्होंने यह भी बताया कि बंगलादेश में बिरसा मुंडा को पूजा जाता है.

शरण उरांव ने कहा कि जनजातीय दर्शन में भगवान को किसी के द्वारा नहीं बनाए जाने की बात कही गई है. धर्म तो स्वंयभू है, निराकार है. इसे किसी न नहीं देखा है. देवता तो आस्था और विश्वास का परिचायक है और यह सभी जगहों पर विद्यमान हैं. जबतक मनुष्य की मृत्यु नहीं हो जाती, भगवान से उसका रिश्ता बना रहता है. उन्होंने उरांव जनजाति में गोत्र प्रथा की भी विवेचना की. उन्होंने कहा कि इस जनजाति में भगवान को धर्मेश के नाम से जाना जाता है. साथ ही सूरज को पूजे जाने की परंपरा है. इनके दर्शन में मंदिर नहीं है. सरना स्थल सबसे पवित्र स्थल है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बिना दर्शन के मानव के वजूद की परिकल्पना नहीं की जा सकती है. असम के मिंटू मिंजूर ने प्रजा जनजाति में धार्मिक मान्यताओं और पूजा के विधि विधानों के बारे बताया. उन्होंने कहा कि असम में प्रजा जनजाति को चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था. यहां के आदिवासी छात्र संगठन आज भी आंदोलन कर रहे हैं जिसे टी-ट्राइक के नाम से जाना जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि कांग्रेस द्वारा 1931 में जनजातीय समुदायों का नामकरण आदिवासी के रुप में किया गया.

चौथे सत्र की शुरुआत करते हुए अनमोल रतन मुंडा ने बताया के सभी धर्मों में उनकी पुस्तकें हैं धार्मिक पुस्तकें ही उन धर्मों का आधार है लेकिन आदिवासियों धर्म की कोई पुस्तक नहीं है. इसलिए यह अन्य सभी धर्मों से अलग है, उन्होंने कहा कि आदिवासी प्रकृति के सहचरे के साथ जीते हैं. आदिवासी धर्म एक विचार है, जीने की पद्धति है. उन्होंने कहा कि आदिवासी दर्शन चुनौतियों से भरा हुआ है. आदिवासी दर्शन आदिवासियों में असीम उर्जा भरता है. विनोद अग्रवाल ने आदिवासी दर्शन के बारे में विस्तारपूर्वक बताया, उन्होंने कहा कि आखिर आदिवासी दर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ी, उन्होंने कहा कि आदिवासी दर्शन बहुत बड़ा दर्शन हैं.

कविता कर्मकार ने असम में रहने वाली जनजातियों के बारे में जानकारी दीस, उन्होंने कहा कि वहां रहने वाली जनजातियां चाय बगान में काम कर अपना जीवन-यापन करती हैं. उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति उनके रहन-सहन के बारे में चर्चा करते हुए कही कि अपनी संस्कृति, भाषा को छोड़कर कोई भी जाति अपने आप को स्थापित नहीं कर सकती है. उन्होंने कहा कि आदिवासी समूह का एक ही दर्शन है जो प्रकृति से जुड़ा हुआ है. इसे किसी विशेष दर्शन की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने कहा कि चूंकि आदिवासियों का जुड़ाव प्रकृति से ज्यादा हैं वे प्रकृति को भगवान मानते हैं इसलिए इनमें पेड़-पौधों की पहचान अधिक होती हैं. वे औषधीय पेड़-पौधों से भी अपना इलाज करने में सक्षम होते हैं. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को प्रकृति से जो कुछ भी मिलता है वे उसे प्रसाद के तौर पर ग्रहण करते हैं.

वहीं, सूरज बड़तिया ने आदिवासी दर्शन के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि आदिवासी दर्शन ही एकमात्र दर्शन है जो ईश्वर की सत्ता को चुनौती देता है, आदिवासी समुदाय प्रकृति को ही अपना भगवान मानते हैं. उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति के बारे में चर्चा करते हुए कही कि आदिवासियों में स्वागत करने का भी अलग तरीका हैं जो उन्हें सबसे अलग बनाता है. उन्होंने कहा कि आदिवासियों के जीवन शैली को अनुभव कर जाना जा सकता हैं किताबों में तो बहुत कुछ लिखा होता है परंतु आदिवासियों के बीच जाकर उनके साथ कुछ वक्त बिता कर ही हम आदिवासियों की संस्कृति और उनके जीवन-यापन के तरीको को जान सकेगें, उन्होंने कहा कि अनुभवों से ही ज्ञान आता है.

