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सामना: जावेद अख्तर के बहाने शिवसेना ने केंद्र पर साधा निशाना

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Published : Dec 6, 2021, 11:25 AM IST

सामना जावेद अख्तर के बहाने सरकार पर निशाना
सामना जावेद अख्तर के बहाने सरकार पर निशाना

शिवसेना के मुखपत्र सामना के आज के अंक में प्रकाशित संपादकीय में नासिक में हुए अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में गीतकार जावेद अख्तर द्वारा की गई टिप्पणियों को लेकर एक बार फिर से केंद्र में भाजपा की सरकार पर निशाना साधा गया.

मुंबई: सामना के संपादकीय में प्रश्न पूछा गया कि नासिक के 94वें साहित्य सम्मेलन ने मराठी भाषा को क्या दिया? इसके अलावा देश और समाज को क्या दिया? यह सवाल है. इसके बाद कहा गया कि महाराष्ट्र ने हमेशा देश को देने की भूमिका निभाई. इसमें मराठी भाषा का भी योगदान है. नासिक में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए, वरिष्ठ गीतकार जावेद अख्तर ने लेखकों से आह्वान किया है कि 'आत्मसमर्पण मत करो, घुटने मत टेको.'

मराठी साहित्य सम्मेलन के मंच से जावेद अख्तर ने पूरे देश को ये संदेश दिया. जावेद अख्तर एक वाकपटु वक्ता और कवि हैं. उनके लेखन की आग अमिताभ जैसे कलाकारों के मुंह से निकली. देश वर्तमान में अघोषित प्रतिबंधों के दौर से गुजर रहा है. लेखक और वक्ता दबाव में हैं, जबकि कुछ लोग इस दबावतंत्र की वाहवाही करने में ही धन्यता मान रहे हैं. यह डर है. उनको ध्यान में रखते हुए जावेद ने कहा, ‘जो बात कहने से डरते हैं सब, तू वो बात लिख. इतनी अंधेरी थी न पहले कभी रात लिख.' जावेद अख्तर द्वारा नासिक की भूमि से लेखकों से किया गया यह आह्वान महत्वपूर्ण है. सौ दिन बकरी की तरह जीने के बजाय एक दिन बाघ की तरह जीना ही उनके भाषण का मूल है.

नासिक के कवि कुसुमाग्रज का शहर होने के साथ ही क्रांतिकारी कवि-लेखक विनायक दामोदर सावरकर की भूमि भी है. साहित्य सम्मेलन नगरी को कुसुमाग्रज का नाम दिया गया उसी तरह एक प्रमुख हॉल या प्रवेश द्वार को सावरकर का नाम देकर उन्हें मानवंदना दी जा सकती थी, लेकिन सावरकर को थोड़ा दूर ही रखा गया. अर्थात, ‘शरणागत न होइए’ ये अख्तर का संदेश सावरकर की भूमिका से मेल खाता है. स्वतंत्रता-पूर्व काल में सावरकर के अंदर के लेखक ने स्पष्ट लिखा था कि ‘कलम तोड़ो और हाथ में बंदूक उठा लो!’

लेकिन सावरकर के अलावा किसी ने बंदूक नहीं उठाई. जब लिखने और बोलने पर प्रतिबंध लगता है, तब लेखक मंडली सबसे पहले बचाव मुद्रा में आ जाती है और हम अपनी सीमा में हैं व तटस्थ हैं, ऐसा दिखाते हैं. अख्तर ने साहित्यकारों की इसी नीति पर प्रहार किया है. पहले खरी-खरी बोलनेवालों को खतरनाक कहा जाता था. अब उन्हें देशद्रोही ठहराया जाता है. फिर भी हमें बोलते रहना चाहिए, ऐसा अख्तर कहते हैं. ‘लोग आपस में सहजता से बात कर सकें इसलिए भाषा का निर्माण हुआ, लेकिन भाषा ही आज के संवाद की दीवार बन गई है.

