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वन संपदा का धनी है हिमाचल, देवभूमि में फल-फूल रही 3600 दुर्लभ पुष्पीय प्रजातियां

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Published : May 25, 2021, 9:15 PM IST

फोटो.
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छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में मनमोहक वादियों के साथ-साथ दुर्लभ वन संपदा का भंडार है. कांगड़ा जिले के हिमालय जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के वैज्ञानिक इस संपदा का खजाना समृद्ध करने में जुटे हुए हैं. प्रदेश में डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक की वन संपदा है और इसमें 3600 से अधिक दुर्लभ किस्म की पुष्पीय प्रजातियां शामिल हैं. पिछले तीन दशक में वैज्ञानिकों ने 500 से अधिक नई प्रजातियों की खोज की है.

शिमला: पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में दुर्लभ वन संपदा का भंडार है. प्रदेश में डेढ़ लाख करोड़ रुपए से अधिक की वन संपदा है और इसमें 3600 से अधिक दुर्लभ किस्म की पुष्पीय प्रजातियां भी शामिल हैं. यहां कई किस्म के औषधीय व पुष्पीय पौधे फल-फूल रहे हैं. देवभूमि की ये संपदा लगातार बढ़ रही है. प्रदेश के वैज्ञानिकों ने और भी कई प्रजातियों की खोज की है. तीन दशक से हिमालयी क्षेत्रों में शोधरत वैज्ञानिकों ने पांच सौ से अधिक नई पुष्पीय प्रजातियों को तलाशा है.

हिमाचल के कांगड़ा जिले के पालमपुर में स्थित हिमालय जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के वैज्ञानिक लगातार इस संपदा का खजाना समृद्ध करने में जुटे हैं. हिमाचल की जैव विविधता सचमुच कमाल की है. यहां औषधीय पौधों की भी भरमार है. देवभूमि में पवित्र संख्या के अनुकूल 108 किस्म के पौधे औषधीय गुणों से भरपूर हैं और जनता को इनका लाभ भी मिल रहा है.

90 प्रजातियों का किया जा रहा कमर्शियल प्रयोग

हिमाचल के वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार प्रदेश में औषधीय गुणों वाले पौधों की सौ से अधिक किस्में पाई जाती हैं. राज्य की व्यवस्था के मुताबिक इनमें से 90 प्रजातियों का कमर्शियल प्रयोग भी किया जा रहा है. इन प्रजातियों का आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण में इस्तेमाल होता है. अतीश-पतीश, कुटकी, वनफ्शा, चिरायता आदि की मांग अधिक है. इसके अलावा कालाजीरा और शाहीजीरा की इन दिनों अधिक मांग है. ये इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं.

तीन दशक में 500 से अधिक नई प्रजातियों की खोज

पालमपुर के हिमालय जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक डॉ. संजय कुमार का कहना है कि हिमाचल में दुर्लभ किस्म की औषधीय व पुष्पीय प्रजातियां हैं. संस्थान के वैज्ञानिकों ने तीन दशक में 500 से अधिक नई प्रजातियों की खोज भी की है. संस्थान के ही सीनियर वैज्ञानिक संजय उनियाल के मुताबिक प्रदेश में वर्ष 1984 तक कुल 310 पुष्पीय प्रजातियां थीं. संस्थान के वैज्ञानिक तीन दशक से लगातार शोध कर रहे हैं और उन्होंने हिमालयी क्षेत्रों में पांच सौ नई प्रजातियों की खोज की है. ये प्रजातियां हिमाचल प्रदेश में पहली बार पाई गई हैं. इनमें से कुछ उत्तराखंड और लद्दाख क्षेत्र में पहले से मौजूद थीं. औषधीय और पुष्पीय प्रजातियों कितनी कीमती होती हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक हैक्टेयर वन भूमि में एक साल में 8 लाख रुपए की आमदनी होती है.

हर्बल गार्डन में विकसित किए जा रहे 50 दुर्लभ पौधे

हिमालय जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के हर्बल गार्डन में लगभग 50 दुर्लभ पौधे विकसित हो रहे हैं. इनमें से 8 प्रजातियां खेती से जुड़ी हैं. इसी तरह चिकित्सा जगत में महत्वपूर्ण माने जाने वाली सात प्रजातियों को यहां विकसित किया गया है. इनमें करकुमा एरोमेटिका (हिमहल्दी), वेलेरियाना जटामांसी (हिमबाला), हिडीचियम स्पाइकेटम (हिमकचरी), डाइसकोरिया बल्बीबफेर, क्रेटेगस ऑक्सींकेंथा, सिलीबम मेरिनम और कोस्टीस स्पेथसियस शामिल हैं. इनका चिकित्सा संसार में महत्व है.