Intro:बिना दर्शन के मानव के वजूद की कल्पना नहीं की जा सकती है,आदि दर्शन में जन्म से लेकर मृत्यु तक तक की सभी गतिविधियां प्राकृतिक अवधारणाओं से नियंत्रित होती हैं

रांची

संसार में सभी जातियों की अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं और रीति-रिवाजें होती हैं. जनजातीय समुदाय भी इससे अछूता नहीं है. विभिन्न जनजातीय समुदायों की भी अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं हैं, लेकिन इन सभी की धार्मिक मान्यताओं का संबंध कहीं न कही प्रकृति से ही है और प्रकृति से ही मनुष्य समेत तमाम जीव-जंतुओं की उत्पति हुई है, हालांकि, इन विभिन्न जनजातीय समुदायों के रीति-रिवाज, परंपरा, पूजन के विधि-विधानों में थोड़ा-बहुत अंतर जरुर पाया जाता है. रांची के आड्रे हाउस में जनजातीय दर्शन पर चल रहे तीन दिवसीय अंतराराष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे दिन देश और विदेश से आए विद्वानों, प्राध्यापकों, शोधकर्ताओं और विभिन्न जनजातीय समुदाय के प्रतिनिधियों ने जनजातीय समुदायों के देवताओं, पूजा स्थलों और धार्मिक मान्यताओं के साथ- साथ रीति-रिवाजों पर पेपर प्रेजेंटशन किया.


जनजातीय दर्शन पर चल रहे अंतराराष्ट्रीय सेमिनार के दूसरे दिन की शुरुआत करते हुए डॉ रामदयाल मुंडाय जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के निदेशक रणेंद्र कुमार ने कहा कि इस सेमिनार को आय़ोजित करने का मकसद जनजातीय दर्शन को अलग दर्शन के रुप में स्थापित करना है. जनजातीय दर्शन को लिखित स्वरुप देना है. रांची से इसकी शुरुआत हुई है और आगे भी यह सिलसिला जारी रखने की जरूरत है. जनजातीय दर्शन से जुड़े विद्वानों के एक मंच पर आने से निश्चित तौर पर इसे जानने-समझने के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा और जनजातीय दर्शन भी एक अलग विधा के रुप में अन्य दर्शन की तरह स्थापित हो सकेगी.




डॉ मेघनाथ ने अंतराष्ट्रीय सेमिनार के पहले दिन के अधूरे रहे चौथे सत्र को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ज्यादातर जनजातीय समुदायों में प्रकृति पूजा की धारणा है. प्रकृति से जोड़कर ही वे मनुष्य व अऩ्य जीव-जन्तुओं की उत्पति को देखते हैं. इनमें मंदिर की धारणा भी नहीं के बराबर है. वे प्राकृतिक संसाधनो को पूजे जाने की यहां परंपरा है. इसके साथ इनका मूर्ति पूजन पर भी विश्वास नहीं है. इस सत्र में अपना पेपर प्रेजेंटेशन में देवाजी नावाल तोफा ने आदिवासी समुदायों में विद्यमान कोया को परिभाषित करते हुए कहा कि इसमें लोग प्रकृति को पूजते हैं और उसे हानि पहुंचाने वाले तत्वों से बचाव करते हैं, इस दर्शन में वे जल-जंगल और जमीन को अपनी मां मानते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर जनजातीय समुदाय अपनी भाषा को सुरक्षित नहीं रखेगी तो उनकी संस्कृति भी विलुप्त होती जाएगी. इसी सत्र को संबोधित करते हुए डॉ जयश्री गावित ने कहा कि आदिवासियों का पालन-पोषण प्रकृति करती है, इसलिए उनकी धार्मिक मान्यताओं में प्रृकृति से उपर कुछ भी नहीं है. जन्म से लेकर मृत्यु तक तक की सभी गतिविधियों का संचालन प्राकृतिक अवधारणाओं के अनुकूल होता है.


इसी सत्र में डॉ राजेश राथवा ने पिथौरा पेंटिग्स के इतिहास की जानकारी दी, उन्होंने जनजातीय समुदायों में उनके पूर्वजों द्वारा किए जाने वाले कृषि कार्यों से अवगत कराया. उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण के इस दौर में जनजातीय समुदाय और उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मान्याताओं और रीति-रिवाजों को बचाना होगा. डॉ पुष्पा गावित ने अपने पेपर प्रेजेटेंशन में कहा कि जनजातीय समुदाय में प्रचलित लोक कथाएं, लोक संगीत और लोक कला से उनकी परंपरा और मान्यता झलकती है. इसमें भी उनके प्रकृति के साथ गहरे संबंधों की अवधारणा मौजूद है.


