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चौथे चरण में कम वोट प्रतिशत के क्या हैं मायने, समझिए

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Published : Feb 25, 2022, 9:25 PM IST

भाजपा उम्मीद कर रही थी कि यूपी चुनाव के चौथे चरण में वह पहले के तीन चरणों में हुए नुकसान की भरपाई कर लेगी. लेकिन कम वोट प्रतिशत ने उनकी धड़कनें तेज कर दी हैं. वैसे आमतौर पर माना जाता है कि कम वोट प्रतिशत से सत्ताधारी दल को फायदा पहुंचता है. लेकिन यूपी का चुनाव इस बार कुछ अलग अंदाज में दिख रहा है. चौथा चरण क्या संदेश दे रहा है, पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार श्रीनंद झा का एक विश्लेषण.

bjp rally up
भाजपा की रैली यूपी

नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश में अब तक चार चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है. चौथे चरण में अवध, रोहिलखंड और तराई के क्षेत्रों में बुधवार को 59 सीटों पर मतदान हुआ. यहां पर भी पहले के तीन चरणों जैसा ही ट्रेंड देखने को मिला, औसतन 57.72 प्रतिशत मतदान. 2017 में यहां पर 62.17 फीसदी मतदान हुआ था. उदाहरण के तौर पर सीतापुर में पिछली बार के मुकाबले इस बार के चुनाव में10 फीसदी कम वोटिंग हुई, लखीमपुर खीरी में 6.5 फीसदी, पीलीभीत में 6 फीसदी, राय बरेली में 2.5 फीसदी और लखनऊ में 3.5 फीसदी कम मतदान हुआ.

2017 में इन 59 सीटों में से भाजपा को 50 सीटें मिली थीं, जबकि इसके सहयोगी अपना दल को एक सीट मिली थी. यहां पर जाट, यादव और मुस्लिम वोटर्स जनसांख्यिकीय तौर पर अधिक मजबूत नहीं माने जाते हैं. और इस बार के चुनाव में इन तीनों को भाजपा का विरोधी ठहराया जा रहा है. भाजपा इसी आधार पर इस राउंड को अपने पक्ष में मानकर चल रही थी. उनका अनुमान था कि पहले के तीन राउंड में जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई इस बार हो जाएगी. लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट ऐसा नहीं बता रहे हैं. इसके मुताबिक समाजवादी पार्टी ने भाजपा को पूरे क्षेत्र में कड़ी टक्कर दी है.

चुनाव विश्लेषक (सेफोलॉजिस्ट) का मानना रहा है कि अधिक वोट प्रतिशत का अर्थ होता है बदलाव. लेकिन हर परिस्थितियों में यह सही नहीं होता है. सेफोलॉजिस्ट विकास जैन का कहना है कि चौथे चरण में कम मतदान भाजपा के समर्थकों और कार्यकर्ताओं की कम उत्सुकता की ओर संकेत दे रहे हैं. उन्होंने कहा कि पिछली बार यहां की 35 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों ने औसतन 30 हजार वोटों से भी अधिक मतों से जीत हासिल की थी. कम वोटिंग का मतलब है कि उनकी ऊर्जा कम दिखी. यह कड़े मुकाबले की ओर संकेत दे रहा है. इसलिए इस बार इन सीटों पर जीत-हार का अंतर भी भी काफी कम होगा.

