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जिनके लिए धर्म और कर्म तिरंगा-अहिंसा ही जीवन का मंत्र हैः जानिए, टाना भगतों की पूरी कहानी

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Published : Jan 26, 2023, 5:31 AM IST

Story of Jharkhand Tana Bhagat follower of Mahatma Gandhi
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पूरा भारत गणतंत्र दिवस मना रहा है, देश के संविधान निर्माता के साथ साथ आजादी की लड़ाई में कुर्बान हुए शहीदों को याद किया जा रहा है. तिरंगे की सलामी लेकर लाल किले की प्राचीर से नया भविष्य गढ़ने का संकल्प लिया जा रहा है. झारखंड में भी हर आम खास गणतंत्र दिवस को उत्सव की तरह मना रहा है. झारखंड में टाना भगत, एक ऐसा समुदाय जिन्हें आजादी के गुमनाम सिपाही की संज्ञा दी जाती है लेकिन इनके लिए तिरंगा ही कर्म और तिरंगा ही धर्म है. इस गणतंत्र दिवस ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट से जानिए, टाना भगतों की पूरी कहानी.

रांचीः टाना भगत की कहानी, आज या कल की नहीं है. ये दास्तां 100 साल से ज्यादा की है. जिन्होंने एक शताब्दी पहले ही तिरंगा को अपना धर्म मान लिया और महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी बन गए. स्वतंत्रता के आंदोलन में अंग्रेजों के खिलाफ टाना भगत की लड़ाई सराहनीय है. अंहिसा के पुजारी इस समुदाय ने अपने आंदोलन से ब्रिटिश शासन को छोटानागपुर की धरती छोड़ने पर मजबूर कर दिया.

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भारत को गणतंत्र देश बनाने के लिए कुर्बानी देने वाले वीर सपूतों की लंबी फेहरिस्त है और कई हमें इतिहास के पन्नों में दर्ज मिलते हैं. ऐसे कई सिपाही हैं जिन्होंने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए लड़ाइयां लड़ी लेकिन वो गुमनाम हैं और उनका जिक्र कम ही मिलता है. ऐसे ही गुमनाम सिपाही हैं टाना भगत. वो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी हैं. इतिहास में इन्हें वो जगह नहीं मिली है जिनके वो हकदार हैं.

जतरा उरांव ने 1912 में शुरू किया था आंदोलनः देश को आजाद कराने के लिए टाना भगतों ने 1912 में आंदोलन शुरू किया था. टाना भगतों में सबसे पहला नाम जतरा उरांव का आता है. सन 1888 में गुमला जिला में जन्मे जतरा उरांव ने जब होश संभाला तब देश में अंग्रेजों का आतंक था. 1912 में उन्होंने इस शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ठानी. इसके साथ ही पशु बलि, शराब समेत तमाम बुराइयों को छोड़ कर अलग पंथ यानी रास्ते पर चलने का निर्णय लिया. मालगुजारी के खिलाफ जतरा उरांव का विद्रोह टाना भगत आंदोलन के रूप में बढ़ने लगा. 1914 में अंग्रेजों ने जतरा उरांव को गिरफ्तार कर डेढ़ साल की सजा दी गई. जेल से निकलने के बाद अचानक उनका निधन हो गया लेकिन टाना भगतों ने इस आंदोलन को जारी रखा, बाद में टाना भगत बापू के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए.

1942 में टाना भगतों ने पहली बार फहराया तिरंगाः साल 1914 में टाना भगतों ने लगान, सरकारी टैक्स देने और कुली के रूप में मजदूरी करने से साफ इनकार कर दिया. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए उलगुलान से प्रेरित होकर खुद को इस आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया. 1940 में टाना भगत आंदोलनकारियों की बड़ी आबादी गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़ गयी. 1942 में लोहरदगा के कुड़ू थाना में टाना भगतों ने पहली बार तिरंगा फहराया था. अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने की वजह से टाना भगतों को जेल भी जाना पड़ा. इसमें 6 टाना भगतों की मौत भी हो गई थी.

