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एप्पल स्टेट हिमाचल के सेब पर ग्लोबल वार्मिंग का असर, शिफ्ट हो रही सेब की बेल्ट

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Published : Jun 2, 2021, 3:46 PM IST

Updated : Jun 2, 2021, 5:23 PM IST

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जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल प्रदेश में एप्पल बेल्ट में बदलाव आ रहा है. सेब बागवानी अब ऊंचाई वाले इलाकों यानी हाई बेल्ट की तरफ जा रही है. हिमाचल प्रदेश में 1980 से 1990 के दौर पर नजर डालें तो राज्य में 3600 फीट तक की ऊंचाई वाले इलाकों में भी सेब की अच्छी पैदावार होती थी. विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी के कारण चिलिंग रिक्वायरमेंट पूरी नहीं हो पा रही. जिसकी वजह से सेब का उत्पादन प्रभावित हुआ है.

शिमला: जलवायु परिवर्तन का असर देश की एप्पल स्टेट हिमाचल के सेब उत्पादन पर पड़ने लगा है. सेब की परंपरागत किस्में रॉयल व गोल्डन हाई चिलिंग आवर्स किस्में हैं. इनके लिए चिलिंग आवर्स कम से कम 1600 घंटे चाहिए. मौसम में आए बदलाव और बेमौसमी बारिश के कारण सेब बागानों पर विपरीत असर हुआ है. चिलिंग आवर्स क्या हैं और सेब की शानदार पैदावार में उनकी क्या अहमियत है, इस पर आगे की पंक्तियों में विस्तार से चर्चा करेंगे, परंतु उससे पहले एप्पल स्टेट हिमाचल पर मंडरा रहे ग्लोबल वार्मिंग के खतरों पर बात जरूरी है. इसी जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल प्रदेश में एप्पल बेल्ट में बदलाव आ रहे हैं.

सेब बेल्ट ऊंचाई वाले इलाकों यानी हाई बेल्ट की तरफ जा रही है. हालांकि समय के साथ बदलते बागवानों ने लोअर बेल्ट के लिए उपयोगी किस्मों की पैदावार शुरू कर दी है, परंतु ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहे परिवर्तन को समझना भी जरूरी है. यदि हिमाचल प्रदेश की लोअर बेल्ट की बात करें तो शिमला, मंडी, कुल्लू, सिरमौर और कुछ हद तक बिलासपुर तथा सोलन में परंपरागत रॉयल व गोल्डन किस्मों की पैदावार प्रभावित हुई है.

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पूरी नहीं हो पा रही चिलिंग रिक्वायरमेंट

सोलन जिला में स्थित हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी नौणी के वैज्ञानिक सतीश भारद्वाज के अनुसार बर्फबारी अब पहले के मुकाबले कम हो रही है. डॉ. वाईएस परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के प्रोफेसर सतीश भारद्वाज का कहना है कि पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी के कारण चिलिंग रिक्वायरमेंट पूरी नहीं हो पा रही. पहले दिसंबर और जनवरी में पर्याप्त बर्फबारी हो जाती थी, लेकिन अब स्नो साइकिल शिफ्ट हो गया है. समय पर और पर्याप्त बर्फबारी से सेब बागीचों में अच्छी फ्लावरिंग हो जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है. बाद में असमय ओलावृष्टि से सेब बर्बाद हो जाता है.

