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देश की आजादी में इन गांवों के स्वतंत्रता सेनानियों ने निभाई थी अहम भूमिका, कालापानी की सजा से भी नहीं डिगे कदम

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Published : Aug 15, 2022, 7:45 AM IST

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हरिद्वार से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर श्यामपुर गाजीवाली गांव हैं. इस गांव का देश की आजादी में अहम योगदान रहा है. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले इस छोटे से गांव ने 14 स्वतंत्रता सेनानी दिए हैं. यहां पर ब्रिटिशकालीन थाना और जेल भी है, जहां इन वीरों को रखा जाता था, लेकिन उपेक्षा के चलते वीरों का गांव बदहाली के आंसू रो रहा है.

हरिद्वार: देश की आजादी के 75 साल पूरे हो गए हैं. ऐसे में हर तरफ स्वतंत्रता दिवस (Independence Day 2022) की धूम है. देश इसे आजादी का अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है. देश को आजाद कराने को लेकर हजारों ने लोगों ने अपना बलिदान दिया. जिसमें हरिद्वार के छोटे से श्यामपुर गांव का भी अहम योगदान रहा है. अंग्रेजों से देश को आजाद कराने में इस छोटे से गांव ने 14 स्वतंत्रता सेनानी दिए हैं. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आज आपको उन सेनानी की वीरता और बलिदान से रूबरू कराते हैं. जिनकी निशानियां आज भी गांव में मौजूद हैं. वहीं, कटारपुर गांव के शहीद मुक्खा सिंह और उनके साथियों की शौर्य गाथाएं आज भी लोगों की जुबान पर है.

14 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का गांव श्यामपुरः बता दें कि देश की आजादी में अपनी भूमिका निभाने वाले 14 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का गांव गाजीवाला श्यामपुर (Village of freedom Fighters Ghaziwala Shyampur) का अहम योगदान रहा है. यहां पर ब्रिटिशकालीन एक जेल भी मौजूद है. जहां अंग्रेजों से लोहा लेने के दौरान गिरफ्तार स्वतंत्रता सेनानियों रखा जाता था. जो आज भी उनके संघर्ष और बलिदान की गवाही देता है, लेकिन इस ब्रिटिशकालीन थाना और जेल खंडहर में तब्दील हो गया है.

देश की आजादी में इन गांवों के स्वतंत्रता सेनानियों ने निभाई थी अहम भूमिका.

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असहनीय होते थे अंग्रेजों के जुर्मः श्यामपुर के ग्रामीण इस ऐतिहासिक जेल को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृति में संरक्षित करने और इसकी मरम्मत कराने की मांग कर चुके हैं, लेकिन आज तक नेताओं व अफसरों ने इसकी सुध नहीं ली. न ही इस थाने और जेल को जीर्णोद्वार कराने के बारे में सोचा. गुलामी के दिनों को यादकर आज ग्रामीण सिहर हो उठते हैं. ग्रामीण बताते हैं कि अंग्रेजों के जुर्म काफी असहनीय होते थे. उनकी माताएं उन्हें लेकर जंगलों में शरण ले लेती थीं. उन्हें गांव छोड़ना पड़ता था. यह थाना साल 1904 में बनाया गया था. यहां पर स्थित कोठरी में जाने माने सुलताना डाकू को कैद किया गया था.

मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा श्यामपुर गांवः वहीं, हरिद्वार जिले के बहादराबाद ब्लॉक का यह गांव मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है. गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क का बुरा हाल है. शासन और प्रशासन की उपेक्षा से सेनानियों के परिजन खासे नाराज हैं. स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों का कहना है कि गांव में सेनानियों का स्मृति द्वार तक नहीं है. वे कई बार स्मृति द्वार बनाने की मांग कर ठक चुके हैं, लेकिन उनकी बातों को कोई सुनने वाला ही नहीं है.

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स्वतंत्रता सेनानियों का इतिहास हो जाएगा धूमिलः स्वतंत्रता सेनानी के आश्रितों का कहना है कि अगर सरकार ने इस तरह से उपेक्षित रखा तो आने वाले दिनों में बच्चे भी गांव का इतिहास भूल जाएंगे. अगर शासन या प्रशासन सेनानियों की दिलेरी और बहादुरी का सम्मान करता तो आज गांव का नाम प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में होता, लेकिन आज यह गांव गुमनाम है. उनका साफ कहना है कि एक ओर आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, दूसरी ओर स्वतंत्रता सेनानियों का गांव बदहाल स्थिति में है.

कटारपुर गांव के शहीद मुक्खा सिंह और उनके साथियों की शौर्य गाथाएंः देश की आजादी के लिए हजारों लोगों ने अपनी जान की कुर्बानियां दी. हरिद्वार के कटारपुर गांव में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने वाले शहीद मुक्खा सिंह और उनके साथियों की शौर्य गाथाएं आज भी लोगों की जुबान पर रहती है.

हरिद्वार शहर से कुछ ही दूरी पर बसे गांव कटारपुर को शहीदों के गांव के नाम से भी जाना जाता है. साल 1918 में ब्रिटिश हुकूमत के एक अधिकारी ने दूसरे समुदाय के त्योहार पर गायों के कत्लेआम का फरमान दे दिया था. अंग्रेजों का ये फरमान ग्रामीणों को नागवार गुजरा. जब गौहत्या की जा रही थी, तब आजादी की दीवाने रहे मुक्खा सिंह चौहान के नेतृत्व में ग्रामीणों ने अंग्रेजी सिपाहियों पर हमला बोल दिया. गायों को आजाद कराया.

मुक्खा सिंह चौहान को फांसी पर लटकाया गयाः ग्रामीणों के इस कदम से अंग्रेजों की नींद उड़ गई. जिसके बाद 133 ग्रामीणों को गिरफ्तार कर काला पानी की सजा सुनाई गई. साल 1920 में मुक्खा सिंह चौहान समेत बागियों को फांसी पर लटका दिया गया. साल 1947 में देश की आजादी के बाद ग्रामीणों ने शहीदों की याद में स्मारक बनाया. आज भी यहां हर साल शहीदों की याद में मेला लगता है. हालाकि शहीदों के परिवार और ग्रामीणों ने इन गुमनाम नायकों को जरूरी सम्मान और दर्जा दिलाने की काफी कोशिश की, लेकिन अभी तक सरकारों ने शहीदों को उनके हक का सम्मान नही दिया है.

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