तिरंगा कर्म-तिरंगा धर्मः टाना भगतों ने एक अलग ही पंथ को जन्म दिया है. इनके जीवन में खादी का विशेष महत्व है. खादी की टोपी और कुर्ता इनका पहनावा है. टाना भगतों की जिंदगी में झंडा पूजा का बड़ा महत्व है. ये हर दिन चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर तिरंगा फहराने से पहले टाना भगत चरखा वाले तिरंगा की पूजा करते हैं. इनके घरों में सालों भर तिरंगा फहरता है. ये महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन का पालन करते हैं और हिंसा, मांस, मदिरा, व्यसन जैसी सामाजिक बुराइयों से पूरी तरह दूर रहते हैं. सभी टाना भगतों के घर में एक चरखा जरूर होता है जिससे ये सूत काटते हैं. टाना भगत सुबह नहाने के बाद तुलसी में जल अर्पण हैं और झंडा पूजा करते हैं. इसके बाद ही इनकी दिनचर्या शुरू होती है.

इनको क्यों कहा जाता है टाना भगतः झारखंडी इतिहासकारों की मानें तो झारखंड में टाना का शाब्दिक अर्थ, टानना या खींचना होता है. इसको लेकर टाना भगतों की ये सोच रहती है कि जो पिछड़े समुदाय से हैं और जो आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, उन्हें ऊपर टानो यानी उसे ऊपर खींचो, समाज की मुख्यधारा में लाओ, उन लोगों को ऊपर खींचो और आगे बढ़ने में मदद करो ताकि उनका भी जीवन स्तर सुधर सके. इनके भजन में भी टाना शब्द का अधिक प्रयोग होता है.

1917 से हर घर तिरंगाः आधुनिक भारत में आजादी का अमृत महोत्सव और हर घर तिरंगा के जरिए लोगों में देश प्रेम और अपनी संस्कृति को जानने की पहल शुरू हुई है. जिसमें उन कई गुमनाम सिपाहियों का जिक्र आज किया जाता है, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की आहूति दे दी. 2022 के 13 से 15 अगस्त तक हर घर तिरंगा अभियान चलाया गया. लेकिन झारखंड के टाना भगत 1917 से हर घर तिरंगा फहरा रहा है. ये जनजातीय समुदाय के लोग पिछले 100 साल से भी ज्यादा वक्त से हर रोज अपने घरों में तिरंगा की पूजा करते हैं.

अहिंसा ही जीवन मंत्र: महात्मा गांधी के आदर्शों की छाप इस समुदाय पर इतनी गहरी है कि आज भी अहिंसा ही इनका जीवन मंत्र है. सरल और सात्विक जीवन शैली वाले टाना भगत सादगी पसंद हैं. सफेद कपड़े, गांधी टोपी इनकी पहचान है और चरखा वाला तिरंगा इनका धर्म है. रोजाना घर के आंगन में बने पूजा धाम में तिरंगे की पूजा करने के बाद हमलोग शुद्ध शाकाहारी भोजन करते हैं. इसके बाद ही यह तिरंगा टाना भगत पंथ का सर्वोच्च प्रतीक बन गया और वो गांधी को देवपुरुष की तरह मानने लगे. इनकी परंपरागत प्रार्थनाओं में गांधी का नाम आज तक शामिल है.

बापू को दी थी 400 रुपए की थैली: 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में टाना भगत शामिल हुए थे. 1940 के रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रुपए की एक थैली भेंट की थी. इससे पहले पहली बार 1917 में जब महात्मा गांधी और डॉ राजेंद्र प्रसाद रांची आए थे, वहीं पर टाना भगतों से उनकी मुलाकात हुई थी. 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी जिसमें टाना भगतों ने भी भाग लिया. साइमन कमीशन के बायकॉट में टाना भगत भी शामिल थे.

26 हजार के करीब टाना भगतों की संख्याः देश जब आजाद हुआ तो टाना भगतों ने अपनी तुलसी चौरा के पास तिरंगा लहराया, खुशियां मनाईं, भजन गाए. आज भी टाना भगतों के लिए 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर का दिन पर्व के समान है. इस दिन टाना भगत खेतीबाड़ी का काम नहीं करते. प्रात: उठकर ग्राम की साफ-सफाई करते हैं. नहा-धोकर सामूहिक रूप से राष्ट्रीय गीत गाकर राष्ट्र-ध्वज फहराते हैं. स्वतंत्र भारत की जय, महात्मा गांधी की जय, राजेंद्र बाबू की जय तथा सभी टाना भगतों की जय का नारा लगाते हैं और गांव में जुलूस निकालते हैं. इतिहास के दस्तावेजों के अनुसार 1914 में करीब 26 हजार लोग टाना भगत पंथ के अनुयायी थे. आज भी इनकी तादाद इसी के आसपास है.

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