सेब की संजीवनी है चिलिंग आवर्स

सेब के पौधे में फल लगने के लिए सात डिग्री सेल्सियस से कम तापमान बेहदजरूरी है. सेब के पौधे दिसंबर माह में सुप्त अवस्था यानी डोरमेंसी में होते हैं. उन्हें इस डोरमेंसी से बाहर आने के लिए सात डिग्री सेल्सियस का तापमान औसतन 1200 से 1600 घंटे तक चाहिए होता है. इन्हीं 1200 से 1600 घंटों को चिलिंग आवर्स कहा जाता है. बागवानी विशेषज्ञ डॉ. एमएस मनकोटिया के अनुसार जब पौधों के लिए चिलिंग आवर्स पूरे हो जाते हैं तो उसकी सुप्त अवस्था खत्म हो जाती है. डोरमेंसी के समय पौधे में मौजूद पोषक तत्व जड़ों की तरफ चले जाते हैं. चिलिंग आवर्स पूरे होने पर पौधे की डोरमेंसी टूटती है और पोषक तत्व फिर से सारे पौधे में एक समान होकर फैल जाते हैं. बेहतर पैदावार के लिए चिलिंग आवर्स पूरे होना जरूरी है.

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हिमाचल में सौ साल का सफर है सेब उत्पादन का

हिमाचल में सेब उत्पादन को सौ बरस से अधिक का समय हो चुका है. इस दौरान प्रदेश ने कई बदलाव देखे हैं. मौसम में भी और पैदावार में भी. पहले सेब की परंपरागत किस्म रॉयल का बोलबाला था. आजकल विदेशी किस्मों की धूम मची है. किस्मों ने भी नए रंग-रूप देखें हैं तो मौसम ने भी बदलाव के कई चरण देख लिए हैं. यदि हिमाचल प्रदेश में 1980 से 1990 के दौरान के समय पर नजर डालें तो राज्य में 3600 फीट तक की ऊंचाई वाले इलाकों में भी सेब की अच्छी पैदावार होती थी. अब मौसम में बदलाव है और उक्त ऊंचाई वाले इलाकों का तापमान बढ़ने से यहां सेब का उत्पादन प्रभावित हुआ है. ये अलग बात है कि ऐसे इलाकों में अब अपेक्षाकृत कम चिलिंग आवर्स की जरूरत वाली नई किस्में पैदा की जा रही हैं. हाई बेल्ट की तरफ एप्पल प्रोडक्शन के शिफ्ट होने का कारण बर्फ का कम गिरना है.

आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1981 से वर्ष 1985 के बीच हिमाचल प्रदेश में 827.38 सेटीमीटर तक बर्फ गिरी थी. वहीं साल 2011-2012 में यह बर्फबारी कम होकर केवल 82.8 सेंटीमीटर रह गई. यहां यह रोमांचक उल्लेख जरूरी है. हिमाचल के गर्म जलवायु वाले जिला बिलासपुर में एक प्रगतिशील बागवान हरिमन ने गर्म जलवायु में भी सेब उगा कर वैज्ञानकों को हैरान कर दिया है. सेब पैदा करने के लिए कम से कम 1200 से 1600 चिलिंग आवर्स जरूरी हैं. यानी तापमान में काफी ठंडक होनी चाहिए, लेकिन हरिमन ने गर्म इलाके में भी सेब पैदा कर दिखाया है. हरिमन शर्मा बिलासपुर के पनियाला गांव में अपनी नर्सरी में सेब पर अनुसंधान करने के लिए जाने जाते हैं. उनकी खोज को वैज्ञानिक समुदाय भी हैरानी से देखता है.

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राज्य की आर्थिकी का मुख्य आधार है सेब उत्पादन