प्रो धर्मेंद पारे ने बताया कि आदि दर्शन ही सबसे प्राचीन है. यह अन्य सभी दर्शनों की जननी है. इसी दर्शन से ही कहीं न कहीं अन्य दर्शनों का वजूद सामने आया है. उन्होंने बताया कि आदिवासियों के प्राकृतिक अनुष्ठानों के बारे में भी बताया. उन्होंने यह भी बताया कि जनजातीय समुदायों में पूर्वडों की उत्पति मिट्टी से होने की मान्यता कहीं न कही जुड़ी है. डॉ विनायक साम्बा ने आदिवासियों के लिए एक नया धर्म संविधान तैयार करने पर जोर दिया.



दूसरे दिन के पहले सत्र की शुरुआत करते हुए ग्याती राणा ने भगवान और इंसान के बीच रिश्ते पर अपने पेपर प्रेजेंटेशन में फोकस किया. उन्होंने बताया कि जब इस दुनिया में कुछ नहीं था तो उई का वजूद था. उई की मात्रा बढ़ने से ही इस ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है. डॉ नेहा अरोड़ा ने आदि दर्शन को प्रकृति के साथ जोड़ते हुए इसके संरक्षण में जनजातीय समुदायों के योगदान की विस्तार से जानकारी दी. डॉ निकोलस लकड़ा ने सेमिनार को संबोधित करते हुए कहा कि धर्म नाम की कोई चीज नहीं होती है. मनुष्य ने धर्म को अपने हिसाब से स्वीकारा और मान्यता दी है. डॉ शांति खलखो ने कहा कि आज दुनिया में जनजातीय समुदाय की परंपराओं व संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है. अतः सभी को संगठित होकर इसका बचाव करना होगा. डॉ आयशा गौतम ने कहा कि दर्शन में अनुभव को प्राथमिकता दी जाती है और भविष्य की सोच की अवधारणा भी व्याप्त होती है. उन्होंने कहा कि उरांव मं धुमकुड़िया की अवधारणा उनकी सांस्कृतिक विरासत को परिलक्षित करती है.


दूसरे दिन के दूसरे सत्र को संबोधित करते हुए डॉ राधिका बोरडे ने आदि दर्शन में भगवान की उत्पति के प्रचलित मान्यताओं के बारे बताया. उन्होंने कहा कि भगवान की उत्पति नदी-नाला और जंगलों से जुड़ा है. उन्होंने एक ब्रह्मांड के सिद्दांत और इंडिविजुअल और समूहों के बीच किसी तरह का कोई अंतर नहीं होने की बातें कही. उन्होंने कहा कि सरना स्थलों में प्रकृति की ही पूजा होती है. उन्होंने कहा कि आदि दर्शन का महत्व आदि काल से ही है और भी आज भी इसकी प्रासंगिकता बरकरार है. उन्होंने कहा कि अगर प्रकृति नहीं रहेगी तो सिंगबोगा का भी वजूद नहीं रहेगा.


अंतराराष्ट्रीय सेमिनार में अपने विचार रखते हुए प्रवीण उऱांव ने कहा कि जनजातीय दर्शन किसी दूसरे दर्शन ने प्रभावित नहीं है. यह दर्शन प्रकृति के साथ जुड़ा है. इसी प्रकृति से सृष्टि की उत्पति हुई है. उन्होंने उरांवों में पड़हा व्यवस्था के बारे बताया और कहा कि सरना धर्म में प्रकृति की पूजा होती है और सरना स्थल सबसे शक्तिशाली स्थल माना जाता है. सीएनटी एक्ट में भी सरना स्थलों का जिक्र है. उरांवों में सरहुल और करम पर्व मनाया जाता है और पूजा पाहन कराते हैं. उन्होंने भगवान की उत्पति के बारे बताया कि भूमि, गगन, वायु और नीर में यह इंगित है. उन्होंने कहा कि आदिवासी काफी खोजी और ज्ञानी होते हैं. इस सत्र में डी लामार और ईएमएच पासाह ने मेघालय में रहने वाली जयंतिया जनजाति के धार्मिक दर्शन, मान्यतों और रीति-रिवाजों के बारे में बताया.



डॉ स्वाति परासर इन दिनों स्वीडन के यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं. इसके पहले वे आस्ट्रेलिय के यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थीं. रांची से बिलांग करने वाली डॉ स्वाति ने कहा कि आस्ट्रेलिया में भी जनजातीय समुदाय जल-जंगल-जमीन की लड़ाई रह रहे हैं. यहां की कुल आबादी में 2.5 प्रतिशत इंडिजेनस समुदाय की है. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि वहां के जनजातीय समुदाय में पहाड़ों का अहम महत्व है. उन्होंने यह भी बताया कि स्वीडन में आदिवासियों को सामी के नाम से जाना जाता है. वहीं बांग्ला देश से आए तरुण कुमार मुंडा ने कहा कि वहां के दाईलामा इलाके में मुंडारी जाति निवास करती है. हालांकि, वे भारत से ही यहां आए हैं. उन्होंने कहा कि यहां के जनजातीय समुदाय में हिंसा नहीं के बराबर होती है. उन्होंने यह भी बताया कि बांग्ला देश में बिरसा मुंडा को पूजा जाता है.


