नई दिल्ली : दीपावली से पहले अगर आपको प्रदूषण का डर खाए जा रहा है. महंगाई ने अगर आपकी कमर तोड़ दी है और रोशनी के त्योहार पर आस्था का असर अगर मद्धिम पड़ता जा रहा है, तो खुश हो जाइए, क्योंकि हम जो खुशखबर आपको देने वाले हैं, उसे जानकर आपको कुछ राहत मिलेगी. दरअसल, हरित भू- अहं पर्यावरण रक्षामि.. का महामंत्र अपने मन में लिए दिल्ली के मुखमेलपुर में गोबर के दीए बनाए जा रहे हैं. प्रकृति को संवारने का बीड़ा उठाए युवक विकास भारतीय अपने गांव अलीपुर और आसपास के इलाके में गरीबों के लिए खुशियों की ये सौगात दिवाली से ठीक पहले लेकर आए हैं. विकास भारती बताते हैं कि दिवाली पर प्रदूषण को लेकर प्रशासन सख्त है, NGT यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी पटाखे और धुएं को लेकर सख्त निर्देश दिए हैं. ऐसे में मिट्टी के दीए बनाने की परंपरा मद्धिम पड़ रही है. एक तो पहले से ही कुम्हारों को मिट्टी ज्यादा नहीं मिल पाती थी. अब कच्चे दीए और बर्तनों को पकाने के लिए लकड़ी, कंडे और ईंधन भी महंगे हो गए हैं. ऐसे में बाजार में पहुंचने वाले दीए की कीमत तो आसमान से बातें कर रही है. लिहाजा गाय के गोबर के दीए बनाने की सोच को साकर कर दिखाया है. जो अब इलाके के कई परिवारों के लिए रोजी-रोटी का जरिया भी बन गया है. इतना ही नहीं गौशालाओं में भी इन दीयों के जरिए खुशियों की चंद किरणें पहुंचने लगी हैं. गौशालाओं से गोबर खरीदकर ये दीए बनाए जा रहे हैं. गाय के गोबर के दीए मोल्डिंग मशीन से तो बन ही रहे हैं, कई परिवार इन्हें हाथों की उंगलियों से भी सुन्दरता की नई सूरत दे रहे हैं.
गाय का गोबर दीए बनाने वाली चिकनी मिट्टी के मुकाबले सस्ता हैं. और तो और जहां मिट्टी के दीए चाक पर बनाने, सुखाने और पकाने में कई दिनों का समय लगता था, वहीं अब गोबर के दीए फटाफट अंदाज में सुबह से शाम तक हजारों की तादाद में तैयार हो रहे हैं. विकास भारती के इस नवाचार से कम से कम NGT के नियमों को कहीं पर लांघने की जरूरत ही नहीं. मिट्टी के दीए 3-4 रुपए के पड़ते हैं, जबकि गोबर के ये दीए डेढ़ से दो रुपए में मिलते हैं. इसीलिए अब न महंगाई की मुश्किल है, न प्रदूषण का झमेला. इसे बनाने वालों की कमाई भी टनाटन सौ फीसदी खरी-खरी है. मौका त्यौहार का है तो बात सिर्फ कमाई की क्यों ? अरे! बचत भी सॉलिड है. अब करीब आधे दाम मे दीए मिल रहे हैं. बाजार में गोबर के दीयों की मांग बहुत अधिक है. हालांकि उत्पादन फिलहाल कम है, लेकिन ये तो पक्का मानिए कि आने वाले दौर में इन दीयों की मांग दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ने वाली है.
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गोबर के ये दीए एक बार इस्तेमाल के बाद प्रकृति के लिए वरदान भी साबित होने वाले हैं. दरअसल, गोबर के दीए इस्तेमाल के बात पानी में घोलकर खेत और गमलों में डाल दें तो ये देसी खाद बन जाती है. जिससे प्रकृति की गोद में ये पौधे ऐसे मुस्कुराने लगते हैं, जैसे मां की गोद में किलकारियां मारता मासूम बच्चा. कितना विह्वल करने वाला, भावनाओं से ओतप्रोत और दिल को सुकून देने वाला ये अहसास है. तो आइए दो कदम हम भी बढ़ाएं. गोबर के इन दीयों को ही दिवाली पर जलाने का संकल्प लेते हैं. ताकि देश-समाज, व्यवस्था और परंपराओं को नया सवेरा, नया आयाम दे सकें. और सबसे बड़ी बात तो ये कि किसी को महंगाई पर मन न मसोसना पड़े और प्रदूषण के बहाने आसमान सिर पर उठाने वालों को गंगा में जौ बोने के बड़े अभियान में लगाएं. आखिर देश में कुछ तो सार्थक हो, क्योंकि सोने पे सुहागा आपको ही करना है. तभी तो मनेगी खुशियों वाली हैप्पी दिवाली.
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