शिमला: वैसे तो देश भर में तरह-तरह के मेले का आयोजन होता है, लेकिन देवभूमि हिमाचल का पत्थर मेला कई मायने में खास है और आज हम अद्भुत हिमाचल के इस सीरीज में इस मेले के परंपरा के बारे में बताे रहे हैं. जिला शिमला के धामी क्षेत्र में दिवाली के अगले दिन अनोखी परंपराओं वाला पत्थर मेला आज भी धूमधाम से मनाया जाता है. पत्थर मेले के इस आयोजन में हजारों लोग शामिल होते हैं.
मान्यता है कि सैकड़ों साल पहले धामी रियासत में यहां स्थित मां भीमाकाली के मंदिर में मानव बलि दी जाती थी. धामी रियासत के राजा राणा की रानी इस मानव बलि के खिलाफ थी. बलि प्रथा पर रोक लगाने के लिए रानी मंदिर के साथ लगते चबूतरे यानि चौरे पर सती हो गई थी. जिसके बाद क्षेत्र में इस परंपरा ने जन्म लिया.
लोग दो समूहों में बंट जाते हैं और एक-दूसरे पर पत्थर से वार करते हैं
परपंरा के अनुसार इलाके के लोग दो समूहों में बंट जाते हैं और एक-दूसरे पर पत्थर से वार करते हैं. इस परंपरा को निभाने के लिए होने वाले खेल को जिस जगह खेला जाता है, उसे चौरा कहा जाता है.
खूंदपत्थर मारने वालों को खूंद कहते हैं
पत्थर मारने वालों को कहते हैं खूंदपत्थर मारने वालों को खूंद कहते हैं. मेले वाले दिन सबसे पहले राज परिवार के सदस्य व राज पुरोहित भगवान श्री नरसिंह मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं. उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ हजारों लोग चौरा पर पहुंचते हैं. राज परिवार के साथ कटैड़ू और तुनड़ु, दगोई, जगोठी के खूंद होते हैं. जबकि दूसरी टोली में जमोगी खूंद के लोग शामिल होते हैं. दोनों टोलियां पूजा अर्चना के बाद पत्थर का खेल शुरू करते हैं.
पत्थर लगने के बाद खून निकलने पर लोग खुश होते हैं
खून निकलने पर खुश होते हैं लोगहैरानी की बात है कि पत्थर लगने के बाद खून निकलने पर लोग खुश होते हैं. दोनों दल एक-दूसरे पर पत्थर मारते हैं और जैसे ही किसी व्यक्ति को पत्थर लगने के कारण खून निकलता है, उसका खून मां भीमाकाली को अर्पित किया जाता है और मेला पूरा हो जाता है. मेले के दौरान स्थानीय प्रशासन की तरफ से एंबुलेंस व मेडिकल टीम का बंदोबस्त भी होता है.