विशाल सूर्यकांत-
देश की राजधानी दिल्ली में लोगों की सुरक्षा पर एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है. शुक्रवार की रात मुंडका मेट्रो स्टेशन के पास एक इमारत में फिर लापरवाहियों की आग दो दर्जन से भी ज्यादा लोगों को लील गई. अचानक धू-धू करती लपटों ने न अंदर बचने का मौका छोड़ा और न ही बाहर निकलने का रास्ता छोड़ा. आग की लपटें जैसे-जैसे बिल्डिंग को अपनी गिरफ्त में लेने लगी, हर तरफ चीख-पुकार सुनाई देने लगी. आग से बचने के लिए लोग मंजिलों नीचे कूदते नजर आए. लगता है कि दिल्ली के लिए आग,एक ऐसी नियति बन चुकी है जिसे संभालना किसी के बूते की बात नहीं रह गई.
कानून तो यह है कि बिना फायर एनओसी के किसी इमारत में गतिविधियां शुरू नहीं हो सकती लेकिन कायदे किस ढर्रे पर चल रहे हैं वो इस अग्निकांड के बाद अलग से बताने की जरूरत नहीं. चारों और शीशे की खोल में लिपटी इमारत में इतनी तक जगह नहीं थी कि इमरजेंसी एक्जिट मिल सके. इमारत से नीचे कूदती जिदंगियों ने अहसास करवा दिया कि न तब व्यवस्थाएं दुरुस्त थी और न बचाव-राहत के इंतजाम दुरुस्त हो पाए . ये वो दिल्ली है जहां से देश चलता है, राज्यों की सरकारों को निर्देश दिए जाते हैं . मगर अफसोस कि त्रासद घटनाएं और लापरवाह व्यवस्थाओं की बानगी यहीं से निकलती है. सवाल यह है कि फिर क्या बदला ?
1997 में दिल्ली में उपहार सिनेमाघर में हुए अग्निकांड में 57 जिंदगियां हमेशा के लिए परिवार से दूर हो गई. इस घटना के बाद न जाने कितने दावे किए गए . उपहार मामले में केस अभी तक अदालतों की चौखट के इर्द-गिर्द घूम रहा है. 25 साल बाद फिर अगर दिल्ली में उसी तर्ज पर हादसा हो और सइसके बाद भी घटनाओं का सिलसिला नहीं थमा. 25 सालों में एक पीढ़ी तैयार हो जाया करती है. सोचिए नई पीढ़ी को हम कैसी व्यवस्थाएं दे रहे हैं दिल्ली में ? भारी आबादी की बसाहट, ट्रैफिक की बेतरतीब फसावट के बीच महज 20-30 फीट की गलियों में व्यावसायिक बहुमंजिला इमारतें बनाने की अनुमति कैसे मिल जाती है. नियम साफ है कि फायर की एनओसी चाहिए . लेकिन इसके लिए भी भ्रष्टाचार का पूरा तंत्र तैयार खड़ा है. दिल्ली में क्या बहुमंजिला इमारतें और क्या भलस्वा लैंड फिलिंग साइड जैसे इलाके, आग की त्रासद घटनाओं से कहीं राहत नहीं मिल रही. बीते दशकों में देखें तो दिल्ली में अक्सर ऐसे अग्निकांड होते रहे हैं जिनसे ऐसी तबाही होती है कि दशकों तक मंज़र भूले नहीं जाते.आपको बता दें कि अभी भलस्वा लैंडफिलिंग साइड पर लगी आग का किस्सा पूरी तरह से अब तक खत्म नहीं हुआ. बीते दिनों में जब आग लगी तो प्रदूषण की मार इतनी हो गई कि भलस्वा क्षेत्र में कई दिनों तक बच्चों के स्कूल बंद करने पड़े.
इसी तरह 2019 में दिल्ली के रानी झांसी मार्ग स्थित अनाज मंडी की एक इमारत में लगी आग से 43 जानें चली गई थी. अवैध तरीके से चलाई जा रही फैक्ट्री में काम कर रहे मजदूर लापरवाहियों का शिकार बन गए. फरवरी 2019 का किस्सा भी सामने हैं जब मध्य दिल्ली के करोल बाग स्थित एक होटल में आग लगी. जनवरी 2018 में बाहरी दिल्ली के बवाना में स्थित एक पटाखा फैक्टरी में आग लगी। इस घटना में सात महिलाएं सहित 17 लोगों की मौत हो गई. नवंबर 2011 में उत्तर-पूर्व दिल्ली के नंद नगरी के सामुदायिक केंद्र में आग से 14 लोग मारे गए. दिल्ली में लगातार होती घटनाओं पर सरकारी नुमाइंदों से पूछिए तो कहेंगे कि दिल्ली में गर्मी का असर रहता है इसीलिए आग लग रही है. मगर सवाल यह है कि आग की रोकथाम के लिए इंतजामात की भी तो जिम्मेदारियां तय हैं. आग लगने के बाद कुंआ खोदेंगे तो क्या होगा ?
केन्द्र और राज्य की राजनीतिक उलझनों में फंसी दिल्ली की जनता मानों किसी अभिशप्त जीवन से गुजर रही है, जहां राजधानी में होने के गुमान भी है, मगर जनता की सुविधा और सुरक्षा की कई दफा देश के पिछड़े इलाकों से भी गए गुजरे नजर आते हैं . आग लगने की इस त्रासद घटना में इमारत के मालिकों को पुलिस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है . उम्मीद है कि उपहार त्रासदी की तरह इस मामले में 25 सालों का इंतजार नहीं होगा. सरकारों को ऐसी त्रासद घटनाओं के लिए व्यवस्थाओं की निगरानी करने वाले जिम्मेदार अधिकारी और कर्मचारियों को तुरंत बर्खास्त कर अपाराधिक मुकदमे चलाना चाहिए. दिल्ली में ये अकेली नहीं बल्कि सैकड़ों ऐसी इमारतें हैं जहां आबादी बढ़ गई और सडकें सिमट चुकी हैं. इन इमारतों का सर्वे कर जहां इमरजेंसी एक्जिट जैसे नियमों की अवहेलना हो, तुरंत सील कर देना चाहिए. दिल्ली को हादसों को झेलने के लिए नहीं बल्कि हादसों से ल़ड़ने के लिए तैयार कीजिए. दिल्ली में नेताओं के शोक संदेशों से सोशल मीडिया के गलियारे भरे पड़े हैं. शोक संदेश नहीं हमें गुनेहगारों के लिए सख्त संदेश चाहिए
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