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यूपी के संभावित सीएम : विधानसभा चुनाव में लड़ेंगे नहीं, जीत गए तो बनेंगे MLC !

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Published : Jul 22, 2021, 6:16 PM IST

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देश के जिन 6 राज्यों में विधान परिषद है, वहां के बड़े नेताओं को बड़े संवैधानिक पद पाने में दिक्कत नहीं होती है. खासकर मुख्यमंत्री और मंत्री पद के दावेदारों को. माहौल पक्ष में रहा तो चुनाव लड़ लिए, नहीं तो विधान परिषद के रास्ते 6 महीने के भीतर स्थायी सदन के सदस्य बन जाते हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में कई नेताओं ने मुख्यमंत्रियों ने विधान परिषद वाले रास्ते को चुना है.

हैदराबाद : यूपी में विधानसभा चुनाव भले ही अगले साल 2022 में हों , मगर सभी दलों की ओर से उनके सीएम कैंडिडेट तय हैं, सिर्फ कांग्रेस को छोड़कर. बीएसपी ( BSP) में मायावती (Mayawati) और समाजवादी पार्टी ( Samajwadi Party) की ओर से अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ही मुख्यमंत्री के दावेदार हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीएम योगी आदित्यनाथ की तारीफ कर यह तय कर दिया है कि बीजेपी अगला विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में लड़ेगी. कांग्रेस की ओर से अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि चुनाव और उसके बाद पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा

भले ही कांग्रेस अपना सीएम चेहरे का ऐलान न करे, पसंद के नेता को मुख्यमंत्री बनाना आसान है. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने के लिए विधानसभा सदस्य होना जरूरी नहीं है, इसलिए जरूरी नहीं है कि सीएम कैंडिडेट विधानसभा चुनाव लड़े ही. देश के इस बड़े सूबे में विधान परिषद ( Legislative Council) भी सक्रिय है. यह प्रदेश की विधायिका का उच्च सदन है. यह भी राज्यसभा की तरह एक स्थायी सभा है, जिसके 100 सदस्य हैं. इस सदन के सदस्य एमएलसी ( Member of Legislative Council) कहे जाते हैं, जबकि विधानसभा के सदस्य को एमएलए ( Member of Legislative Assembly) कहा जाता है. पार्टी की जीत के बाद चुने गए मुख्यमंत्री प्रदेश के इस उच्च सदन के माध्यम से भी कुर्सी पर विराजमान होते रहे हैं. अभी तक प्रदेश के चार मुख्यमंत्री विधान परिषद् के रास्ते ही इस संवैधानिक पद तक पहुंचे हैं.

मायावती और अखिलेश यादव भी रहे एमएलसी

मायावती 13 मई 2007 से 15 मार्च 2012 के चौथे कार्यकाल के दौरान एमएलसी ही रहीं. हालांकि वह अपने दूसरे कार्यकाल 21 मार्च 1997 से 21 सितंबर 1997 ( 6 महीने ) के दौरान हरौरा विधानसभा क्षेत्र की प्रतिनिधि थी. अपने तीसरे कार्यकाल ( 3 मई 2002 - 29 अगस्त 2003) में भी वह हरौरा की विधायक रहीं. अपने पहले कार्यकाल ( 3 जून 1995 -18 अक्टूबर 1995) के दौरान वह किसी सदन की सदस्य नहीं रहीं. 2012 में जब समाजवादी पार्टी को जनादेश मिला तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. सीएम बनने से पहले अखिलेश यादव कन्नौज से सांसद थे. पार्टी जीती तो संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. सीएम बनने के बाद वह भी विधान परिषद का सहारा लिया और एमएलसी बने. अखिलेश यादव 15 मार्च 2012 से 19 मार्च 2017 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे.

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बीजेपी के राम प्रकाश गुप्त विधान परिषद के रास्ते सीएम बनने वाले यूपी के पहले मुख्यमंत्री थे.

