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'यमुना का दर्द' : सभ्यता का आधार 'मां' असभ्यता के बोझ से कराह रही है

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Published : Apr 18, 2022, 12:57 PM IST

हिंदुस्तान में नदियों की महिमा और उनकी महत्ता की निशानियां मील दर मील और लगभग हर जिले, अंचल और प्रदेश में मिल जाएंगी. लेकिन विडंबना ये है कि जिस देश में नदियों को माता का दर्जा मिला है. उसी देश में नदियों में कचरा उड़ेला जा रहा है.

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नई दिल्ली : सभ्यताओं के विकास का सबसे बड़ा सच ये है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में सभ्यताओं के विकास का सबसे बड़ा आधार जल स्रोत और ख़ास तौर से नदियां रही हैं. मिस्र से लेकर जापान तक हर देश और हर दौर में नदियों की ऐसी महत्ता के पद चिन्ह आज भी मौजूद हैं. हिंदुस्तान में नदियों की महिमा और उनकी महत्ता की निशानियां मील दर मील और लगभग हर जिले, अंचल और प्रदेश में मिल जाएंगी. लेकिन विडंबना ये है कि जिस देश में नदियों को माता का दर्जा मिला है. उसी देश में नदियों में कचरा उड़ेला जा रहा है.

प्रधानमंत्री देश की सबसे पवित्र और सबसे महत्ता वाली नदी गंगा को निर्मल बनाने के वादे करते हैं. गंगा एक्शन प्लान की तर्ज पर नमामि गंगे योजना शुरू हुई. गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने के नाम पर हजारों करोड़ का वारा-न्यारा हो गया, लेकिन गंगा मैली की मैली ही रह गई. हालत यमुना की भी कुछ अलग नहीं, बल्कि गंगा से भी ज्यादा दयनीय हो गई है. दिल्ली से यमुना में कचरा उड़ेलने का सिलसिला शुरू होता है जो इसके त्रिवेणी में विलीन होने से ठीक पहले तक जारी रहता है.

'यमुना का दर्द' : सभ्यता का आधार 'मां' असभ्यता के बोझ से कराह रही है

क्योटो और पेरिस की तर्ज वाली राजनीति जब से शुरू हुई, तब से दिल्ली से लेकर काशी तक नदियों की निर्मलता के सियासी नारे गूंजने लगे, लेकिन सदिच्छाओं की परिणति आज तक शून्य ही है. इसकी जीती-जागती, रोती और कराहती मिसाल है दिल्ली की यमुना. इस नाजुक दौर में जब इशारों में धार्मिक भावनाएं आहत होकर कई बार छिन्न-भिन्न हो जाती हैं. इसी दौर में यमुना, गंगा और देश भर की तमाम नदियों को कचरा निस्तारण का माध्यम मात्र मान लिया गया है. दिल्ली के ITO और कालिंदीकुंज में यमुना ब्रिज और बैराज दोनों पर हर दिन, हर पहर देखने को मिलता है.

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'यमुना का दर्द' : सभ्यता का आधार 'मां' असभ्यता के बोझ से कराह रही है

कातर निगाहों से बचपन करता है यहां कूड़े का इंतजार

विडंबना ये भी है कि इसी दौर में दिल्ली जिसे सदियों से देश की राजधानी होने का गौरव हासिल है. उसी दिल्ली के अनगिनत नौनिहाल, शिक्षा, स्कूल, सेहत और स्वच्छ माहौल से महरूम इसी यमुना के सहारे घर के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में जुटे हैं.

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'यमुना का दर्द' : सभ्यता का आधार 'मां' असभ्यता के बोझ से कराह रही है

ITO और कालिंदी कुंज बैराज पर ऐसे मासूम बच्चे आती-जाती कारों और बाइक व स्कूटी को कातर भाव से देखते हैं. इनमें से अक्सर कोई एक-दो रुकता है. एक थैली हाथ में होती है, जिसे लपककर बच्चा थाम लेता है. और ठिठकता है कि दूसरे हाथ से पर्स से 10 या 20 रुपए इनके हाथ पर रख दिए जाते हैं.

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कार जिंदगी की राह में आगे फर्राटे भरती है और इधर बच्चे की नजरें पॉलीथीन बैग में पड़ी पूजा सामग्री में जिंदगी का जरिया और रोटी की उम्मीदें खंगालने लगती हैं. कई बार कार से कूड़े की थैली थामने की बच्चों में ऐसी होड़ लगती है कि हादसे तक की नौबत आन पड़ती है.

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यमुना के नालों को ऐसे महसूस करने का संयोग आपको जीवन में कभी मिला?

