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सहकारी समितियों का नया युग, एक जीवंत लोकतंत्र में आर्थिक विकास का उपकरण

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 18, 2023, 2:31 PM IST

भारत सरकार हाल में नई सहकारी नीति लेकर आयी है. जिसे लेकर सहकारी समितियों को एक बार फिर उम्मीद की नई किरण दिख रही है. सहकारी समितियों की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका के बारे में बता रहे हैं बी येराम राजू. (Cooperatives Enter New Era, Economic Growth In A Vibrant Democracy)

Cooperatives Enter New Era
प्रतिकात्मक तस्वीर

आजादी के बाद तीसरी पंचवर्षिय योजना के तक हमारी वित्तिय प्लानिंग का महत्वपूर्ण हिस्सा रही सहकारी समतियां कैसे अगले कुछ सालों में आर्थिक नीतियों की पटरी से उतर गई. यह सवाल रोचक है. सहकारी समितियों की कल्पना ग्रामीण विकास के अहम हिस्से के रूप में की गई थी. यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इसकी समीक्षा ग्रामीण विकास विभाग के रूप में की थी. हालांकि, कृषि और ग्रामीण विकास के लिए संस्थागत ऋण की व्यवस्था की समीक्षा करने के लिए बनी समिति के सिफारिशों के बाद 1982 में नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड ग्रामीण विकास का गठन किया गया.

सहकारी समितियों को प्राथमिक कृषि सहकारी क्रेडिट सोसाइटीज (PACS) की स्थापना के माध्यम से कृषि क्षेत्र में धन उपलब्ध कराने के लिए गठित किया गया था लेकिन बाद में वे आर्थिक गतिविधियों के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गए. जिसमें मत्स्य, डेयरी निर्माता, प्रसंस्करण, विपणन, पर्यटन, शिक्षा, अस्पताल, आवास और अचल संपत्ति से संबंधित क्षेत्र है. इस समय एक अनुमान के अनुसार लगभग 5 लाख सहकारी समितियां हैं.

वर्तमान एनडीए सरकार के दौरान केंद्रीय सरकार ने 2021 में अलग -अलग मंत्रालय के गठन के साथ सहकारी क्षेत्र को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया. एक राष्ट्रीय सहकारी नीति तैयार की गई है. ऐसे समय में जब हम सहकारी सप्ताह मना रहे हैं, इस सेक्टर की प्रगति की समीक्षा महत्वपूर्ण है. यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय लोकतंत्र के प्रत्येक राजनीतिक नेता की जड़ें उनके गांव की सहकारी समितियों में हैं.

सहकारी का मूल सिद्धांत स्वामित्व, सदस्य केंद्रितता और डेमोक्रेटिक सेटअप है. यह ढांचा तेजी से, न्यायसंगत और समावेशी विकास प्राप्त करने में महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय सहकारी नीति की शुरुआत 'सहकर से समृद्धि' (सहयोग के माध्यम से समृद्धि) के एक दृष्टिकोण के साथ होती है, जो मूलभूत सहकारी सिद्धांतों के आधार पर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए एक तरह से आगे बढ़ती है. नीति यह मानती है कि सहकारी समितियां स्व-सहायता, स्व-जिम्मेदारी, लोकतंत्र, समानता, इक्विटी और एकजुटता के मूल्यों में अंतर्निहित हैं. भारत का संविधान भी अनुच्छेद 19 के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में सहकारी समितियों को बनाने के अधिकार को भी प्रस्तुत करता है.

21वीं सदी ने लोगों, संगठनों और सरकारी कार्य के तरीके को बदल दिया है. केंद्र सरकार की सहकारी नीति का उद्देश्य एक सहकारी-आधारित आर्थिक विकास मॉडल को आगे बढ़ाना है. जिसमें वर्तमान सामाजिक-आर्थिक संदर्भ को शामिल करते हुए एक स्थायी मॉडल बनाना है जो राष्ट्र के लिए समृद्धि लाये.

राष्ट्रीय सहकारी नीति स्थायी आजीविका और समृद्धि को बढ़ाने के लिए उद्यमशीलता, व्यवसाय और बाजार में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का दावा करती है. हालांकि नीति में कई चुनौतियों को स्वीकार भी किया गया है. जिसमें पूंजी तक पहुंच की कमी, सदस्य जागरूकता और सामंजस्य की कमी, कमजोर प्रबंधन और शासन, नियमों की समझ की कमी, अनुचित लेखांकन, तकनीकी प्रगति की अपर्याप्त जानकारी प्रमुख है. ऐसी चुनौतियों पर काबू पाना एक विनम्र काम है.

