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झारखंड का ट्राइबल पॉलिटिक्स, हाशिए पर आदिम जनजातियां, कुपोषण-अशिक्षा और पलायन को मजबूर

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Published : Aug 12, 2022, 5:49 PM IST

Updated : Aug 12, 2022, 8:22 PM IST

विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखंड में जनजातीय महोत्सव मनाया गया. उनके उत्थान की बातें कही गईं. लेकिन सच्चाई ये है कि आज भी आदिम जनजातियां हाशिए पर हैं. कुपोषण, अशिक्षा, बेगारी और पलायन का दंश झेलने को मजबूर हैं.

tribal politics in jharkhand
tribal politics in jharkhand

रांची: आदिम जनजातियों की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस (World Tribal Day) के मौके पर पहली बार झारखंड में जनजातीय महोत्सव (Tribal Festival in Jharkhand) मनाया गया है. मंच से माननीयों ने दबे, कुचले, शोषित और वंचितों को मुख्यधारा में जोड़ने की बातें कही. आदिवासियों की कला-संस्कृति, वेश-भूषा से लेकर खान-पान के अलावा उनके सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पहलुओं पर जमकर मंथन हुआ. महोत्सव के समापन समारोह में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (Chhattisgarh Chief Minister Bhupesh Baghel) भी आए. दो दिनों तक रांची के मोराबादी मैदान में मांदर की थाप सुनाई देती रही. पूरा कार्यक्रम जोहार से शुरू और जोहार के साथ संपन्न हुआ. लेकिन शायद ही किसी की जुबान से आदिम जनजाति शब्द निकला हो.

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आपको जानकर हैरानी होगी कि राज्य बनने के बाद से आजतक आदिम जनजाति समाज का कोई भी नुमाईंदा विधानसभा तक नहीं पहुंच पाया. गुमला के विशुनपुर से विमलचंद्र असुर को साल 2014 में जेवीएम का टिकट मिला, लेकिन जीत वाला वोट नहीं मिला. इनकी आबादी इतनी कम है कि पंचायत चुनाव भी जीतना संभव नहीं हो पाता. भाजपा ने बरहेट से सौरिया पहाड़िया आदिम जनजाति के सीमोन मालतो को टिकट दिया था, लेकिन जीत नहीं हुई. सच यह है कि झारखंड की राजनीति में संथाल, उरांव और मुंडा जनजाति का बोलबाला है, क्योंकि इनके पास वोट है. अब सवाल है कि अगर राजनीतिक पार्टियां आदिम जनजातियों को मौका नहीं देंगी तो यह मुख्यधारा में कैसे आ पाएंगे.

झारखंड के लोग जानते हैं कि यहां की राजनीति जनजातीय समाज के ईर्द-गिर्द घूमती है. ज्यादातर समय इस राज्य की कमान आदिवासी के हाथ में रही है. फिर भी यह समाज दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक को जनजाति और दूसरे को आदिम जनजाति कहते हैं. अंग्रेजी में इन्हें PERTICULARLY VULNERABLE TRIBAL GROUPS यानी पीवीटीजी कहा जाता है. झारखंड की 32 जनजातियों में आठ आदिम जनजातियां है जो राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं. इनकी किस्मत में आज भी कुपोषण, अशिक्षा, बेगारी और पलायन है. पहाड़ों, जंगलों और टोलों में इनका बसेरा है. वनोत्पाद और परंपरागत खेती इनके जीने का जरिया है.

2001 में इनकी जनसंख्या 3.87 लाख थी, जो 2011 में घटकर 2.92 लाख हो गयी है. इनमें माल पहाड़िया और सौरिया पहाड़िया की आबादी करीब डेढ़ लाख हैं. ये दो आदिम जनजातियां मुख्य रूप से संथाल परगना में निवास करती हैं. पहाड़ों पर इनका मालिकाना हक है. सदियों से बरबट्टी की खेती करते आ रहे हैं. इनके अलावा शेष छह आदिम जनजातियों में असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरबा, पहरिया और सबर हैं जिनकी कुल आबादी महज 1.42 लाख के करीब है.

झारखंड का साक्षरता दर 67 प्रतिशत से ज्यादा है. जनजातियों की साक्षरता दर 57 प्रतिशत के करीब है लेकिन आदिम जनजातियों कीसाक्षरता दर महज 39 फीसदी है. इस समाज की 80 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं एनीमिया से ग्रसित हैं. यह वो राज्य है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है. अब समझ सकते हैं कि आदिम जनजातियों के कितने बच्चे कुपोषित होंगे.

इन आठ आदिम जनजातियों की जिंदगी बिरसा आवास योजना और डाकिया योजना पर टिकी हुई है. करीब 77 हजार परिवारों को हर माह अनाज मुहैया कराया जाता है. लेकिन इनके निवाले पर भी सेंध लगाने की खबरें आती रहती हैं. ये इतने भोले होते हैं कि अपनी हक की बात खुलकर नहीं बोल पाते. सच तो यह है कि इन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कोई ठोस पहल आज तक नहीं हुआ. 2018-19 पीवीटीजी ग्राम उत्थान योजना का प्रावधान किया गया था. लेकिन यह योजना उड़ान नहीं भर पाई. अब सवाल है कि क्या दिक्कतें हैं जो आड़े आ रही हैं. कागजों पर इनके लिए बहुत कुछ है फिर भी इनकी जिंदगी नहीं बदल रही है.

Last Updated : Aug 12, 2022, 8:22 PM IST
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