हम भूल गए हैं कि भाषा से परे भी एक दुनिया है. अख्तर आगे कहते हैं कि लोकतंत्र में जैसे सरकार और राजनेता अहम हैं, उसी तरह साहित्यकार और आम जनता को बोलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. सामाजिक मुद्दों पर लड़ने का बल जाति-धर्म-प्रांत के भेदभाव से नहीं बल्कि भारतीयों की एकता से मिलता है. साहित्यकार, आम जनता के प्रश्नों को प्रस्तुत नहीं करेंगे तो आपकी लेखनी किस काम की? यह सवाल उनसे पूछना चाहिए, ऐसा अख्तर कहते हैं और मौजूदा स्थिति को लेकर उन्होंने लेखकों के कान मरोड़े हैं.

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डर के साये में जीनेवाले लेखक मतलब भेंड-बकरियों की दुम की तरह हैं. ये दुम देश के किसी काम की नहीं हैं. स्पष्ट बोलनेवालों को घेरकर कोसा जाता है. जावेद अख्तर इन परिस्थितियों से गुजर चुके हैं, इसीलिए उनके मन की वेदना छलककर बाहर आई है. आपातकाल में लेखन की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया, उसका शोक आज भी व्यक्त किया जाता है. उन दिनों भी अभिव्यक्ति की आजादी बेहाल हुई. लेखन शरणागत हो गया. कुछ समाचार पत्रों पर ताले लग गए. कुछ ने तो बेवजह घुटने टेक दिए. उस पर लालकृष्ण आडवाणी ने अच्छी टिप्पणी की थी. ‘उन्होंने केवल झुकने को कहा था लेकिन आप सभी तो रेंगने ही लगे!' आज भी अलग स्थिति नहीं है. इस परिस्थिति में लेखक, पत्रकार न बोलें तो कौन बोलेगा?

मराठी भाषा अर्थात क्रांति का फूल है

मराठी भाषा अर्थात क्रांति का फूल है. संत साहित्य से लेकर क्रांति, विद्रोही लेखन तक निरंतर भाषा की चिंगारियां उड़ती रहीं. मराठी भाषा ने लोगों के मन और कलाई को बल दे ही रखा है. लोकमान्य तिलक, आचार्य अत्रे, बालासाहेब ठाकरे के शब्दसामर्थ्य अग्निफूलों के सामर्थ्य की तरह ही थे. वीर सावरकर भी उसी पंथ के थे. ‘गर्जा जय-जयकार क्रांति का गर्जा जय-जयकार’, ऐसा कहनेवाले कुसुमाग्रज व ‘टूटा होगा घर, लेकिन टूटी नहीं रीढ़; बस पीठ पर हाथ रखकर कहो लड़’, ऐसा आत्मविश्वास देनेवाले कुसुमाग्रज लड़नेवालों के ही नेता थे. दुर्गा भागवत जैसी लेखिका, आपातकाल के प्रतिबंधों के खिलाफ बोलती और लिखती रहीं और बाद में जेल गईं. आज भी लेखक, कवि, पत्रकार जेल जा रहे हैं.

अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करना कई लेखकों के लिए आज देशद्रोह का मामला बना हुआ है. लेखक, पत्रकारों पर खुफिया नजर रखी जा रही है. वर्ष 2014 में स्वतंत्रता मिली, ऐसा कहनेवालों के देश में सैकड़ों निर्दोष लोग सरकारी निर्णय की बलि चढ़े हैं. नोटबंदी, कोविड, किसान आंदोलन में बीते सात वर्षों में लोगों की मौत हुई. यह सब लेखकों, कवियों के चिंतन का विषय क्यों न बने? जावेद अख्तर ने ठीक उसी मुद्दे पर उंगली रखी है. अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का समापन हो चुका है. फिर भी जावेद अख्तर के भाषण पर और कुछ दिनों तक चर्चा होती रहेगी!

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