योगी आदित्यनाथ ने भी चुना विधान परिषद का रास्ता

विधान परिषद के रास्ते सीएम बनने वालों में यूपी के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को प्रचंड जनादेश मिला. पार्टी ने 403 सदस्यों वाली विधानसभा में 325 सीटों पर दर्ज की. बीजेपी ने किसी को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किए बिना ही यह चुनाव लड़ा था. बाद में योगी आदित्यनाथ को विधायक दल ने मुख्यमंत्री चुना. तब वह गोरखपुर से सांसद थे. योगी आदित्यनाथ भी मुख्यमंत्री बनने के बाद विधान परिषद के सदस्य बने. इन तथ्यों पर गौर करें तो 2007 से 2021 तक सीएम की कुर्सी पर बैठने वाले नेता ने विधानसभा के बजाय विधान परिषद का रास्ता चुना. हालांकि सबसे पहले विधान परिषद के रास्ते सीएम बनने वाले मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त रहे. 12 नवंबर 1998 से 28 अक्टूबर से 1999 तक 351 दिनों तक वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे.

चुनाव नहीं लड़ने के फायदे भी हैं

आने वाले चुनाव में यह देखना है कि क्या भारतीय जनता पार्टी, बीएसपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस अपने सीएम चेहरे को चुनाव मैदान में उतारेगी. सीएम कैंडिडेट के चुनाव मैदान में उतरने के फायदे हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर सीएम का चेहरा स्पष्ट हो तो वोटर कन्फ्यूज नहीं होता है. पार्टी को कैडर वोट के साथ सीएम के प्रशंसकों के वोट भी मिल जाते हैं. साथ ही उसके चुनाव क्षेत्र के आसपास भी उसकी उपस्थिति का असर होता है. मगर उत्तर प्रदेश में इसके उलट भी नतीजे आए हैं. 2012 के चुनाव के दौरान मायावती सीएम थीं. सपा के सीएम पद के लिए मुलायम सिंह यादव अघोषित चेहरा थे. नतीजों के बाद अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. 2017 में ऐसे ही जनता ने बिना सीएम चेहरे वाली बीजेपी को बहुमत दिया था. मगर इसका एक दूसरा पहलू भी है, विपक्षी ऐसे घोषित चेहरे को उसके विधानसभा क्षेत्र में उलझाए रखते हैं. स्टार प्रचारक के तौर पर उसका उपयोग अपेक्षा से कम होता है. साथ ही, अगर वह हार जाता है तो जीत के बाद भी पार्टी की किरकिरी हो जाती है. जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की हार अभी भी राजनीतिक तौर से तृणमूल कांग्रेस को परेशान कर रही है. ऐसी स्थिति में इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं कि बीजेपी योगी आदित्यनाथ को चुनाव में उतारेगी. अखिलेश और मायावती भी विधानसभा चुनाव में उतरने से परहेज ही करेंगे.

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपने सभी कार्यकाल में विधान परिषद के ही सदस्य रहे

भारत के सिर्फ 6 राज्यों में है विधान परिषद

भारत के 6 राज्यों में विधान परिषद है. उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और कर्नाटक. इन राज्यों में सीएम पद के दावेदार एमएलसी बने हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपने सभी कार्यकाल में एमएलसी ही रहे. तीन कार्यकाल तक उनका साथ निभाने वाले सुशील मोदी भी उपमुख्यमंत्री के पद पर काबिज रहने के लिए विधान परिषद का ही रास्ता चुना था. 1997 लालू प्रसाद यादव ने जनता दल को तोड़ राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था. चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव के इस्तीफा देने के बाद बाद राबड़ी देवी को आरजेडी विधायक दल का नेता चुना गया. वह बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी और फिर विधान परिषद की सदस्य. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्भव ठाकरे और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के बीच विवाद भी विधान परिषद में मनोनयन को लेकर हुआ था. आखिरकार मई में उन्हें शिवसेना के कोटे से विधान परिषद भेजा गया. पश्चिम बंगाल में विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव सीएम ममता बनर्जी ने केंद्र को भेजा है. इसके अलावा मध्यप्रदेश में विधान परिषद गठन की मांग हो रही है.

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