व्यक्तिगत सदस्यों और संस्थानों के बीच हितों का अंतर्निहित टकराव भी एक प्रमुख चुनौती है. नीति में सहकारी समितियों को नियंत्रित करने वाले कानूनी और नियामक मानदंडों में बदलाव की जरूरत को भी रेखांकित किया गया है. क्योंकि यह केंद्र और राज्य सरकारों के दोहरे नियंत्रण के तहत आने वाला मुद्दा है. प्रत्येक राज्य सरकार का अपना कानून है. एक बड़ी चुनौती यह भी है कि सहकारी समितियों को पावर सेंटर के रूप में देखा जाता है न कि अर्थव्यवस्था के विकास केंद्रों के रूप में.

राष्ट्रीय नीति के कई प्रशंसनीय उद्देश्य हैं. जिसमें 2028 तक जीडीपी में सहकारी समितियों की हिस्सेदारी में वृद्धि, अधिक रोजगार के अवसर पैदा करना, क्षेत्रीय असंतुलन को कम करना, शासन में सुधार करना, सहकारी ब्रांड छवि विकसित करना, एक राष्ट्रीय सहकारी विश्वविद्यालय की स्थापना करना, विविध सहकारी प्रथाओं में एकरूपता लाना, प्रशिक्षण, विकास, विकास, सदस्यता को मजबूत करना, सदस्यता को मजबूत करना, बाजार पहुंच में सुधार करना और उनके उत्थान के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना शामिल है.

नई सहकारी नीति में ग्रामीण क्षेत्रों में 63000 जमीनी स्तर की सहकारी समितियों के प्रौद्योगिकी विकास की शुरुआत पर बल दिया गया है. जिसके लिए 2024 तक लगभग 2500 करोड़ रुपये के बजट की व्यवस्था की गई है. नबार्ड को तकनीकी विकास का काम सौंपा गया है. अगले तीन वर्षों के भीतर सभी ग्रामीण सहकारी समितियों को कवर करने का लक्ष्य रखा गया है.

एक लेख में सहकारी समितियों के बारे में समग्रता से कुछ कह पाना मुश्किल है. मैं इस लेख में शहरी सहकारी बैंकों पर अधिक ध्यान केंद्रीत करुंगा. जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में पड़ोस के बैंक के रूप में भी जाना जाता है. वित्तीय सहकारी समितियां मोटे तौर पर हिस्सों में बांटी गई है- ग्रामीण और शहरी. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया 2023 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2021 तक, 98,042 सहकारी समितियां थीं, जिनमें 1,534 यूसीबी और 96,508 ग्रामीण सहकारी समितियां शामिल थीं. मार्च 2020 के अंत में सहकारी बैंकिंग क्षेत्र का कुल बैलेंस शीट आकार 8.8 लाख करोड़ रुपये का था.

शहरी सहकारी बैंक वित्तीय क्षेत्र में लगभग 8 प्रतिशत हिस्सेदारी रखते हैं. UCBs नेबरहुड बैंक हैं जो राज्य सहकारी अधिनियमों और बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 और इसके संशोधनों के नियमों के तहत आते हैं. वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट जून 2023 वित्तीय क्षेत्र में उनके योगदान को स्वीकार करती है. UCBs की क्रेडिट वृद्धि अनुसूचित और गैर-अनुसूचित दोनों UCBs क्रमशः 6.7 प्रतिशत और 4.9 प्रतिशत तक पहुंच गई. हाल के दिनों में कई सहकारी बैंक कुछ अप्रिय कारणों से प्रेस और मीडिया में छाये रहे. इनमें ज्यादातर शहरी क्षेत्र से संबंधित थे.

पीएमसी बैंक की विफलता के बाद आरबीआई ने सेविंग्स पर गारंटी की सीमा को एक लाख रुपये से बढ़ा कर पांच लाख रुपये कर दिया. जमाकर्ताओं के हितों ने विफलताओं और अनियमितताओं की एक श्रृंखला के बाद नियामक के प्रमुख हित पर कब्जा कर लिया. मजबूत बैंकों के साथ कमजोर बैंकों के विलय के माध्यम से बैंकों को समेकित किया गया. यूसीबीएस में उनके व्यापारिक स्तरों के आधार पर उनकी विषमता को देखते हुए 4-स्तरीय सुरक्षा संरचना लागू करने का फैसला लिया गया.

पढ़ें : शाह ने की राष्ट्रीय सहकारी नीति दस्तावेज का मसौदा तैयार करने के लिए समिति के गठन की घोषणा

कई राज्यों में सहकारी बैंकों (TAFCUB) पर टास्क फोर्स का एजेंडा आरबीआई की ओर से तैयार किया जा रहा है. पिछले दस वर्षों के दौरान इसका कामकाज बहुत नियमित हो गया है. चूंकि TAFCUB का उद्देश्य उच्च स्तर तक उन्हें बढ़ाए बिना स्थानीय नियामक मुद्दों को हल करना है, इसके साथ ही यूसीबी की कार्यात्मक दक्षता में सुधार करना है, यह वांछनीय और आवश्यक है कि एजेंडा अधिक स्पष्ट हो जाये.

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