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बेल्ट एंड रोड पहल: जानिए क्या है भारत का रुख

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Published : Apr 28, 2019, 6:02 AM IST

बेल्ट रोड पहल पर भारत का रुख: एक व्यावहारिक चश्मे से खोज

भारत लगातार दूसरी बार बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सम्मेलन का बहिष्कार किया है. नीति विशेषज्ञों का एक वर्ग भारत के इस रवैये से निराश है. वहीं विशेषज्ञों वर्ग ऐसा भी है जो चीन के किसी भी झुकाव को सही नहीं मानता है.

हैदराबाद: भारत ने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सम्मेलन का लगातार दूसरी बार बहिष्कार किया है. भारत के इस रुख के बाद पर यह चर्चा का विषय बन गया है. नीति विशेषज्ञों का एक वर्ग भारत के इस रवैये से निराश है. वहीं विशेषज्ञों वर्ग ऐसा भी है जो चीन के किसी भी झुकाव को सही नहीं मानता है.

जबकि प्रो-बीआरआई अधिवक्ताओं का कहना है कि चूंकि बीआरआई एशिया, यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में कनेक्टिविटी में सुधार करके व्यापार और निवेश की संभावनाओं को बढ़ना चाहता है. इसलिए भारत को वैश्विक स्तर की इस परियोजना में शामिल होकर इसका लाभ उठाना चाहिए.

ये भी पढ़ें- एयर इंडिया का बड़ा फैसला, 24 घंटे के भीतर टिकट कैंसिल करने पर नहीं लगेगा कोई शुल्क

वहीं एक खंड ऐसा भी है जो बीआरआई को जालसाज मानता है. उसका मानना है कि बीआरआई छोटे और गरीब देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उनके महाद्वीपों में भू-राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है. कुछ लोग इसे चीन की एक बड़ी साजिश के रूप में भी देखते हैं. उनका कहना है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा जो बीआरआई का एक हिस्सा है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरता है जो देश के संप्रभु हितों के खिलाफ है.

भारत के पास खोने के लिए कुछ नहीं
इसमें कोई शक नहीं है कि चीन वैश्विक राजनीतिक मंच में पश्चिमी प्रभुत्व के समानांतर शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है. यह तथ्य कि यह बीआरआई सम्मेलन 100 से अधिक देशों के प्रतिनिधी शामिल हुए हैं. यह चीन कि पहुंच और क्षमता को दिखाता है. साथ ही बाकी दुनिया को चीन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है.

बता दें कि सीमा विवाद और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर चीन और भारत के बीच तीखी नोकझोंक होती रही है. इसके साथ ही यह ध्यान रखना उचित है कि भारत भी 'एक्ट ईस्ट पॉलिसी' के माध्यम से म्यांमार और थाईलैंड में महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ रहा है. इसके साथ ही ईरान और अन्य मध्य एशियाई देशों को 'गो वेस्ट स्ट्रेटेजी' के माध्यम से उलझा रहा है. साथ ही बांग्लादेश और म्यांमार के साथ बहुसांस्कृतिक संबंध बनाने में भी काफी प्रयास कर रहा है.

भारत पश्चिम के लगभग सभी विकसित देशों के साथ स्वस्थ संबंधों का भी आनंद लेता है. इसके अलावा, यह उम्मीद की जाती है कि 2050 तक भारत की कामकाजी आबादी में 200 मिलियन की वृद्धि होगी और चीन में 200 मिलियन की कमी होगी. इसलिए बीआरआई में शामिल नहीं होने से भारत को कुछ भी खोना नहीं पड़ेगा.

कर्ज का जाल: सच या झूठ
चीन ने परियोजना के भागीदारों को 'ऋण जाल' में धकेलने का तर्क सही नहीं है. वास्तव में यह उल्टा होगा. चीन जिन देशों को कर्ज दे रहा है उनमें से अधिकांश का कर्ज प्रोफाइल अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं है. मिसाल के तौर पर दिसंबर 2018 में जारी की गई पेकिंग यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में पाकिस्तान को वित्तीय विनियमन गुणवत्ता और व्यापार के खुलेपन के मोर्चे पर 94 बीआरआई देशों की सूची में 60 बिलियन डॉलर का बीआरआई ऋण प्राप्त हुआ है जो कि काफी कम है.

चीन पट्टे के लिए अपने नाम पर डिफ़ॉल्ट राष्ट्रों की संपत्ति नहीं प्राप्त कर सका है. इसमें यह भी तथ्य है कि भू-राजनीतिक और रणनीतिक वास्तविकताएं एक देश से दूसरे देश में भिन्न होती हैं और चीन द्वारा ऐसा कोई भी प्रयास केवल वैश्विक सुपर पावर बनने के ड्रैगन के सपने को तोड़फोड़ करेगा.

इसके बाद केवल एक ही विकल्प बचा है कि वह अपने निवेश पर कम रिटर्न की अपेक्षा करें. इस प्रकार चीन जो इस परियोजना पर एक ट्रिलियन डॉलर खर्च करने की योजना बना रहा है वह खुद कर्ज के जाल में फंसता नजर आ रहा है ना कि अन्य देश.