शरण उरांव ने कहा कि जनजातीय दर्शन में भगवान को किसी के द्वारा नहीं बनाए जाने की बात कही गई है. धर्म तो स्वंयभू है. निराकार है. इसे किसी न नहीं देखा है. देवता तो आस्था और विश्वास का परिचायक है और यह सभी जगहों पर विद्यमान हैं. जबतक मनुष्य की मृत्यु नहीं हो जाती, भगवान से उसका रिश्ता बना रहता है. उन्होंने उरांव जनजाति में गोत्र प्रथा की भी विवेचना की. उन्होंने कहा कि इस जनजाति में भगवान को धर्मेश के नाम से जाना जाता है. साथ ही सूरज को पूजे जाने की परंपरा है. इनके दर्शन में मंदिर नहीं है. सरना स्थल सबसे पवित्र स्थल है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बिना दर्शन के मानव के वजूद की परिकल्पना नहीं की जा सकती है. असम के मिंटू मिंजूर ने प्रजा जनजाति में धार्मिक मान्यताओं और पूजा के विधि विधानों के बारे बताया. उन्होंने कहा कि असम में प्रजा जनजाति को चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था. यहां के आदिवासी छात्र संगठन आज भी आंदोलन कर रहे हैं जिसे टी-ट्राइक के नाम से जाना जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि कांग्रेस द्वारा 1931 में जनजातीय समुदायों का नामकरण आदिवासी के रुप में किया गया.


चौथे सत्र की शुरुआत करते हुये अनमोल रतन मुण्डा ने बताया के सभी धर्मों में उनकी पुस्तकें हैं धार्मिक पुस्तकें ही उन धर्मों का आधार है लेकिन आदिवासियों धर्म की कोई पुस्तक नहीं है। इसलिये यह अन्य सभी धर्मों से अलग है। उन्होंने कहा कि आदिवासी प्रकृति के सहचरे के साथ जीते हैं । आदिवासी धर्म एक विचार है, जीने की पद्धति है। उन्होंने कहा कि आदिवासी दर्शन चुनौतियों से भरा हुआ है। आदिवासी दर्शन आदिवासियों में असीम उर्जा भरता है। विनोद अग्रवाल ने आदिवासी दर्शन के बारे में विस्तारपूर्वक बताया। उन्होंने कहा कि आखिर आदिवासी दर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ी। उन्होंने कहा कि आदिवासी दर्शन बहुत बड़ा दर्शन हैं।


कबिता कर्मकार ने असम में रहने वाली जनजातियों के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि वहां रहने वाली जनजातियां चाय बगान में काम कर अपना जीवन-यापन करती हैं। उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति उनके रहन-सहन के बारे में चर्चा करते हुये कही कि अपनी संस्कृति,भाषा को छोड़कर कोई भी जाति अपने आप को स्थापित नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा कि आदिवासी समूह का एक ही दर्शन है जो प्रकृति से जुड़ा हुआ है। इसे किसी विशेष दर्शन की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा कि चूंकि आदिवासियों का जुड़ाव प्रकृति से ज्यादा हैं वे प्रकृति को भगवान मानते हैं इसलिये इनमें पेड़-पौधों की पहचान अधिक होती हैं । वे औषधीय पेड़-पौधों से भी अपना इलाज करने में सक्षम होते हैं । उन्होंने कहा कि आदिवासियों को प्रकृति से जो कुछ भी मिलता है वे उसे प्रसाद के तौर पर ग्रहण करते हैं ।



Body:सूरज बड़तिया ने आदिवासी दर्शन के बारे में जिक्र करते हुये कहा कि आदिवासी दर्शन ही एकमात्र दर्शन है जो ईश्वर की सत्ता को चुनौति देता है। आदिवासी समुदाय प्रकृति को ही अपना भगवान मानते हैं । उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति के बारे में चर्चा करते हुये कही कि आदिवासियों में स्वागत करने का भी अलग तरीका हैं जो उन्हें सबसे अलग बनाता है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के जीवन शैली को अनुभव कर जाना जा सकता हैं किताबों में तो बहुत कुछ लिखा होता है परंतु आदिवासियों के बीच जाकर उनके साथ कुछ वक्त बिता कर ही हम आदिवासियों की संस्कृति और उनके जीवन-यापन के तरीको को जान सकेगें। उन्होंने कहा कि अनुभवों से ही ज्ञान आता है।
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