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हूल दिवसः क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू को दी जाएगी श्रद्धांजलि

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Published : Jun 29, 2021, 9:56 PM IST

Updated : Jun 30, 2021, 7:01 AM IST

30 जून झारखंड के इतिहास में वीरता एक बड़ा अध्याय है. इस दिन पूरा राज्य हूल क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू को याद करता है. साथ ही दोनों भाइयों की पुण्यतिथि मनाई जाती है. इस साल हूल दिवस में झारखंड बीजेपी प्रदेशभर में व्यापक कार्यक्रम करेगी.

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हूल दिवस

रांची/साहिबगंजः झारखंड में बुधवार यानी 30 जून को हूल दिवस मनाया जाएगा. इसको लेकर सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं. सरकार के साथ-साथ तमाम राजनीतिक दल भी हूल दिवस को लेकर कार्यक्रम करेंगे. प्रदेश भाजपा इस वर्ष व्यापक कार्यक्रम कर रही है. पार्टी राज्यभर में एक हजार आदिवासी गांव में कार्यक्रम का आयोजन करेगी.

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30 जून 1855 को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झारखंड के आदिवासियों का विद्रोह इतिहास के पन्नों में हमेशा बना रहेगा. हूल दिवस के इस अवसर पर हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की ओर से कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे. प्रमुख विपक्षी दल भाजपा पूरे प्रदेश में 1000 आदिवासी गांव में कार्यक्रम आयोजित करने जा रही है. इस दौरान भाजपा कार्यकर्ता सिदो-कान्हू को श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके जीवन संघर्षो को जनता को बताएंगे.

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हूल क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू
अलग-अलग स्थानों पर रहेंगे भाजपा के आला नेताभाजपा की ओर से हूल दिवस को व्यापक रुप में मनाने की तैयारी है. 1000 स्थानों में आयोजित होनेवाले इस कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए मोर्चा प्रदेश अध्यक्ष सह पूर्व विधायक शिवशंकर उरांव ने बताया की भाजपा के सभी प्रमुख जनजाति नेता अलग-अलग स्थानों पर इस कार्यक्रम में भाग लेंगे. भाजपा विधायक दल के नेता बाबुलाल मरांडी रांची प्रदेश कार्यालय, एसटी मोर्चा राष्ट्रीय अध्यक्ष राज्यसभा सांसद समीर उरांव रांची ग्रामीण, सांसद सुनील सोरेन दुमका में हो रहे कार्यक्रम में शामिल होंगे.

वहीं पूर्व मंत्री डॉ. लुइस मरांडी मसलिया, पूर्व स्पीकर दिनेश उरांव गुमला पुसो, पूर्व आईपीएस डॉ. अरुण उरांव भरनो, पूर्व मंत्री हेमलाल मुर्मू भोगनाडीह, पूर्व मंत्री सह विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा खूंटी नगर, पूर्व विधायक लक्षमण टुडू जमशेदपुर नगर, जेबी तुबिद चाईबासा के कार्यक्रम में शामिल होंगे. इसके अलावा कई ऐसे जनजाति नेता, सांसद, विधायक अलग-अलग स्थानों पर हूल दिवस के कार्यक्रम में शामिल होंगे.

साहिबगंज में भी कई कार्यक्रम

हूल क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू का पुण्यतिथि 30 जून को बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. साल 2020 में कोरोना की वजह से किसी तरह के कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया गया था. इस बार सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए पुण्यतिथि मनाई जाएगी. सिदो-कान्हू की पुण्यतिथि के अवसर पर विकास मेला का आयोजन किया जाता है. इसके लिए जिला प्रशासन पूरी तरह से तैयार है.

हूल क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू की जन्मस्थली भोगनाडीह में मनाया जाता है. भोगनाडीह जिला के बरहेट प्रखंड से 14 किलोमीटर दूर गांव में स्थित है. इनके पैतृक घर के बगल में सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो के नाम से पार्क है. इसी पार्क में स्थित सिदो-कान्हू की प्रतिमा पर 30 जून को सर्वप्रथम उनके वंशज के परिवार पूजा अर्चना करते हैं. उसके बाद जिला प्रशासन के साथ-साथ कई राजनीतिक पार्टी वहां पहुंचकर माल्यार्पण कर शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.

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शहीद सिदो-कान्हू को श्रद्धांजलि

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जिला प्रशासन सिदो-कान्हू की पुण्यतिथि पर विकास मेला लगाने के लिए तैयारी में है. उप विकास आयुक्त ने बताया कि 30 जून को कोविड की गाइडलाइन का पालन करते हुए विकास मेला लगाया जाएगा. बुधवार को करोड़ों रुपए की परिसंपत्ति का वितरण किया जाएता और कई परियोजनाओं का उद्घाटन होगा. उन्होंने कहा कि इस अवसर पर राज्य स्तर से कोई नेता या मुख्यमंत्री जरूर शामिल होते हैं, पर अभी तक मुख्यमंत्री के आने की सूचना प्राप्त नहीं हुई है.