यही कारण है कि चीनी प्रीमियर दुनिया को अपनी पहल में साझीदार बनाने का अनुरोध कर रहा है. चीन का मकसद बस अपने जोखिम को कम करने का है. इसलिए चीन वही कर रहा है जो उसे सबसे अच्छा लगता है और भारत ने भी बीआरआई की सदस्यता ना लेकर ऐसा ही किया है.

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बेल्ट रोड पहल पर भारत का रुख: एक व्यावहारिक चश्मे से खोज

हैदराबाद: भारत ने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सम्मेलन का लगातार दूसरी बार बहिष्कार किया है. भारत के इस रुख के बाद पर यह चर्चा का विषय बन गया है. नीति विशेषज्ञों का एक वर्ग भारत के इस रवैये से निराश है. वहीं विशेषज्ञों वर्ग ऐसा भी है जो चीन के किसी भी झुकाव को सही नहीं मानता है.

जबकि प्रो-बीआरआई अधिवक्ताओं का कहना है कि चूंकि बीआरआई एशिया, यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में कनेक्टिविटी में सुधार करके व्यापार और निवेश की संभावनाओं को बढ़ना चाहता है. इसलिए भारत को वैश्विक स्तर की इस परियोजना में शामिल होकर इसका लाभ उठाना चाहिए.

वहीं एक खंड ऐसा भी है जो बीआरआई को जालसाज मानता है. उसका मानना है कि बीआरआई छोटे और गरीब देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उनके महाद्वीपों में भू-राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है. कुछ लोग इसे चीन की एक बड़ी साजिश के रूप में भी देखते हैं. उनका कहना है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा जो बीआरआई का एक हिस्सा है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरता है जो देश के संप्रभु हितों के खिलाफ है.

भारत के पास खोने के लिए कुछ नहीं 

इसमें कोई शक नहीं है कि चीन वैश्विक राजनीतिक मंच में पश्चिमी प्रभुत्व के समानांतर शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है. यह तथ्य कि यह बीआरआई सम्मेलन 100 से अधिक देशों के प्रतिनिधी शामिल हुए हैं. यह चीन कि पहुंच और क्षमता को दिखाता है. साथ ही बाकी दुनिया को चीन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है. 

बता दें कि सीमा विवाद और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर चीन और भारत के बीच तीखी नोकझोंक होती रही है. इसके साथ ही यह ध्यान रखना उचित है कि भारत भी 'एक्ट ईस्ट पॉलिसी' के माध्यम से म्यांमार और थाईलैंड में महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ रहा है. इसके साथ ही ईरान और अन्य मध्य एशियाई देशों को 'गो वेस्ट स्ट्रेटेजी' के माध्यम से उलझा रहा है. साथ ही बांग्लादेश और म्यांमार के साथ बहुसांस्कृतिक संबंध बनाने में भी काफी प्रयास कर रहा है. 

भारत पश्चिम के लगभग सभी विकसित देशों के साथ स्वस्थ संबंधों का भी आनंद लेता है. इसके अलावा, यह उम्मीद की जाती है कि 2050 तक भारत की कामकाजी आबादी में 200 मिलियन की वृद्धि होगी और चीन में 200 मिलियन की कमी होगी. इसलिए बीआरआई में शामिल नहीं होने से भारत को कुछ भी खोना नहीं पड़ेगा. 



कर्ज का जाल: सच या झूठ

चीन ने परियोजना के भागीदारों को 'ऋण जाल' में धकेलने का तर्क सही नहीं है. वास्तव में यह उल्टा होगा. चीन जिन देशों को कर्ज दे रहा है उनमें से अधिकांश का कर्ज प्रोफाइल अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं है. मिसाल के तौर पर दिसंबर 2018 में जारी की गई पेकिंग यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में पाकिस्तान को वित्तीय विनियमन गुणवत्ता और व्यापार के खुलेपन के मोर्चे पर 94 बीआरआई देशों की सूची में 60 बिलियन डॉलर का बीआरआई ऋण प्राप्त हुआ है जो कि काफी कम है. 

चीन पट्टे के लिए अपने नाम पर डिफ़ॉल्ट राष्ट्रों की संपत्ति नहीं प्राप्त कर सका है. इसमें यह भी तथ्य है कि भू-राजनीतिक और रणनीतिक वास्तविकताएं एक देश से दूसरे देश में भिन्न होती हैं और चीन द्वारा ऐसा कोई भी प्रयास केवल वैश्विक सुपर पावर बनने के ड्रैगन के सपने को तोड़फोड़ करेगा. 

इसके बाद केवल एक ही विकल्प बचा है कि वह अपने निवेश पर कम रिटर्न की अपेक्षा करें. इस प्रकार चीन जो इस परियोजना पर एक ट्रिलियन डॉलर खर्च करने की योजना बना रहा है वह खुद कर्ज के जाल में फंसता नजर आ रहा है ना कि अन्य देश.

यही कारण है कि चीनी प्रीमियर दुनिया को अपनी पहल में साझीदार बनाने का अनुरोध कर रहा है. चीन का मकसद बस अपने जोखिम को कम करने का है. इसलिए चीन वही कर रहा है जो उसे सबसे अच्छा लगता है और भारत ने भी बीआरआई की सदस्यता ना लेकर ऐसा ही किया है. 


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