प्रगतिशील बागवान पंकज डोगरा ने कहा कि हिमाचल प्रदेश जो कि सेब राज्य के नाम से विख्यात है जहां पर साढ़े तीन से चार हजार करोड़ रुपये का फल बागवानी का कारोबार होता है. यह राज्य की आर्थिकी का मुख्य आधार है, लेकिन यह आर्थिकी क्लाइमेट चेंज के कारण बदलाव के दौर से गुजर रही है. अमूमन हिमाचल प्रदेश में 1970 से लेकर आज तक, जो 50 साल का सेब का सफर रहा है इन 50 साल में क्लाइमेट में बहुत सारा चेंज आया है. बहुत सारे बदलाव देखने को मिले हैं और उन बदलाव के कारण सेब की पैदावार पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से काफी सारे प्रभाव पड़े हैं. सत्तर से नब्बे के दशक के बीच अच्छी बर्फबारी होती थी, लेकिन अब पिछले 20 वर्षों में इतनी बर्फबारी हो नहीं रही है. इसी कारण से सेब की बागवानी सिकुड़ती जा रही है. हिमाचल प्रदेश में जहां से सेब बागवानी की शुरुआत होती है. करीब तीन साढ़े तीन हजार फीट पर जिला सिरमौर का राजगढ़ क्षेत्र तो सेब की बागवानी के लिए विख्यात रहे हैं. इनमें सेब की कुछ किस्में विख्यात होती थी. ये किस्में अस्सी और नब्बे के दशक में काफी प्रसिद्ध होती थी, लेकिन क्लाइमेट चेंज के कारण तराई वाले जो क्षेत्र है. वहां से सेब की बागवानी धीरे-धीरे सिमट कर ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर खिसकती जा रही है.

उन्होंने कहा कि एप्पल बेल्ट जो हमारी परंपरा है. जैसे रेड डिलीशियस है या पॉलिनेशन के लिए गोल्डन है. इस सेब को 1400 से 1600 घंटे की चिलिंग ऑवर की जरूरत होती है. वह पूरी नहीं हो पा रही है, क्योंकि मौसम गर्म हो चुका है. बर्फबारी हो नहीं रही है. इसलिए वहां से लोग अब पलायन कर गए हैं और गुठलीदार फलों की ओर जैसे पल्म और बादाम पर ध्यान दे रहे हैं . निचले क्षेत्रों में सेब अब उतना नहीं हो पा रहा है, लेकिन अभी भी जो पांच हजार फीट या उससे ऊपर के क्षेत्र हैं जोकि लोअर बेल्ट ही माने जाते हैं वहां बागवानों ने परंपरागत अधिक चिलिंग ऑवर वाली किस्मों के स्थान पर कुछ नई हाई कलर स्ट्रेन का रुख कर लिया है, लेकिन जो सेब हिमाचल प्रदेश में पैदा होता आया है. वह अब आठ हजार से 9 हज़ार फीट पर पैदा हो रहा है, क्योंकि आठ से नौ हजार की ऊंचाई पर ही परम्परागत वैराइटी के लिए चिलिंग ऑवर पूरे हो पाते हैं.

'हिमाचल में पेड़ों पर उगते हैं पैसे'

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक संदर्भ में कहा था कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगते, लेकिन हिमाचल में सचमुच पेड़ों पर पैसे लगते हैं. ये पैसे लाल-लाल सेब के बगीचों में लगते हैं. हिमाचल ने सेब उत्पादन में काफी नाम कमाया है. यहां का रसीला सेब न केवल लोगों की सेहत सुधारता है, बल्कि प्रदेश की आर्थिक सेहत का भी ख्याल रखता है. हिमाचल में परंपरागत सेब किस्म रॉयल के अलावा विदेशी किस्मों को भी उगाया जाता है. सेब उत्पादन के कारण ही हिमाचल के दो गांव एशिया के सबसे अमीर गांवों में शुमार हो चुके हैं. पूर्व में शिमला जिला का क्यारी गांव लंबे समय तक रिचेस्ट विलेज ऑफ एशिया रहा है. बाद में शिमला का ही मड़ावग गांव सबसे अमीर गांव रहा. यहां बागवानों के पास रेंज रोवर जैसी बेहतरीन गाड़ियां भी हैं. हिमाचल में चार लाख बागवान परिवार हैं. यहां का सालाना सेब कारोबार 3500 से 4000 करोड़ रुपए का है. प्रदेश का अस्सी फीसदी सेब अकेले शिमला जिला में होता है.

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Last Updated :Jun 2, 2021, 5:23 PM IST
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