क्‍यों मनाया जाता है हूल दिवस

संथाली भाषा में हूल का अर्थ विद्रोह होता है. 30 जून 1855 को झारखंड में यहां के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका. यहां के 400 गांवों के हजारों लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर जंग का एलान कर दिया. आदिवासी भाइयों सिद्धो-कान्‍हो की अगुआई में लोगों ने अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो का नारा बुलंद किया. इसके अलावा उन्होंने मालगुजारी देने से भी मना कर दिया.

इस इलाके में रहने वाले आदिवासी समुदाय के संथालियों ने अपने बोंगा देवता कहने पर ही भोगनाडीह गांव के चुन्नी मांडी के चारों पुत्र सिद्धो, कान्हो, चांद और भैरव ने मालगुजारी और अत्याचार के खिलाफ 30 जून 1855 को पूरे संथाल में डुगडुगी बजाकर विद्रोह का एलान कर दिया.

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इससे घबराकर अंग्रेजी शासन ने विद्रोहियों का दमन शुरू कर दिया. अंग्रेजी सरकार की ओर से आए जमींदारों और सिपाहियों को यहां के संथालियों ने मौत के घाट उतार दिया. इस बीच विद्रोहियों के होश ठिकाने लगाने के लिए अंग्रेजी सिपाहियों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी. जगह-जगह कत्ल-ए-आम किया गया. सिद्धो और कान्हो की तलाश में ब्रितानिया अफसरों ने दिन-रात एक कर दिया. आखिरकार साल 1855 में उन्हें सफलता मिली. जिसके बाद अंग्रेजों ने आदिवासी बंधुओं सिद्धो और कान्हो को पकड़कर भोगनाडीह गांव में ही 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी. इसी साल उत्तर प्रदेश के बहराइच में झारखंड के क्रांतिकारी चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया था. इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है.

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पाकुड़ में स्थित मार्टिलो टावर संथाल विद्रोह की याद ताजा करती है

बहुत प्रभावशाली थी हूल क्रांति

1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह माना जाता है. लेकिन आदिवासियों का हूल क्रांति भी कम प्रभावशाली विद्रोह नहीं था. संथाल विद्रोह आदिवासियों ने शुरू किया था, जिसमें लोग जुड़ते गए और वो धीरे-धीरे जन आंदोलन बन गया. उस वक्त संथाल विद्रोहियों ने अपने परंपरागत हथियारों के दम पर ही अंग्रेजी सैनिकों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था. साल1855 के संथाल विद्रोह में हजारों लोगों ने करो या मरो और अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो का नारा बुलंद किया.

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क्रांति स्थल के नाम से जाना जाता है बरगद का पेड़

देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सर्वप्रथम आदिवासी क्रांतिकारियों ने साल 1855 से 1856 के बीच लड़ाई लड़ी थी. संथाल परगना का भोगनाडीह लड़ाई का मुख्य केंद्र था. इस लड़ाई में आदिवासी क्रांतिकारी चार भाई और दो बहनें, जिसमें सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो ने अंग्रेजों और साहूकारों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इन क्रांतिकारियों ने उन्हें अपने तीर-धनुष से नाक में दम कर दिया था. अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले सिदो-कान्हू को धोखे से पकड़कर बरहेट प्रखंड के पचकठिया में सबके सामने अंग्रेजी सिपाहियों ने एक बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी थी. आज भी वह बरगद का पेड़ स्थित है, जिसे क्रांति स्थल के नाम से जाना जाता है.

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साहिबगंज में स्थित क्रांति स्थल

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आदिवासियों के लिए बंदोबस्‍त अधिनियम बना

जनवरी 1856 हूल क्रांति में समाप्त हुआ, उसके बाद संथाल परगना का निर्माण हुआ, जिसका मुख्यालय दुमका को बनाया गया. इस क्रांति के बाद साल 1900 में मैक पेरहांस कमिटी ने आदिवासियों के लिए बंदोबस्त अधिनियम बनाया. जिसमें प्रावधान किया गया कि आदिवासी की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है. क्रेता और विक्रेता का निवास एक ही थाना के अंतर्गत होना चाहिए. आज भी इन शर्तों को पूरा करने के बाद ही झारखंड में आदिवासी जमीन का हस्तांतरण करने का प्रावधान है. जब साल 1949 में संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया तो 1900 के बंदोबस्ती नियम के इस शर्त को धारा 20 में जगह दी गई, जो आज भी लागू है.

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हूल के महानायक

हूल क्रांति से संथाल परगना का जन्म हुआ

हूल क्रांति से पहले संथाल परगना नाम का ये क्षेत्र बंगाल प्रेसिडेंसी के अंदर था. यह क्षेत्र काफी दुर्गम और पहाड़ों-जंगलों के कारण दिन में भी आना-जाना मुश्किल था. पहाड़ की तलहटी में रहने वाले पहाड़िया समुदाय जंगल काटकर खेती योग्य बनाते और उस पर अपना स्वामित्व जमाया, ये लोग अपनी जमीन का राजस्व किसी को नहीं देते थे. इस्ट इंडिया कंपनी के जमींदार जबरन लगान वसूली करते. पहाड़िया लोगों को लगान चुकाने के लिए साहुकार से कर्ज लेना पड़ता था. इस अत्याचार की वजह से आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया.

Last Updated :Jun 30, 2021, 7:01 AM IST
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