दिल्ली में एक नहीं अनगिनत बड़े नाले हैं, जो लाखों गैलन कचरा और अनट्रीटेड सीवेज सीधे यमुना में उड़ेलते हैं. ऐसे में यमुना भला क्यों न कराहे. यमुना मैली नहीं होगी तो क्या स्वच्छ होगी. दिल्ली से लेकर हरियाणा तक अनेकों बड़े तबेले और गौशालाओं का कचरा सीधे यमुना में डाल दिया जाता है. जिसमें गोबर से लेकर मिट्टी और कई तरह का कचरा शामिल होता है. ऐसे में यमुना मैली नहीं होगी तो क्या स्वच्छ होगी. दिखावे के लिए छठ और ऐसे पर्व पर दिल्ली में बैठे प्रदूषण नियंत्रण के बड़े जिम्मेदार फरमान जारी करके घाटों पर पूजा की मनाही तो कर देते हैं, लेकिन साल के बाकी 364 दिन यमुना की कितनी सुध ली जाती है.

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नदियों में डिटर्जेंट और किसी भी तरह के केमिकल और फैक्ट्रियों का कचरा डालने पर सख्त सजा और जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन सुविधा के सहारे सारी व्यवस्थाएं सारगर्भित मान व अभिमान के साथ चलती जा रही हैं. लंबे ट्रैफिक जाम के बीच जब कभी दिल्ली के नालों के ऊपर फंसे हों और कार का शीशा खोलें तो सांसों को थामने वाली तीव्र दुर्गंध बता देती है कि यमुना आज कितना कराह रही है. क्या ऐसा संयोग कभी स्वच्छता के कर्णधार अधिकारियों, नेता, मंत्रियों और आला दर्जे के नीति-नियंताओं को कभी नहीं मिला. मान लेते हैं कि नहीं मिला होगा. तो क्या नदियों का निराला नजारा देखने का भी मन कभी नहीं हुआ. अगर ऐसा होता तो कम से कम यमुना में उमड़ती-घुमड़ती बहती कालिमा तो नजर आ ही जाती. अगर ये भी संयोग नहीं हुआ तो ये मान लेना चाहिए कि नीति-नियंताओं की नजरें और नजरिया दोनों कुत्सित हो चुकी हैं. उनके मन में मैल और नीयत में ही खोट है.

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प्रदूषित नदियों को निहारने का डरावना अनुभव

नदियों की निर्मल जलधारा में अपनी छवि, अपना चेहरा निहारने का मेरा अपना अनुभव बड़ा ही खराब रहा है. मैंने जब भी कभी नदियों के नजारे निगाहों में समेटते हुए पानी में अपनी छवी देखने की कोशिश की, मुझे कालिमा से लबरेज डरावनी तस्वीर से ज्यादा कुछ न नजर आई. मैं कई बार अपनी इस छवि को देखकर डर गया हूं. ऐसा करते हुए मुझे कई बार नदी में बहती पन्नियां, मरे हुए जानवर ख़ास तौर से कुत्ते, बिल्लियां, खरगोश और कई बार तो चूहे भी नजर आ जाते हैं. ये तो किसी न किसी जलचर का भोजन बन जाते होंगे, क्योंकि ऑर्गेनिक हैं, जीव हैं. लेकिन उन शानदार काली-सुनहरी लेबल वाली बोतलों, पन्नियों व थैलियों का क्या जो न कभी सड़ती हैं, न गलती हैं.

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यमुना पुत्र के नाम से प्रसिद्ध मोहम्मद ज़ाकिर 25 साल से कर रह हैं यमुना की सफाई

ऐसी थैलियों, शराब और पानी की बोतलों के साथ ही तमाम मरे हुए जानवरों और बहते कचरे को निकालने का काम कर रहे हैं मोहम्मद ज़ाकिर. जो करीब तीन दशक से अपने तीन साथियों के साथ यमुना तट पर ही जिंदगी गुजार रहे हैं. ज़ाकिर रात खाना खाने और सोने के लिए ही घर जाते हैं. बाकी उनका सारा समय यमुना के तट पर ही बीतता है. ये यहां से दूर-दूर तक और यमुना में बहते हर कचरे, जानवर और बोतलों को निकालकर कूड़े के डिब्बों में रखते हैं. पिर इसका निस्तारण करते हैं. इलाके में मोहम्मद ज़ाकिर यमुना पुत्र के नाम से भी जाने जाते हैं. क्योंकि इनकी ज़िंदगी का एक बड़ा अर्सा यमुना की सफाई में गुजर चुका है. कई बार इनके मिलने वाले घर की बजाय सीधे यमुना किनारे पहुंचते हैं. क्योंकि ज्यादातर लोगों को ये पता है कि ज़ाकिर यमुना किनारे ही मिलेंगे. मोहम्मद ज़ाकिर बताते हैं कि हर दिन कई छोटे-बड़े जानवरों के शव, अनगिनत शराब व पानी की बोतलें और थैलियों का अंबार यमुना से निकालकर वह कूड़ा गाड़ी में लादते हैं. जिसे निगम की गाड़ियां डंपिंग यार्ड ले जाती हैं.