ब्लड डिसऑर्डर से जुड़े रोगों के लिए रामबाण है हिमालयन बेरी

हिमाचल प्रदेश में लाहौल-स्पीति में छरमा नामक औषधीय गुणों से भरपूर बेरी मिलती है. इसे हिमालयन बेरी भी कहा जाता है. इसका जूस भी तैयार होता है. ये जूस ब्लड डिसऑर्डर से जुड़े रोगों में रामबाण साबित होता है. छरमा से बिस्कुट भी तैयार किए जाते हैं. कुछ निजी कंपनियों ने हिमालयन बेरी जूस के प्लांट स्थापित किए हैं.

कम ऊंचाई वाले इलाकों में 160 प्रजातियों के औषधीय पौधों की पैदावार

हिमाचल प्रदेश में विविध जलवायु के कारण अलग-अलग किस्म की जड़ी बूटियां व औषधीय पौधों की पैदावार होती है. शिवालिक पहाड़ियों में 700 मीटर उंचाई वाले इलाकों जिला ऊना, बिलासपुर, हमीरपुर, सिरमौर, कांगड़ा, सोलन व मंडी में लगभग 160 प्रजातियों के औषधीय पौधों की पैदावार होती है. इन औषधीय पौधों में मुख्य रूप से कस्तूरी भिंडी, खैर, बसूटी, नीलकंठी, घृतकुमारी, चुलाई, शतावर, नीम, ब्रहमी, कचनार, कशमल, पलाह, आक, करौंदा, अमलतास, बाथू, कासमर्द, सफेद मूसली, कपूर वृक्ष, तेजपत्र, झमीरी, लसूड़ा, वरूण, जमालघोटा, काली मूसली, आकाश बेल, धतूरा, भृंगराज, आंवला, दूधली, अंजीर, पलाक्ष, मुलहठी, कुटज, चमेली, कौंच, तुलसी, सर्पगन्धा, एरंड, अश्वगंधा, बन्फशा, हरड़, जामून, अकरकरा, रीठा आदि पैदा होते हैं. कांगड़ा जिला में पालमपुर, शिमला की रामपुर तहसील, मंडी, कुल्लू, चंबा व सिरमौर जिलों के 700-1800 मीटर उंचाई वाले क्षेत्रों में नीलकंठी, संसवाई, दारूहरिदा, भांग, सफेद, मूसली, धतूर, तिल पुष्पी, तरडी, शिंगली-मिंगली, कर्पूर कचरी, जर्मन चमेली, कटफल, जंगी इसबगोल, बादाम, खुमानी, दाड़िम, कंटकारी, चिरायता, ममीरी जैसे औषधीय पौधों की प्रजातियां पाई जाती हैं.

सर्द इलाकों में पाये जाते हैं 60 किस्म के औषधीय पौधे

इसी प्रकार शिमला, कुल्लू, सोलन, चंबा, मंडी, कांगड़ा एवं सिरमौर जिलों के पहाड़ी क्षेत्र जो 1800 से 2500 मीटर की उंचाई वाले सर्द क्षेत्र में लगभग 60 किस्म के औषधीय पौधे पाये जाते हैं. इनमें मुख्यत: तालिस पत्र, पतीस-अतीस, दूधिया, किरमाला, भोजपत्र, देवदारू, निरविसी, कडू, शटी, पतराला, जीवक विषकन्दा, जर्मन चमेली, जटामांसी, चिलगोजा, बनककड़ी, महामेदा, रेवन्द चीनी, बुरांस, काकोली, काली जड़ी, कस्तूरी पत्र, चिरायता, वन अजवायन तथा जंगली प्याज जैसे औषधीय पौधों की प्रजातियां पाई जाती हैं.

यहां पाई जाती है अति महत्वपूर्ण औषधीय पौधों की प्रजातियां

वहीं, 2500 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले जनजातीय जिलों लाहौल-स्पिति और किन्नौर के अलावा कुल्लू, कांगड़ा व शिमला के ऊंचाई वाले सर्द मरूस्थलीय क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण औषधीय पौधों की प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें पतीस, बत्सनाभ, अतीस, ट्रेगन, किरमाला, रतनजोत, काला जीरा, केसर, सोमलता, जंगली हींग, छरमा, खुरासानी अजवायन, पुष्कर मूल, हाऊवेर, धूप, धामनी, निचनी, नेरा, कैजावों, धूप चरैलू, शरगर, गग्गर तथा बुरांस शामिल हैं.

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