चौथे चरण में करीब 26 फीसदी दलित मतदाता थे. उनका मत प्रतिशत बहुत अधिक महत्वपूर्ण रहने वाला है. खासकर गैर जाटवों का. ग्राउंड रिपोर्ट बताते हैं कि पासी समाज भाजपा से दूर जा चुका है. और इनका वोट बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा के बीच बंट गया है. इसका मतलब ये है कि भाजपा का सोशल इंजीनियरिंग यानी हिंदुओं के बीच गैर जाटव और गैर यादवों को एक साथ लाने का सपना अधूरा रहने वाला है. पिछले चुनावों में भाजपा इन्हें एक साथ लाने में सफल रही थी. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी इस बार ऊपरी तौर पर बहुत अधिक 'दलित प्रेम' नहीं दिखाया, बल्कि बैक चैनल रणनीति पर जोर दिया. बसपा के पूर्व नेता इंद्रजीत सरोज को सपा ने विशेष जिम्मेदारी दी थी. उनके अलावा राम अचल राजभर, आरके चौधरी और लालजी वर्मा को पार्टी में शामिल किया गया. ये सभी ओबीसी समुदाय से आते हैं. चुनाव से ठीक पहले बसपा के कई जिला संयोजकों ने भी सपा का दामन थाम लिया था. इससे भी सपा को फायदा पहुंचा.

भाजपा के थिंक टैंक के पास चिंता होने की कई वजहें हैं. एंटी इनकंबेंसी, कैडर का निरुत्साहित रहना, आंतरिक गुटबाजी वगैरह. अब तक 231 सीटों में से चौथे चरण में कम मतदान होना यह दर्शाता है कि अगर भाजपा के विरोध में लहर नहीं है, तो उनके पक्ष में भी उत्साहजनक स्थिति नहीं है. 2017 में यह स्थिति नहीं थी. तब भाजपा के कैडरों ने बढ़-चढ़कर मतदान किया था. भाजपा के सामने अब मुख्य रूप से दो चुनौतियां हैं. पहला- 2017 में पार्टी अपनी लोकप्रियता का चरम छू चुकी है. दूसरा- बिल्कुल अंत समय में कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने जिस तरीके से पार्टी छोड़ी, उसके बाद पार्टी ने अपनी एक योजना को ही तिलांजलि दे दी, जिसमें 40 फीसदी विधायकों के टिकट काटने की बात कही जा रही थी. उनकी जगह पर नए चेहरों को मौका मिलने वाला था. चौथे चरण में जहां मतदान हुआ, वह चाहे लखीमपुर खीरी हो, सीतापुर हो या फिर राय बरेली. सभी जगहों पर पार्टी को अपने ही नेताओं का विरोध झेलना पड़ा. लिहाजा यहां पर सपा गठबंधन ने कड़ी चुनौती पेश की है. पार्टी का अपना आकलन है कि चौथे चरण में वह नुकसान की बहुत हद तक भरपाई कर पाएगी. 2017 में तो पार्टी ने पीलीभीत की सभी चार सीटें, लखीमपुरखीरी की सभी आठ सीटें और फतेहपुर में छह में से पांच सीटें और हरदोई में आठ में से सात सीटें जीत ली थीं.

पिछली बार की सफलता को बरकरार रखने की बड़ी चुनौती का सामना कर रही भाजपा अब समाजवादी पार्टी को अपराधियों और देश विरोधी ताकतों के समर्थक बताने की रणनीति पर काम कर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वंय ही अभी हाल ही में उन्होंने सपा के चुनाव चिन्ह साइकिल पर तंज कसा. उन्होंने कहा था कि 2008 में गुजरात में बम धमाकों के लिए साइकिल का प्रयोग किया गया था. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने आरोप लगाया कि अहमबदाबाद ब्लास्ट के एक दोषी का संबंध सपा नेता से है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी सपा नेताओं को 'तमंचावादी' कहा. उन्होंने कहा कि 10 मार्च, मतगणना की तारीख, के बाद भी अपराधियों के खिलाफ बुलडोजर जारी रहेगा.

अब तक चार चरणों के मतदान में आधी से अधिक सीटों पर मतदान हो चुका है. इसके बावजूद कि चुनाव में कई पार्टियां शामिल हैं, इस बार का उत्तर प्रदेश का चुनाव भाजपा और सपा के बीच द्वि-ध्रुवीय बन चुका है.

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(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. यहां व्यक्त किए गए तथ्य और राय ईटीवी भारत के विचारों को नहीं दर्शाते हैं)

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