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नदियों की धार्मिक महत्ता में उलझी विडंबनापूर्ण आस्था की सदाशयता

यमुना नदी की विडंबना ये है कि इसकी धार्मिक महत्ता गंगा से कम नहीं है. लिहाज़ा लोगों की आस्था के साथ सदाशयता का वर्ज्य पूजा सामग्रियों और चढ़ावे के फूल व बच्ची-खुची अगरबत्तियों की सूरत में इसमें भी फेंका जाता है. तमाम नियम-कानूनों के बावजूद लोग कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं. जिसके नतीजे में नदी में पूजा सामग्रियों का अंबार हर दिन फेंका जा रहा है. दीवाली के बाद न चाहते हुए भी करोड़ों छोटी-बड़ी मूर्तियां और लाल कपड़े नदी में ही फेंके जाते हैं. कई साल से जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, लेकिन लोगों की आस्था के आगे सब बौने साबित हो रहे हैं. देश के कई हिस्सों में मंदिरों से निकलने वाले कूड़े खाद और फूलों से अगरबत्तियां व सेंट बनाने का काम शुरू हुआ है, लेकिन अभी यह बहुत थोड़े पैमाने पर है. इसे बढ़ावा देने की सख्त जरूरत है. ऐसा करने से मंदिरों को एक तो आय का नया जरिया मिल जाएगा, दूसरे नदियों में फेंका जाने वाला कचरा काफी हद तक कम हो जाएगा. ऐसा होता देखने के बाद जनमानस भी बदलेगा. जिसके नतीजे में घरों से निकलने वाला पूजा सामग्रियों का अंबार बहुत हद तक कम हो जाएगा.

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नदियों का अस्तित्व बचाने के लिए बदलना होगा मास्टर प्लान

गंगा-यमुना, गोदावरी, कावेरी और शिप्रा ही नहीं बल्कि देश की तमाम नदियों को इस सभ्यता को संवारने और व्यवस्थाओं को सींचने-संवारने का माध्यम बनाया जा सकता है. इसके लिए सबसे पहले शहरों, नगरों और महानगरों के मास्टर प्लान की परिपाटी को बदलना होगा. कोई भी शहर ऐसा नहीं है, जिसके मास्टर प्लान में नालों को नदियों में उड़ेलने की व्यवस्था न बनाई गई हो. इस एक सूत्रीय गलती की वजह से पूरे देश की नदियां दूषित-प्रदूषित और मैली हो गई हैं.

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क्या शहरों से निकलने वाले नालों का पानी डबल ट्रीटमेंट के बाद सिंचाई के लिए नहीं दिया जा सकता. अगर शहरों के नालों को बार-बार ट्रीट करके नदियों में उड़ेलने की बजाय सीधे खेती के लिए नहरों और असिंचित इलाकों से जोड़ा जाए तो देश की सबसे बड़ी सूखे की समस्या से निजात मिल जाएगी. क्योंकि हर साल सूखा पड़ने से हजारों करोड़ का प्रत्यक्ष नुकसान होता है. इसके बाद सरकारी मुआवजे के तौर पर सैकड़ों करोड़ रुपए राज्यों को खर्च करने पड़ते हैं. ऐसा करके सरकार न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था में खर्च में कटौती जोड़कर और नए संसाधनों की आय मिलाकर मजबूती का नया आधार तैयार कर सकती है, बल्कि सिंचाई संसाधनों के तौर पर कई राज्यों में नहरों का विकास न कर पाने का अपना कलंक भी धो सकती है. इसलिए आज नहीं तो कल सरकार को मास्टर प्लान तो बदलना ही पड़ेगा.

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नदियों की गोद में मिलेगी आत्मिक सुख, यहीं मिलेगा परमानंद

कितनी बड़ी विडंबना है कि आज हम चांद और मंगल पर आशियाने बसाने के लिए हज़ारों करोड़ के प्रोजक्ट चला रहे हैं. नित नए सपने देख रहे हैं, लेकिन सदियों से सभ्यताओं को सींचने वाली नदियों को बचाने के लिए अपनी सोच और शर्तों को जरा सा नहीं बदल सकते. पूजा समग्री का नदियों में ही विसर्जन होना आवश्यक नहीं है. कूड़े का निस्तारण हर हाल में नदियों से दूर डंपिंग यार्डों में ही होना चाहिए. ऐसा करके हम जन्नत की कई क्यारियां इन नदियों की गोद में बसा सकते हैं. हमें ऐसे मनोरम और सुंदर नजारों के लिए फिर न क्योटो की ओर ताकना होगा और न ही स्विटजरलैंड, लंदन व अमेरिका की यात्रा करनी होगी. टेम्स, मिसौरी व मिसीसिपी नदी के लिए ललचाना होगा और न ही अमेजन व मिस्र की नील नदी के नजारे के लिए तरसना पड़ेगा. दुनिया का हर खूबसूरत नजारा हमारे अपने देश में हर दूसरे जिले, अंचल और प्रदेश में ही मिल जाएगा. लेकिन हमें इस बात को भी पहले अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि आत्मिक सुख और खुशहाली मनोरम और सुंदर नजारों के देखने से भी मिलती है. प्रकृति की गोद में वक्त बिताने से भी मन को शांति मिलती है. तभी हमारा मन-मस्तिष्क और मौजूद हर संसाधन नदियों को सहेजने, संवारने और निर्मल व सुंदर बनाने की ओर अग्रसर होंगे.

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